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अकाल में सुकाल

जागरण मेहमान कोना
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1966-67 में सदी का सबसे भीषण अकाल पड़ा। चतुर्दिक भूख, भुखमरी, सूखा और अकाल का साम्राज्य। आदमी, पशु-पक्षी सब बेहाल। पेड़-पौधे-तरुतृण, ताल-तलैया, नदी-नाले सब सूख गए। पशु-पक्षी तो दूर आदमी तक पानी की बूंद-बूंद को तरस गया। बिन पानी सब सून। पिछले वर्षो की लगातार अनावृष्टि ने त्राहि-त्राहि मचा दी है। इक्के-दुक्के बादल के टुकड़े आकाश में कभी उड़ते और फिर तिरोहित हो जाते। आकाश की ओर टकटकी लगाए मेघा को इंद्रदेव को मनाते तार-तार बदहाल किसानों की आंखें पथरा गई हैं। पीएल 480 की अपमानजनक शर्तो पर आयातित सड़े गेंहू से किसी तरह देश का पेट भरने का निष्फल प्रयत्न चल रहा है। ऐसे में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी बाबू जगजीवन राम को कृषि और खाद्य मंत्रालय का चुनौती भरा दायित्व सौंपती हैं। और कोई नेता इस दायित्व को लेने को तैयार ही नहीं था। कौन लेगा, किसे मरना है? डॉ. लोहिया कहते हैं कि ऐसी स्थिति में तो यह दायित्व खुद प्रधानमंत्री या उपप्रधानमंत्री को वहन करना चाहिए। पर मेरा अटूट विश्वास है कि मेरा दोस्त इस कठिन परीक्षा में भी तप कर सफल निकलेगा। यही हुआ भी। बाबूजी ने जिस दिन कार्यभार ग्रहण के लिए कृषि भवन में पदार्पण किया, प्रकृति का विचित्र करिश्मा हुआ।


निरभ्र आकाश में अचानक बादल के छोटे-छोटे टुकड़े उमड़े, तिरने लगे और फिर आकाश में कड़कती बिजली की चौंधियाती चमक के साथ बादलों का जमघट लग गया। गहरा घटाटोप अंधेरा छा गया। लगा जैसे दिन-दहाड़े शाम घिर आई। फिर बूंदाबूंदी शुरू हुई और उस दिन जमकर बरसे बादल। प्रकृति हरिया गई। सबके तन-मन हरिया गए। किसानों की सूखी वीरान आंखों में जैसे चमक आ गई। अगले दिन अखबारों की बैनर लाइन थी-सौभाग्यशाली कृषिमंत्री। पर बाबूजी ने कहा-ईश्वर की कृपा है। स्थिति अत्यंत गंभीर है। कठिन परिश्रम करना होगा, हमें भी, किसानों को भी। कृषि वैज्ञानिकों, सिंचाई इंजीनियरों और खेतिहर किसानों को एकजुट होकर समन्वित परिश्रम करना होगा। बाबू जगजीवन राम ने भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के महानिदेशक डॉ. स्वामिनाथन सहित चुनींदा कृषि वैज्ञानिकों, वरिष्ठ सिंचाई इंजीनियर वाईके मूर्ति के साथ प्रमुख सिंचाई इंजीनियरों और संबंधित विशेषज्ञों की आपात बैठक बुलाई और कहा कि राष्ट्रीय संकट की घड़ी है।


युद्धस्तर पर काम करना होगा। आप कमर कस लें। राष्ट्र को इस आपदा से यथाशीघ्र उबारना है। यह हमारी-आपकी कठिन परीक्षा है। कम से कम समय में कम लागत के और शीघ्र फल देने वाली प्रजातियां विकसित करनी होंगी। सबसे बड़ी चुनौती उपज बढ़ाने की है। इसके लिए नई कृषि प्रौद्योगिकी, कम लागत के उपयुक्त कृषि उपकरणों, खाद, बीज तथा लघु सिंचाई योजनाओं की सहायता से त्वरित गति से कृषि उपज बढ़ानी होगी। ऐसे में डॉ. बोरलॉग आते हैं, उन्नत किस्म के गेंहू के अधिक उपज देने वाले बीज की किस्में आती हैं। उनके संकरण से सोनालिका आदि बीजों का संव‌र्द्धन और खेती के लिए उनका व्यापक प्रसार होता है। फलत: आधुनिक कृषि प्रौद्योगिकी, छोटे हल और हल्के ट्रैक्टर तथा अन्य नवविकसित सस्ते कृषि यंत्रों एवं बोरिंग, नलकूपों, रेहट आदि लघु सिंचाई उपकरणों तथा उन्नत बीजों की सहायता से कृषि उत्पादन में अभूतपूर्व वृद्धि होती है। जिसे हरित क्रांति के नाम से अभिहित किया जाता है। देश अनाजों के भंडार से भर जाता है। आत्मनिर्भर ही नहीं होता, उसका बफर स्टाक बनाया जाता है। भुखमरी से संत्रस्त देश आयातक से निर्यातक बनता है। ऐसा था बाबू जगजीवन राम का जीवट। एक बार जो ठान लें, पूरा करके ही मानें। उनमें संघर्ष का जबरदस्त माद्दा था। चुनौतियों का सामना करना उन्हें भाता था।


लेखक राजेंद्र कृष्ण स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं



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