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शिक्षा को कार्टून न बनाएं

जागरण मेहमान कोना
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विचारधारा-ग्रस्त लोगों को औपचारिक शिक्षण की पुस्तकें तैयार करने से क्यों दूर रखना चाहिए, इस पर विस्तार से विचार करना आवश्यक है। उदाहरण के लिए, ऐसे लोग जो देशभक्ति की शिक्षा को सत्ता का जबरिया दबाव कहते हों, जो कश्मीर में भारतीय सेना को विदेशी अतिक्रमणकारी सेना मानते हों, जो सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को मूर्ख, चापलूस बताते हों, जो 18 वर्ष से कम आयु के बच्चों को सेक्स संबंध बनाने से वर्जित करना माता-पिता की तानाशाही मानसिकता समझते हों, ऐसे विचार रखने वाले लोग बच्चों को जो शिक्षा देंगे, उसकी जरा कल्पना तो करिए! मगर ऐसे बिंदुओं को राजनीतिक शिक्षा की बहस में स्थान नहीं मिला। जबकि ये विचार उन प्रमुख अभियुक्तों के हैं जो कार्टून-विवाद पर उलटे राजनेताओं की वैचारिक पिटाई कर रहे हैं। राजनीतिक विचारधारा-ग्रस्त लोगों की दृष्टि संकीर्ण होती है। जो कश्मीर में भारतीय सेना को विदेशी अतिक्रमणकारी मानते हैं, वे इतना भी नहीं सोच सकते कि उस तर्क से हैदराबाद, पटियाला, जूनागढ़, त्रावणकोर, भोपाल, ग्वालियर आदि अनेक जगहों पर भारतीय सेना विदेशी कहलाएगी, क्योंकि जिस पद्धति से जम्मू-कश्मीर भारतीय संघ में सम्मिलित हुआ, उसी से सभी भारतीय राज्य-रजवाड़े शामिल हुए। वामपंथी राजनीति स्वभाव से ही विखंडनकारी है। हर तरह के वर्ग भेद फैलाना, जहां भेद न हो वहां भी उसे गढ़ना, प्रचारित करना उनकी बुनियादी टेक है। जबकि शिक्षा रचनात्मक कार्य है। इसलिए, यदि शिक्षा को कार्टून में बदलने से रोकना हो, तो विचारधारा-ग्रस्त लोगों के हाथों में उसकी जिम्मेदारी नहीं देनी चाहिए। हमारे अभियुक्तों को ही लें। वे बच्चों को राष्ट्रपति चुनाव का तरीका बताना बेतुकी चीज समझते हैं। इसके बदले पाठ्य-पुस्तक में देश-विदेश की असंख्य अबूझ समस्याओं, संगठनों, नेताओं के बारे में ऐसे ढेरों दुरूह प्रश्न रख देना उन्हें बेतुका नहीं लगता जो किसी विषय का बुनियादी ज्ञान देने की दृष्टि से अनावश्यक और अनर्गल हैं। वे संजीदा तथ्यों के बदले सैकड़ों कार्टून देना अपनी उपलब्धि मानते हैं।


संयोगवश उन्होंने विवाद होने से बहुत पहले ही एक लेख में लिख दिया था कि कार्टूनों को बच्चों की पाठ्य-पुस्तक में देने का क्या अर्थ था। उनके अपने ही शब्दों में, कार्टून का एक फायदा यह है कि इसे देखकर हंसी आती है। कक्षा में हंस लेना एक राजनीतिक कदम है क्योंकि आप हंसेंगे तो इसका मतलब है कि आप डरे हुए नहीं हैं, क्योंकि हंसी सत्ता के स्थापित संतुलन को हिलाती है। इन पंक्तियों से स्वत: स्पष्ट है कि बच्चों को राजनीति शास्त्र पढ़ाना नहीं, बल्कि राजनीतिक एक्टिविस्ट बनाना ही उद्देश्य था। वस्तुत: शिक्षा के बदले एक्टिविज्म पुरानी कम्युनिस्ट बीमारी है। मुहावरेदार भाषण, बड़े-बड़े प्रश्न उठाना, हर जगह उत्पीडि़तों, वंचितों की खोज करके या गढ़ के उन पर रोष भरे प्रवचन झाड़ना, समस्याएं गिनाना इसे ही वे शिक्षा, शोध और अकादमिक लेखन मानते हैं। हकीकत यह है कि लफ्फाजी और तथ्यपरक जानकारी में भारी अंतर है। उन्हें शिकायत थी कि अब तक राजनीति शास्त्र की स्कूली पुस्तकें राजनीति नहीं पढ़ाती थीं। केवल राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री आदि के कार्य-अधिकार, चुनाव के तरीके आदि बेतुकी चीजें पढ़ाती थीं। अब स्पष्ट हो रहा है कि राजनीति पढ़ाने से उनका मतलब एक्टिविज्म सिखाना ही था, मगर यह होता है शिक्षा की कीमत पर। इससे शिक्षा विकृत होकर मतवादी प्रचार में बदल जाती है। स्वभावत: यह कुछ लोगों को खुश और कुछ लोगों को नाखुश करती है।


मगर प्रचारक इससे यह सीख नहीं लेते कि उन्होंने शिक्षा के नाम पर मतवादी बातें लिख मारी हैं। उन्हें निष्पक्ष मानदंड की फिक्र नहीं। वे गुटीय मानदंड मानते हैं, विचारधारा को तथ्य से अधिक महत्वपूर्ण समझते हैं। इसीलिए देश की किसी राजकीय संस्था के बारे में प्राथमिक जानकारी देना उन्हें बेतुका, बोरिंग लगता है। इसके बदले कार्टून, पोस्टर, नारेबाजी को वे शिक्षा मानते हैं। इन्हीं को राजनीति पढ़ाना समझते हैं। विचारधारा-ग्रस्त लोगों की यही प्रकृति होती है कि वे अपने अनुमान, घोषणा, भावना आदि को निरंतर दोहराते हुए अपने अंधविश्वास को सच मानने लगते हैं। किसी भी निष्कर्ष का आधार पूछते ही उनके माथे पर बल पड़ जाते हैं कि ऐसा पूछने वाला जरूर किसी विरोधी पार्टी का एजेंट है! इसीलिए बच्चों की पाठ्य-पुस्तक में नेताओं, न्यायाधीशों आदि का मजाक उड़ाने वाले सैकड़ों कार्टून देने की कैफियत पूछना उन्हें हैरत में डाल देता है। उन्हें सोचने की कोई जरूरत नहीं कि दुनिया के किसी कोने में पाठ्य-पुस्तकें संजीदा, मानक, संदर्भ-ग्रंथ जैसी चीज होती हैं। प्रतिष्ठित शब्दकोष जैसी, जिसे कोई भी किसी बात को प्रामाणिक रूप से जानने के लिए ही खोलता है। किसी की राय पढ़ने के लिए अखबार के पन्ने होते हैं।


कार्टून भी शत-प्रतिशत ओपीनियन होते हैं। हमारे अभियुक्तों ने भी अपने मतवाद को पुष्ट करने वाले ही कार्टून चुने हैं। मतवादीकरण को शिक्षा का जामा पहनाने में उन्होंने विशेष प्रकार के कार्टूनों का उपयोग किया। जब विवाद हुआ तो कह रहे हैं कि वे तो बड़े सम्मानित कार्टूनिस्ट हैं। जबकि मामला यह नहीं कि कार्टूनिस्ट किस स्तर के हैं, बल्कि उन कार्टूनों से बच्चों को भ्रमित किया गया या नहीं? निस्संदेह, कार्टूनिस्टों ने उन्हें बच्चों की पुस्तक के लिए नहीं बनाया था। वे कार्टून उन वयस्क, जानकार नागरिकों के लिए बनाए गए थे जो अखबार के पाठक थे और तात्कालिक प्रसंग व उसकी तफसीलों से परिचित थे। फिर अखबार को कोई बदल दे सकता है। क्या कोई बच्चा अपनी पाठ्य-पुस्तक खारिज कर सकता है? यानी उस पर वह कार्टून और उसका राजनीतिक मताग्रही संदेश थोपा गया है।


एस शंकर वरिष्ठ स्तंभकार हैं.


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