Menu
blogid : 5736 postid : 6008

ई-बुक्स के बाजार में पिछड़ते हिंदी लेखक

जागरण मेहमान कोना
जागरण मेहमान कोना
  • 1877 Posts
  • 341 Comments

पिछले करीब तीन महीनों से ईएल जेम्स की फिफ्टी शेड्स ट्रायोलॉजी यानी तीन किताबें- फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे, फिफ्टी शेड्स डार्कर, फिफ्टी शेड्स फ्रीड अमेरिका में प्रिंट और ई एडीशन दोनों श्रेणी में बेस्ट सेलर बनी हुई हैं। जेम्स की इन किताबों ने अमेरिका और यूरोप में इतनी धूम मचा दी है कि कोई इस पर फिल्म बना रहा है तो कोई उसके टेलीविजन अधिकार खरीद रहा है । फिफ्टी शेड्स ट्रायोलॉजी लिखे जाने की कहानी भी बेहद दिलचस्प है। टीवी की नौकरी छोड़कर पारिवारिक जीवन और बच्चों की परवरिश के बीच एरिका ने शौकिया तौर पर फैनफिक्शन नाम के वेबसाइट पर मास्टर ऑफ यूनिवर्स के नाम से एक सिरीज लिखना शुरू किया। एरिका ने पहले तो स्टीफन मेयर की कहानियों की तर्ज पर प्रेम कहानियां लिखना शुरू किया जो काफी लोकप्रिय हुआ। लोकप्रियता के दबाव और ई-रीडर्स की मांग पर उसे बार-बार लिखने को मजबूर होना पड़ा। इस तरह शौकिया लेखन पेशेवर लेखन में तब्दील हो गया। पाठकों के दबाव में एरिका ने अपनी कहानियों का पुनर्लेखन किया और उसे फिर से ई-रीडर्स के लिए पेश कर दिया। पात्रों के नाम और कहानी के प्लॉट में बदलाव करके उसकी पहली किश्त वेबसाइट पर प्रकाशित हुई तो वह पूरे अमेरिका में वायरल बुखार की तरह फैल गई। चंद हफ्तों में एरिका लियोनॉर्ड का भी नाम बदल गया और वह बन गई ईएल जेम्स। उसकी इस लोकप्रियता को भुनाते हुए उसने ये ट्रायोलॉजी प्रकाशित करवा ली। इसके प्रकाशन के पहले ही प्री लांच बुकिंग से प्रकाशकों ने लाखों डॉलर कमाए। यह सब हुआ सिर्फ साल भर के अंदर। इस पूरे प्रसंग को लिखने का उद्देश्य यह बताना था कि ई-बुक्स की बढ़ती लोकप्रियता और उसके फायदों के मद्देनजर यूरोप और अमेरिका में लेखकों ने ज्यादा लिखना शुरू कर दिया है। उनकी पहली कोशिश यह होने लगी है कि वह अधीर ऐसे पाठकों की क्षुधा को शांत करें जो कि अपने प्रिय लेखक की कृतियां एक टच से या एक क्लिक से डाउनलोड कर पढ़ना चाहता है। ई-रीडिंग और ई-राइटिंग के पहले के दौर में लेखक साल में एक कृति की रचना कर लेते थे तो उसे बेहद सक्रिय लेखक माना जाता था। जॉन ग्रीशम जैसा लोकप्रिय लेखक भी साल में एक ही किताब लिखता था।


पाठकों को भी साल भर अपने प्रिय लेखकों की कृति का इंतजार रहता था। पुस्तक छपने की प्रक्रिया में भी वक्त लगता था। पहले लेखकों के लिखे को टाइप किया जाता फिर उसकी दो-तीन बार प्रूफरीडिंग होती थी। कवर डिजायन होता था। कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि लेखन से लेकर पाठकों तक पहुंचने की प्रक्रिया में काफी वक्त लग जाता था। यह वह दौर था जब पाठकों और किताबों के बीच एक भावनात्मक रिश्ता होता था। पाठक जब एकांत में हाथ में लेकर किताब पढ़ता था तो किताब के स्पर्श से वह उस किताब के लेखक और उसके पात्रों से एक तादात्म्य बना लेता था। कई बार तो लेखक और पाठक के बीच का भावनात्मक रिश्ता इतना मजबूत होता था कि पाठक वर्षो तक अपने प्रिय लेखक की कृति के इंतजार में बैठा रहता था और जब उसकी कोई किताब बाजार में आती थी तो उसे वह हाथों हाथ खरीद लेता था, लेकिन वक्त बदला, स्टाइल बदला, लेखन और प्रकाशन की प्रक्रिया बदली। अब तो ई-लेखन का दौर आ गया है। ई-लेखन और ई-पाठक के इस दौर में पाठकों की रुचि में आधारभूत बदलाव देखने को मिल रहा है। पश्चिम के देशों में पाठकों की रुचि में इस बदलाव को रेखांकित किया जा सकता है। अब तो इंटरनेट के दौर में पाठकों का लेखकों से भावनात्मक संबंध की बजाय सीधा संवाद संभव हो गया है। लेखक ऑनलाइन रहते हैं तो पाठकों के साथ बातें भी करते हैं। ट्विटर पर सवालों के जवाब देते हैं। फेसबुक पर अपना स्टेटस अपडेट करते हैं।


ईएल जेम्स की सुपरहिट ट्रायोलॉजी तो पाठकों के संवाद और सलाह का ही नतीजा है। दरअसल हमारे या विश्व के अन्य देशों के समाज में जो इंटरनेट पीढ़ी सामने आ रही है उनके पास धैर्य की कमी है। कह सकते हैं कि वह सब कुछ इंस्टैंट चाहते हैं। उनको लगता है कि इंतजार का विकल्प समय की बर्बादी है। अमेजोन या किंडल पर किताबें पढ़ने वाला यह पाठक समुदाय बस एक क्लिक या एक टच पर अपने पसंदीदा लेखक की नई कृति चाहता है। इससे लेखकों पर जो दबाव बना है उसका नतीजा यह है कि बड़े से बड़ा लेखक अब साल में कई कृतियों की रचना करने लगा है। कई बड़े लेखक तो साल में दर्जनभर से ज्यादा किताबें लिखने लगे है, जो कि ई-रीडिंग और ई-राइटिंग के दौर के पहले असंभव हुआ करता था। जेम्स पैटरसन जैसे बड़े लेखकों की रचनाओं में बढ़ोतरी साफ देखी की जा सकती है। पिछले साल पैटरसन ने बारह किताबें लिखी और एक सहलेखक के साथ यानी कुल तेरह किताबें। एक अनुमान के मुताबिक अगर पैटरसन के लेखन की रफ्तार कायम रही तो इस साल वह तेरह किताबें अकेले लिख ले जाएंगें। पैटरसन की साल भर में इतनी किताबें बाजार में आने के बावजूद ई-पाठकों और सामान्य पाठकों के बीच उनका आकर्षण कम नहीं हुआ है, बल्कि उनकी लोकप्रियता में और इजाफा ही हुआ है, लेकिन जेम्स पैटरसन की इस रफ्तार से कई साथी लेखक सदमे में हैं।


ई-रीडर्स की बढ़ती तादाद का फायदा प्रकाशक भी उठाना चाहते हैं, लिहाजा वह भी लेखकों पर ज्यादा से ज्यादा लिखने का दबाव बनाते हैं। प्रकाशकों को लगता है कि जो भी लेखक इंटरनेट की दुनिया में जितना ज्यादा चर्चित होगा वह उतना ही बड़ा स्टार होगा। जिसके नाम को किताबों की दुनिया में भुनाकर ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाया जा सकता है। इसके मद्देनजर प्रकाशकों ने अपनी तरह एक अलग ही रणनीति भी बनाई हुई है। अगर किसी बड़े लेखक की कोई अहम कृति प्रकाशित होने वाली होती है तो प्रकाशक लेखकों से आग्रह कर पुस्तक प्रकाशन के पहले ई-रीडर्स के लिए छोटी छोटी कहानियां लिखवाते हैं। जो कि सिर्फ डिजिटल फॉर्मेट में ही उपलब्ध होता है। इसका फायदा यह होता है कि छोटी कहानियों की लोकप्रियता से लेखक के पक्ष में एक माहौल बनता है और उसकी आगामी कृति के लिए पाठकवर्ग में एक उत्सुकता पैदा होती है। जब वह उत्सुकता अपने चरम पर होती है तो प्रकाशक बाजार में उक्त लेखक की किताब पेश कर देता है। उत्सुकता के उस माहौल का फायदा परोक्ष रूप से प्रकाशकों को होता है और वह मालामाल हो जाता है। इसमें कुछ गलत भी नहीं है, क्योंकि कारोबार करने वाले अपने फायदे की रणनीति बनाते ही रहते हैं। मशहूर और बेहद लोकप्रिय ब्रिटिश थ्रिलर लेखक ली चाइल्ड ने भी अपने उपन्यास के पहले कई छोटी-छोटी कहानियां सिर्फ डिजिटल फॉर्मेट में लिखी। उन्होंने साफ तौर पर माना कि ये कहानियां वह अपने आगामी उपन्यास के लिए पाठकों के बीच एक उत्सुकता का माहौल बनाने के लिए लिख रहे हैं। इससे साफ पता चलता है कि प्रकाशक के साथ-साथ अब लेखक भी ज्यादा से ज्यादा लिखकर खुद को कारोबारी रणनीति का हिस्सा बना रहे हैं। चाइल्ड ने माना है कि पश्चिम की दुनिया में सभी लेखक कमोबेश ऐसा ही कर रहे हैं और उनके मुताबिक दौड़ में बने रहने के लिए ऐसा करना बेहद जरूरी भी है। इन स्थितियों की तुलना में अगर हम हिंदी लेखकों की बात करें तो उनमें से कई वरिष्ठ लेखकों को अब भी सोशल नेटवर्किग साइट्स से परहेज है। उनकी अपनी कोई वेबसाइट नहीं है। दो-चार प्रकाशकों को छोड़ दें तो हिंदी के प्रकाशकों की भी कोई वेबसाइट अभी तक नहीं है। हिंदी के वरिष्ठ लेखक अब भी फेसबुक और ट्विटर से परहेज करते नजर आते हैं। नतीजा यह कि हिंदी में लेखकों पर अब भी पाठकों का कोई दबाव नहीं और वह अपनी धीमी रफ्तार से लेखन करते आ रहे हैं। हालांकि वह रोना यही रोते हैं कि पाठक नहीं हैं। वक्त के साथ अगर नहीं चलेंगे तो वक्त भी आपका इंतजार नहीं करेगा और आगे निकल जाएगा। हिंदी के लेखकों के लिए यह वक्त चेतने का है।


लेखक अनंत विजय वरिष्ठ पत्रकार हैं


Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh