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दिल्ली में मोदी की दावेदारी

जागरण मेहमान कोना
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swapan dasguptaनरेंद्र मोदी का उल्लेख होते ही विवाद खड़े हो जाते हैं। उनके प्रशंसकों की मानें तो आज भारत को नरेंद्र मोदी जैसे नेता की ही जरूरत है। निर्णय लेने की क्षमता, उद्देश्यपरक नेतृत्व, अपने राज्य में बेहद लोकप्रिय और ईमानदार मोदी को गुजरात को विकास के रास्ते पर ले जाने का श्रेय जाता है। उनके विरोधियों के लिए मोदी अधिसत्तात्मक प्रवृत्ति वाले और विभाजनकारी हैं तथा भारत जैसे विविधतापूर्ण देश के लिए सर्वथा अनुपयुक्त हैं। मोदी और उनके नेतृत्व के तौर-तरीकों पर बहस गुजरात के संदर्भ में उठती है। हालांकि अब जब भारतीय जनता पार्टी उन्हें 2014 के चुनाव में प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में उतारने पर गंभीरता से विचार कर रही है, मोदी की क्षमता पर विवाद राष्ट्रीय स्तर पर ध्यान खींच रहा है। दिल्ली की गद्दी के लिए राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्यता हासिल करने के लिए मोदी को पहले तो अपने गृह राज्य में मजबूती दिखानी होगी। गुजरात में इस साल के अंत में होने वाले चुनाव का महत्व इस बात से पता चलता है कि इस पर भारत ही नहीं, पूरे विश्व की निगाहें लगी हैं। अगर मोदी तीसरी बार गुजरात का चुनाव जीत ले जाते हैं तो देश के शीर्ष पद के लिए दावेदारी में भाजपा नेतृत्व के लिए उनकी अनदेखी करना असंभव हो जाएगी। अगर वह हार जाते हैं तो भारत के प्रमुख विपक्षी दल में नेतृत्व का सवाल नए सिरे से खड़ा हो जाएगा। 2002 और 2007 में गुजरात विधानसभा चुनाव में दो बिंदुओं पर मोदी का विरोध हुआ था-2002 के दंगों से निपटने में उनकी भूमिका और शक्तिशाली पटेल समुदाय से तथाकथित मनमुटाव।


संकीर्ण दुनिया में कैद भाजपा


मोदी ने क्षेत्रीय गौरव के मुद्दे पर अपने विरोधियों को किनारे कर दिया और 2007 में अपनी उपलब्धियों के नाम पर जीत हासिल की। आगामी चुनाव के लिए उनके विरोधियों ने पैंतरा बदल लिया है। पटेल समुदाय की शिकायतें एक बार फिर सतह पर आ रही हैं। केशुभाई पटेल ने मोदी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है और तीसरे मोर्चे की बात करनी शुरू कर दी है। दूसरी तरफ कांग्रेस भी उन्हें घेरने के नए तरीके खोज रही है। वह विकास के नए मसीहा की मोदी की छवि पर चोट कर रही है। लगता है कि इस बार के चुनाव में 2002 के दंगे और सांप्रदायिकता का मुद्दा खड़ा नहीं होगा। कांग्रेस गुजरात के दंगों के घाव कुरेदना नहीं चाहती। इससे मोदी को घाटा होने के बजाय फायदा होता है। लगता है कि गुजरात दो कारणों से 2002 के दु:स्वप्न को भूलना चाहता है। एक तो यह मुद्दा एक दशक पुराना हो चुका है और दूसरे समृद्धि के कारण गुजरात में स्थिरता और सुशासन की स्थापना हो गई है। मोदी पर दो बिंदुओं पर हमला होने की संभावना है। एक तो यह कहा जा रहा है कि नाजुक मोर्चो पर गुजरात का प्रदर्शन कमजोर रहा है। विकास के नाम पर मोदी हवा ज्यादा बांधते हैं, जबकि जमीनी धरातल पर काम बहुत कम हुआ है। दूसरा हमला अधिक जटिल है और इसके माध्यम से मतदाताओं को आश्वस्त किया जाएगा कि मोदी के हटने के बाद गुजरात में विकास की गति तेज होगी। कहा जा रहा है कि गुजरात में विकास का मोदी से कोई संबंध नहीं है। मुख्यमंत्री तो पहले से ही विकास की राह पर अग्रसर गुजरात की पीठ पर सवार हो गए हैं।


गुजरात की उच्च विकास दर का श्रेय इसकी भौगोलिक स्थिति और गुजरातियों की उद्यमिता को जाता है। मोदी सत्ता में हों या नहीं हों, गुजरात विकास के पथ पर आगे बढ़ता रहेगा। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने हाल ही में कहा था कि पहले से विकसित राज्य के विकास में कोई बड़ी बात नहीं है। गुजरात में विकास की गति को आंकड़ों में नापा जा सकता है। योजना आयोग के आंकड़ों के आधार पर 1990 के बाद से गुजरात की औसत विकास दर में बढ़ोतरी हुई है, किंतु समान रूप से नहीं। 1985-90 के बीच गुजरात की विकास दर 6.1 फीसदी, 1992-97 के बीच 12.9 फीसदी, 1997-02 के बीच 2.8 फीसदी, 2002-07 के बीच 10.9 प्रतिशत तथा 2007-12 के बीच अनुमानित 11.2 फीसदी है। यद्यपि इससे राजनीतिक निष्कर्षो पर पहुंचना गलत होगा, फिर भी इसमें कोई संदेह नहीं कि मोदी के कार्यकाल में गुजरात की विकास दर दोहरे अंकों में बनी हुई है। कर्नाटक को छोड़कर, जिसकी 11वीं पंचवर्षीय योजना में विकास दर गुजरात के बराबर रही, भारत के बड़े राज्यों में से किसी ने भी पिछले दशक में गुजरात जितना विकास नहीं किया है। मोदी के आलोचक कहते हैं कि विकास दर के मुद्दे पर बिहार, दिल्ली और पांडिचेरी ने गुजरात को पछाड़ दिया है, किंतु यह तो ऐसा ही हुआ कि कोई यह कहे कि भारत की छह फीसदी की लड़खड़ाती विकास दर अमेरिका के दो फीसदी विकास से बेहतर है। सवाल उठता है कि पिछले एक दशक में गुजरात में हुए विकास का क्या राजनीति और सुशासन से कोई लेना-देना नहीं है? अगर यह सही है तो इससे प्रतीत होगा कि मोदी राजनीतिक अर्थव्यवस्था को नई दिशा में ले गए हैं और अर्थव्यवस्था को राजनीति के कलुषित प्रभाव से बचाने में भी सफल रहे हैं। यह स्वायत्तता तो भारतीय उद्योग जगत का पुराना सपना रही है। सार्वजनिक जीवन का यह नियम है कि किसी राज्य के जैसे लोग होंगे वैसा ही वह प्रदर्शन करेगा।


मोदी ने छोटे-छोटे लक्ष्य निर्धारित किए और उनके सफल क्रियान्वयन पर पूरा जोर लगा दिया। यह गुजरातियों की उद्यमिता के अनुरूप है। हालांकि यह सवाल अब भी अनुत्तरित है कि क्या केवल उद्यमिता के बल पर तीव्र विकास हो सकता है या फिर आर्थिक संवृद्धि में राज्य उत्प्रेरक की भूमिका निभाते हैं? पिछले दशक में गुजरात ने ढांचागत सुविधाओं के विकास पर ध्यान केंद्रित किया, खासतौर पर सड़कों और बंदरगाहों के निर्माण पर। साथ ही सरकार ने बेहतर सुविधाओं और शर्तो के बल पर उद्योगपतियों को राज्य में निवेश करने के लिए आकर्षित किया है। यह टाटा मोटर्स के पश्चिम बंगाल के सिंगुर से हटकर गुजरात में कारखाना लगाने के प्रसंग से स्पष्ट हो जाता है, किंतु यह संभव नहीं था अगर राज्य में भ्रष्टाचार का स्तर कम नहीं होता, त्वरित निर्णय नहीं लिए जाते और ढांचागत सुविधाएं न होतीं। यह सही है कि मोदी को पहले से ही मजबूत गुजरात का लाभ मिला, किंतु अगर मुख्यमंत्री गैरजिम्मेदार, लापरवाह और नासमझ होता तो क्या आज भारत गुजरात के चमत्कार की बात कर रहा होता? भारत में बहुत से लोगों की मोदी को लेकर जायज आपत्ति है। उनका मानना है कि भावी प्रधानमंत्री को समग्र भारत की भावनाओं के प्रति समान रूप से संवेदनशील होना चाहिए। कुछ लोगों का कहना है कि प्रधानमंत्री को अधिक सहमतिजन्य होना चाहिए, किंतु इन आपत्तियों के आधार पर यह दावा नहीं किया जा सकता है कि नरेंद्र मोदी की सफलता फर्जी है।


लेखक स्वप्न दासगुप्ता वरिष्ठ स्तंभकार हैं

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