Menu
blogid : 5736 postid : 6001

समानता का अधूरा सपना

जागरण मेहमान कोना
जागरण मेहमान कोना
  • 1877 Posts
  • 341 Comments

Amir khanअनेक ऐसी बातें हैं जो महात्मा गांधी को उनके समकालीन स्वतंत्रता सेनानियों तथा नेताओं से अलग करती हैं। इनमें से एक बात यह है कि उन्होंने आजादी के संघर्ष के साथ-साथ एक अन्य चीज को बराबर का महत्व दिया और यह थी समाज में नीचे के स्तर पर समझी जाने वाली जातियों के लोगों को बराबरी पर लाने का प्रयास। अस्पृश्यता के खिलाफ गांधीजी का कार्य हमारी आजादी के पांच दशक पहले दक्षिण अफ्रीका से ही आरंभ हो गया था। जब वह भारत लौटे तो उनसे जुड़ी एक घटना ही यह बताने के लिए काफी है कि उन्होंने समानता के विचार को कितना महत्व दिया। यह वर्ष 1915 की बात है। गांधीजी के एक निकट सहयोगी ठक्कर बप्पा ने एक दलित दुधा भाई को आश्रम में रहने के लिए भेजा। कस्तूरबा समेत हर कोई उन्हें आश्रम में रखने के खिलाफ था। गांधीजी ने यह साफ कर दिया कि दुधा भाई आश्रम नहीं छोड़ेंगे और जो लोग इससे सहमत नहीं हैं वे खुद आश्रम छोड़कर जाने के लिए स्वतंत्र हैं। उन्हें यह भी बताया गया कि कोई भी उनकी बात से सहमत नहीं होगा और यहां तक कि आश्रम को मिलने वाली आर्थिक सहायता भी बंद हो सकती है। इसका भी गांधीजी पर कोई असर नहीं पड़ा। गांधीजी ने कहा कि वह अपने आश्रम को किसी दलित बस्ती में ले जाने के लिए तैयार हैं-भले ही इसका यह अर्थ हो कि आश्रम में केवल दो लोग-गांधीजी और दुधा भाई ही बचें। अंतत: गांधीजी की बहन गोकीबेन को छोड़कर सभी लोग राजी हो गए। गोकीबेन आश्रम छोड़कर चली गईं और फिर कभी नहीं लौटीं। क्यों गांधीजी ने अस्पृश्यता अथवा जातिगत आधार पर होने वाले भेदभाव को मिटाने के काम को इतना अधिक महत्व दिया? मुझे लगता है कि वह जिस आजादी के लिए लड़ रहे थे उसका अर्थ केवल राजनीतिक आजादी नहीं था। वह केवल यह नहीं चाहते थे कि अंग्रेज भारत छोड़कर चले जाएं और दूसरी तरह के लोग सत्ता के गलियारों में आकर जम जाएं। उनके लिए आजादी का अर्थ था-देश के प्रत्येक नागरिक की वास्तविक आजादी। एक ऐसी आजादी जो केवल मौलिक समानता और प्रत्येक नागरिक की गरिमा की रक्षा के जरिये आ सकती है।


अस्पृश्यता निश्चित ही उनके इस महान उद्देश्य में बाधक थी। आज हममें से अनेक लोगों के पास यह दृष्टि है कि हमारा देश किस तरह का होना चाहिए, यह क्या हो सकता है और विश्व में इसका सही स्थान क्या है? हममें से अनेक लोग यह सपना देखते हैं कि भारत विश्व की महाशक्ति बनेगा, लेकिन क्या एक ऐसा देश यह स्थान पा सकता है जहां समाज विभाजित हो, दीवारें हमें अपने ही लोगों से अलग करती हों? अगर हम एक साझी सामाजिक संपत्ति पर विश्वास नहीं करते हैं तो क्या हम अपने उद्देश्य को हासिल कर सकते हैं? साझी सामाजिक संपत्ति से मेरा आशय सार्वजनिक संपत्ति से है। एक गली या सड़क साझी सामाजिक संपत्ति है। हमारा सरकारी स्वास्थ्य ढांचा साझी सामाजिक संपत्ति है। दुर्भाग्य से हम इतने विभाजित हैं कि इस सबको हम अपनी संपत्ति नहीं मानते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि हम अपनी सड़कों पर कूड़ा-करकट फेंक देते हैं, क्योंकि इन्हें हम अपनी संपत्ति नहीं मानते हैं। हम अपने सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचे के प्रति इसलिए इच्छुक नहीं, क्योंकि उसे हम अपनी संपत्ति के रूप में नहीं देखते। हम तभी एक साझा लक्ष्य तय कर सकते हैं या साझा दृष्टिकोण उत्पन्न कर सकते हैं जब हम सभी खुद को एक मानते हों। डॉ. अंबेडकर के नेतृत्व में संविधान की रचना करने वाले हमारे राष्ट्र निर्माताओं ने हमारे लिए अपना दृष्टिकोण एकदम स्पष्ट कर दिया था। वह दृष्टिकोण था सभी को बराबरी के साथ देखने का और बराबरी वाला व्यवहार करने का। हमारे नेताओं ने हमें राह दिखा दी है और उस पर चलना अब हमारी जिम्मेदारी है। उन्होंने ऐसे कानूनों की रचना की है जो हमें निर्देश देते हैं कि जातिगत और मजहबी आधार पर भेदभाव करना अपराध है। हमें यह भी समझना होगा कि लोगों के बीच भेदभाव करना मानवता के मूल विचार के खिलाफ है।


साझा दृष्टिकोण रखने, सभी को एक रूप में देखने का अपना मकसद पूरा करने के लिए हमें सबसे पहले यह स्वीकार करना होगा कि हमारे बीच मतभेद हैं, दीवारें हैं। फिर इसके बाद हमें इन मतभेदों और दीवारों को मिटाने की दिशा में काम करना होगा। उदाहरण के लिए पूरे देश में ऐसी अनगिनत हाउसिंग सोसाइटी हैं जो दलितों अथवा मुस्लिमों या हिंदुओं या इसाइयों अथवा सिखों को घर नहीं बेचती हैं। इस प्रकार की संकीर्ण सोच को पूरी तरह समाप्त करना होगा। शायद सुधार का सबसे अच्छा तरीका होगा इस संदर्भ में अपने बच्चों को शिक्षित करना। आइए हम अपने बच्चों में विभाजन के बीज न बोएं। हम उन्हें भेदभाव के वे पाठ न पढ़ाएं जो हमें पढ़ाए गए हैं। हम अपने सामान्य जीवन में कई तरह से भेदभाव की इस प्रवृत्ति को समाप्त कर सकते हैं और इसका हमारे बच्चों पर बहुत सही असर होगा। मुझे भेदभाव के मामले में अपनी कमजोरियों की भी याद आ रही है। अपने शो में मैं बेजवादा विल्सन की बातों को सुनकर स्तब्ध रह गया जो बता रहे थे कि किस तरह आज भी लोगों को दूसरों की गंदगी साफ करने के लिए विवश होना पड़ता है। 46 साल की उम्र में आकर मैं यह जान और समझ सका कि अपने देश में इस प्रथा का अस्तित्व है। कितना अमानवीय है यह सब। मैं 46 साल तक यह सब क्यों स्वीकार करता रहा। शायद इसलिए कि अपने आसपास यह सब देखने की आदत हो गई है। मैं खुद को भयभीत और दोषी महसूस कर रहा हूं। अपनी असंवेदनशीलता के लिए मुझे ग्लानि हो रही है। आइए अस्पृश्यता, भेदभाव और अमानवीयता को मिटाने के लिए हम सब संकल्प लें। जय हिंद, सत्यमेव जयते।


इस आलेख के लेखक आमिर खान हैं


Best India Blogs, Best Blog in Hindi, Hindi Blogs, Top Blogs, Top Hindi Blogs, Indian Blogs in Hindi, Hindi Blogs, Blogs in Hindi, Hindi Articles for Social Issues,  Hindi Articles for Political Issues, Hindi Article in various Issues, Lifestyle in Hindi, Editorial Blogs in Hindi, Entertainment in Hindi, English-Hindi Bilingual Articles


Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh