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राजनीति का नाजुक दौर

जागरण मेहमान कोना
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Rajnaatn suryaभारतीय राजनीति और अर्थव्यवस्था नाजुक दौर से गुजर रही हैं। एक ओर महंगाई बढ़ती जा रही है वहीं दूसरी ओर रुपये का अवमूल्यन रुक नहीं पा रहा है। आर्थिक संकट से निपटने के लिए राजनीतिक एकजुटता जरूरी है, लेकिन ऐसा करने की बजाय राजनीतिक तिकड़मों में समय गंवाया जा रहा है। आज यह कहना बहुत मुश्किल है कि कल कौन सा दल किसका समर्थन करेगा। राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी ने स्पष्ट कर दिया है कि राष्ट्रपति पद के दावेदारों में उनका नाम नहीं था। सोनिया गांधी ने ममता बनर्जी से वार्ता के बाद ही उनका नाम आगे बढ़ाया था। ऐसा इसलिए, क्योंकि उन्हें अपने किसी अन्य उम्मीदवार के जीतने का भरोसा नहीं था। कह सकते हैं कि सोनिया गांधी ने प्रणब मुखर्जी को मजबूरी में उम्मीदवार बनाया। अब मनमोहन सिंह ने वित्त मंत्रालय का दायित्व संभालने के बाद प्रणब मुखर्जी के निर्णयों की समीक्षा शुरू कर दी है और संकेत हैं कि बहुत से निर्णय पलटे जा सकते हैं। कभी क्षेत्रीय दलों का गठबंधन निर्णायक हुआ करता था, लेकिन वर्तमान में वे अलग-अलग दिशाओं में भटक रहे हैं। अभी से चर्चा शुरू हो गई है कि 2014 में अगला प्रधानमंत्री कौन बनेगा? कांग्रेसी खेमे में राहुल गांधी की चर्चा है तो भाजपा नरेंद्र मोदी के पक्ष में दिख रही है। यद्यपि भाजपा ने मोदी के नाम की घोषणा खुलकर नहीं की है, लेकिन वह इस पद के लिए जनता की पसंद हैं।


दिल्ली में मोदी की दावेदारी


गुजरात में इस वर्ष के अंत में होने वाले विधानसभा चुनाव परिणाम से मोदी का भविष्य तय होगा। प्रधानमंत्री पद के लिए उत्तर प्रदेश के दो पूर्व मुख्यमंत्रियों मुलायम सिंह यादव और मायावती का नाम भी शामिल है। माना जा रहा है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार नरेंद्र मोदी के खिलाफ अभियान चलाकर सेक्युलर दलों का समर्थन प्राप्त कर प्रधानमंत्री बन सकते हैं। जिस तरह की राजनीतिक अनिश्चितता है उसमें कोई और नाम भी सामने आ जाए तो आश्चर्य नहीं। कांग्रेस विकल्पहीन है, इसलिए राहुल गांधी का नाम सबसे आगे हैं। भाजपा में सर्वश्रेष्ठ मुख्यमंत्री के रूप में स्थापित होने के कारण नरेंद्र मोदी की दावेदारी बढ़ रही है, लेकिन शेष तीन संभावित दावेदार इस आकलन पर अटके हैं कि 2014 के निर्वाचन में कांग्रेस और भाजपा सौ-डेढ़ सौ सीटों तक सिमट जाए। ऐसे में मुलायम, मायावती और नीतीश तीनों को कांग्रेस से समर्थन की आस है। वे मानकर चल रहे हैं कि कांग्रेस के पास भाजपा को रोकने का एक ही विकल्प रह जाएगा- किसी गैर संप्रग दल के नेता को प्रधानमंत्री बनाना। तीनों इसी रणनीति के मद्देनजर फिलहाल प्रणब मुखर्जी का समर्थन कर रहे हैं। मायावती और मुलायम सिंह तो बिना मांगे 2009 से समर्थन देते आ रहे हैं।


नीतीश कुमार अब मैदान में आए हैं। गैर कांग्रेस और गैर भाजपा दलों की स्थिति चुनाव के बाद ही स्पष्ट होगी, लेकिन कोई भी क्षेत्रीय दल किसी अन्य क्षेत्रीय दल के नेता को प्रधानमंत्री बनाना पसंद नहीं करेगा। राजनीतिक असंतुष्टवाद की प्रतीक बन चुकीं ममता बनर्जी क्या करेंगी इस पर सभी की निगाहें हैं। वह मुलायम सिंह के घात से बहुत आहत हैं और न चाहते हुए भी संप्रग में बनी हुई हैं। संभव है राष्ट्रपति चुनाव में उनकी पार्टी मतदान में भाग ही न लें। जनता कांग्रेस के विकल्प के लिए व्याकुल है। कांग्रेस का अंतर्विरोध मुखरित नहीं है, लेकिन भाजपा में अंतर्विरोध सिर चढ़कर बोल रहा है। मनमोहन सरकार सबसे भ्रष्ट और निकम्मी है यह अब जनता जान चुकी है। प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह कोई भी छाप छोड़ने में असफल रहे हैं। तमाम कांग्रेसियों को संदेह है कि 2014 में उनकी पार्टी की लोकसभा सदस्यों की संख्या तीन अंकों में पहुंच भी सकेगी या नहीं? अन्य आकलन भी कांग्रेस की वापसी की धारणा को धूमिल कर रहे हैं। साथ ही उसे इस बात की भी चिंता है कि विकल्प के रूप में खड़ी भाजपा क्या दो सौ के आसपास सीटें जीत सकेगी? कांग्रेस शासित राज्यों की तुलना में भाजपा की कहीं अधिक राज्यों में सरकार है। उसके अधिकांश मुख्यमंत्री अपनी कार्यक्षमता और बेदाग राजनीतिक जीवन के लिए चर्चित हैं, लेकिन देश की सर्वोपरि सत्ता जिस भावना के कारण प्राप्त हुई थी आज वह शीर्षस्थ लोगों में परस्पर टकराव के कारण नदारद है। अभी चुनाव में दो वर्ष बाकी हैं। यदि कांग्रेस दागियों को दंडित करने और अर्थव्यवस्था सुधारने में सफलता प्राप्त करती है तो उसकी वर्तमान सदस्य संख्या ज्यादा कम नहीं होगी। इसी तरह यदि भाजपा नेता वे चाहे दिल्ली में बैठे हों या राज्यों में, अपने व्यक्तिगत अहंकार और निजी स्वार्थ से ऊपर उठते हैं और एकजुट होकर जनता के सामने आते हैं तो उनके लिए खुद के बल पर सरकार बनाना संभव हो सकता है।


कांग्रेस के लिए फिलहाल वर्तमान दौर से निकल पाना मुश्किल है, लेकिन भाजपा के लिए अहंकार से स्वाभिमान की ओर लौटना संभव है। यदि आचरण में बड़ों के प्रति सम्मान और अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा को दलीय हित में त्यागकर एकरूपता का पुराना विराट स्वरूप दिखे तो ही भाजपा के लिए कोई संभावना बन सकती है। एक बात यह भी कि कांग्रेस अथवा भाजपा को कोई ऐसा नेता आगे करना पड़ेगा, जिसे अन्य दलों का भी समर्थन हासिल हो सके।कांग्रेस के पास ऐसा एक ही व्यक्ति था जिसे उसने राष्ट्रपति भवन की ओर भेज दिया है, लेकिन भाजपा के पास ऐसे कई नेता हैं जिनमें लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी या फिर जसवंत सिंह का नाम लिया जा सकता है।


लेखक राजनाथ सिंह सूर्य पूर्व सांसद हैं


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