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कुछ दिन पहले टमाटर के जीन-नक्शे यानी जीनोम के विस्तृत विश्लेषण में कामयाबी के बाद अब वैज्ञानिकों को केले के जीन नक्शे को पढ़ने में सफलता मिल गई है। यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि है क्योंकि केला न सिर्फ विकासशील देशों की एक महत्वपूर्ण फसल है, बल्कि दुनिया के गरीब इलाकों में यह भोजन का एक महत्वपूर्ण श्चोत भी है। केले के जीनों को सिलसिलेवार करने से दुनिया के इस लोकप्रिय फल में आनुवंशिक सुधार का रास्ता खुल गया है। केले की आनुवंशिक रचना बेहद जटिल है और इसका प्रजनन केला उत्पादकों के लिए बहुत ही चुनौतीपूर्ण कार्य है। पूरी दुनिया में केले की फसल कीटों द्वारा बुरी तरह प्रताडि़त है और तरह-तरह की बीमारियां भी इसे घेरे रहती हैं। एक बार इसके समस्त जीनों का नक्शा सामने होने पर वैज्ञानिक उन जीनों की पहचान कर सकेंगे, जो रोगों का प्रतिरोध करते हैं और उसकी गुणवत्ता बढ़ाते है। केले के जीनोम सिक्वेंस को पूरा किया जाना भारत के लिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि वह विश्व का सबसे बड़ा केला उत्पादक है। केले की अधिकांश खपत देश में हो जाती है। हम बहुत कम केला निर्यात करते हैं।
विश्व में इस फल के व्यापार में भारत का हिस्सा सिर्फ 0.5 प्रतिशत है। यदि भारत मात्रा और गुणवत्ता की दृष्टि से अपनी उत्पादकता बढ़ा ले तो निर्यात में अच्छी खासी वृद्धि की जा सकती है। वैज्ञानिकों की अंतरराष्ट्रीय टीम ने केले की डीएच-पहांग किस्म की जीनोम सिक्वेंसिंग की है। इस किस्म का वानस्पतिक नाम मूसा एकुमिनाटा है। यह किस्म दक्षिण-पूर्वी एशिया में लोकप्रिय है। यह किस्म एशिया में फैल रहे विनाशकारी पनामा फफूंदी रोग का प्रतिरोध करने में सक्षम है। यदि हम इस प्रतिरोध के लिए जिम्मेदार जीनों की पहचान कर लेते हैं तो उन्हें केलों की दूसरी किस्मों में हस्तांतरित किया जा सकता है।
पूरी दुनिया में केले की जड़ों पर कीड़े हमला कर रहे हैं। इसके हरे पत्तों पर हमेशा बैक्टीरिया, वायरस और कीटों की नजर रहती है। इन रोगों का प्रतिरोध करने वाली केले की कुछ किस्में उपलब्ध हैं, लेकिन उनमें वे आमतौर पर वे गुण नहीं पाए जाते, जो लोगों द्वारा पसंद किए जाते हैं। बेल्जियम के कू लियुवेन शहर में केला सुधार प्रयोगशाला के प्रमुख रोनी स्वेनेन 1978 से केले पर अनुसंधान कर रहे हैं। उनका कहना है कि दुनिया के केला-उत्पादक किसानों को केले की सुधरी हुई किस्में उपलब्ध नहीं होने से दिक्कतें आ रही हैं। बेल्जियम की इस प्रयोगशाला में दुनिया भर से एकत्र की गई केले की 1400 किस्में जमा हैं। केला दुनिया में संभवत: 7000 वर्ष से उगाया जा रहा है। मुश्किल है कि हम जो केला खाते हैं, वह अनुर्वर होता है। कोई भी व्यक्ति ऐसा केला नहीं खाना चाहेगा, जो बीजों से भरा हुआ हो। खाने योग्य केले में बीज कभी परिपक्व नहीं होते। हमें उसमे सिर्फ काली बिंदी दिखाई देती है, लेकिन इससे उन वैज्ञानिकों का सिरदर्द बढ़ जाता है, जो केले को और बेहतर बनाना चाहते हैं। केले के बीज खोजने और उन्हें उगने के लिए प्रेरित करने में वैज्ञानिकों को बहुत मेहनत करनी पड़ती है। केले की प्रचलित किस्में परागण, निषेचन और बीज उत्पादन की प्रक्रियाओं से नहीं गुजरती।
पौधे के एक हिस्से को लेकर केले का नया पौधा उगाया जाता है। इस तरह उगने वाला केला आनुवंशिक दृष्टि से अपने मूल पौधे जैसा ही होता है। इस तरह की आनुवंशिक समानता से रोग फैलाने वाले जीवाणुओं और कीटों को फसल को तहस-नहस करने का मौका मिल जाता है। नब्बे के दशक में होंडुरस के रिसर्चरों ने 24 वर्षो के प्रजनन प्रयासों के बाद गोल्डफिंगर नामक केले की एक नई किस्म दुनिया के सम्मुख रखी थी। इसमें कुछ रोगों से लड़ने की क्षमता जरूर थी, लेकिन कम मीठा होने और लंबी जहाज यात्रा न झेल पाने के कारण यह किस्म लोकप्रिय नहीं हो पाई। दुनिया के वैज्ञानिक केले में मनमाफिक गुणों का समावेश करने के लिए कुछ दूसरे उपाय भी कर रहे हैं।
मुकुल व्यास स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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