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राहुल गांधी द्वारा संगठन और सरकार में बड़ी भूमिका निभाने की घोषणा से पूरे देश में बहस छिड़ गई है। क्या होगा इस बड़ी भूमिका का स्वरूप? और क्यों इस समय इसकी घोषणा हुई जब मंत्रिमंडल में नंबर दो समझे जाने वाले प्रणब मुखर्जी राष्ट्रपति के लिए निर्वाचित कर दिए गए और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल के दो वर्ष शेष हैं? कांग्रेस कई वषरें से राहुल को इस अवसर के लिए तैयार कर रही थी। पिछले कुछ वषरें में राहुल ने देश की नब्ज टटोलने तथा यूथ कांग्रेस को संगठनात्मक स्तर पर नए सिरे से खड़ा करने की कोशिश की। कांग्रेस में अन्य कोई ऐसा नेता नहीं जिसे उन जैसा एक्सपोजर मिला हो, जिसकी राष्ट्रीय स्तर पर पहचान हो और जिसकी कांग्रेस में नेतृत्व हेतु स्वीकार्यता हो। पार्टी में उनसे ज्यादा योग्य नेता हैं जरूर पर वे पार्टी को साथ लेकर चलने की क्षमता नहीं रखते। राहुल गांधी नेहरू-वंश की चौथी पीढ़ी से हैं। उनके परदादा जवाहरलाल, दादी इंदिरा गांधी और पिता राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री रह चुके हैं। पर क्या राहुल को इसीलिए कांग्रेस का नेता और संभवत: देश का भावी प्रधानमंत्री होना चाहिए क्योंकि वह नेहरू-वंश के हैं? वंशवाद को लोकतंत्र के विपरीत माना जाता है क्योंकि अधिकतर लोकतंत्रों की स्थापना वंशवाद पर आधारित राजतंत्र के विरुद्ध की गई, लेकिन यदि किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में, लोकतांत्रिक प्रक्रिया से, दल के सदस्यों की भावना के अनुरूप किसी वंश को आगे बढ़ाने से दल में एकजुटता बने तो किसी बेहतर विकल्प के अभाव में, उसे दल की आवश्यकता माना जा सकता है।
कांग्रेस जब-जब टूटने के कगार पर आई तो नेहरू वंश ने उसकी नैय्या पार लगाई। क्यों नेहरू वंश कांग्रेसियों को जोड़ देता है? नेहरू परिवार के आगे कांग्रेसी क्यों नतमस्तक हो जाते हैं? क्या यह कांग्रेस के लोकतांत्रिक स्वरूप पर प्रश्नचिह्न नहीं? कायदे से योग्यता के आधार पर नेता का चयन होना चाहिए, पर उस नेता में सबको एकजुट रखने का माद्दा भी तो होना चाहिए। यदि कांग्रेस को लगता है कि राहुल को आगे करने से पार्टी मजबूत होगी तो उन्हें नेतृत्व देना एक रणनीतिक कदम माना जा सकता है जिसकी परीक्षा जनता की अदालत में होगी। आगामी लोकसभा चुनावों में राहुल को संभवत: भाजपा के अनुभवी नेता नरेंद्र मोदी के खिलाफ कांग्रेस का नेतृत्व करना होगा, लेकिन पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, ओडिशा, तमिलनाडु, उत्तरांचल और बिहार आदि राज्यों में जो राजनीतिक परिदृश्य उभर रहा है उससे 2014 के चुनावों में राजग अच्छा प्रदर्शन कर सकता है। हालांकि नरेंद्र मोदी राजग की समस्या बन सकते हैं। उनका विरोध न केवल राजग के घटक दल, बल्कि स्वयं भाजपाई भी कर सकते हैं। यदि राजग को सरकार बनाने का मौका मिला तो संभवत: राजग का कोई घटक-दल प्रधानमंत्री के लिए अपनी दावेदारी पेश कर दे। कांग्रेस ने इसे अवश्य ताड़ा होगा और इस अवसर का लाभ उठा कर राहुल को एक निर्विवाद नेता के रूप में पेश करने का मन बनाया होगा। राहुल को आगे करना कांग्रेस की मजबूरी भी है। संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनाने का जोखिम कांग्रेस उठा सकती।
2004 का प्रकरण कोई भूला नहीं है। पर सोनिया के प्रधानमंत्री न बनने से भारतीय संसदीय व्यवस्था में एक विसंगति आ गई। प्रधानमंत्री का पद दोयम दर्जे का हो गया और सरकार पर पार्टी अध्यक्ष और संप्रग प्रधान का वर्चस्व स्थापित हो गया। राहुल गांधी कांग्रेस में सोनिया के बाद दूसरे नंबर के प्रभावशाली नेता हैं। यदि वह सरकार में कोई पद संभालते हैं तो मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल में वह परोक्ष रूप से सत्ता के वैकल्पिक केंद्र के रूप में जरूर स्थापित हो जाएंगे। क्या कांग्रेस को इस विसंगति को रोकने का प्रयास नहीं करना चाहिए जिसे जवाहरलाल, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी सभी ने उखाड़ फेंका था? क्यों राहुल 2014 के लोकसभा चुनावों तक इंतजार नहीं कर सकते? उस चुनाव में गठबंधनों का ध्रुवीकरण इस बात पर निर्भर करेगा कि कांग्रेस किसको अपना प्रधानमंत्री प्रोजेक्ट करती है। सोनिया हो नहीं सकतीं या होना नहीं चाहतीं, तो संप्रग के प्रमुख घटक के रूप में कांग्रेस प्रधानमंत्री के लिए किसे आगे करेगी? अभी रक्षा मंत्री एके एंटनी को सरकार में दूसरे नंबर पर करने मात्र पर घटक दल राकांपा के शरद पवार ने जो कोहराम मचाया उससे यह संकेत मिलता है कि संप्रग को यदि पुन: प्रधानमंत्री बनाने का अवसर मिला और कांग्रेस ने कोई सर्वसम्मत प्रत्याशी नहीं बनाया तो घटक दल कांग्रेस से प्रधानमंत्री की कुर्सी छीन सकते हैं। केवल राहुल को आगे करके ही इसे रोका जा सकता है।
पिछले चुनावों में बिहार और उत्तर प्रदेश में राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस ने खराब प्रदर्शन किया, जिससे उनकी नेतृत्व क्षमता पर संदेह किया जा रहा है। आठ वर्ष की संसदीय यात्रा में राहुल ने संसद के अंदर भी कोई विशेष ख्याति प्राप्त नहीं की, लेकिन संसद के बाहर जरूर वह कांग्रेस के ब्रांड-एंबेसडर के रूप में स्थापित हो गए हैं। अगस्त 2011 में सीएसडीएस, दिल्ली के स्टेट ऑफ द नेशन सर्वे के आकड़ों के अनुसार नरेंद्र मोदी, सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह को पछाड़ कर राहुल प्रधानमंत्री पद के लिए पूरे देश के मतदाताओं की पहली पसंद रहे थे। इस वर्ष उत्तर प्रदेश में खराब प्रदर्शन के बावजूद वह प्रदेश के मतदाताओं की प्रधानमंत्री के लिए पहली पसंद बने हुए हैं। देखना है कि कमजोर संगठनात्मक ढांचे और समर्पित कार्यकर्ताओं के अभाव की पूंजी लेकर सत्ता की राजनीति करने को उत्सुक राहुल देश, पार्टी और नेहरू-वंश बेल को कहां तक ले जा पाते हैं।
लेखक राजनीतिक मामलों के विश्लेषक हैं
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