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अंधेरे में बिजली नीति

जागरण मेहमान कोना
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bharat Jhunjhunbalaमुंबई में एक प्रमुख उद्योगपति के घर का बिजली का मासिक बिल 74 लाख रुपये है। इन्हें सप्लाई की जा रही बिजली में यदि 90 प्रतिशत की कटौती कर दी जाए तो 65 हजार घर रोशन हो सकते हैं। देश के वर्तमान उत्पादन का केवल दो प्रतिशत गरीबों को आवंटित कर दिया जाए तो अंधेरे में पड़े करोड़ों घरों को बिजली पहुंचाई जा सकती है, परंतु सरकार पर अमीरों का इतना सख्त शिकंजा कस चुका है कि उनकी खपत की पूर्ति पहले की जा रही है। दिल्ली के ग्रीन पार्क अथवा बेंगलूर के पैलेस आर्चर्ड में बिजली की सप्लाई लगभग 24 घंटे रहती है, जबकि उत्तर प्रदेश एवं बिहार के गांवों में एक या दो घंटे ही सप्लाई हो पा रही है। सरकार का मानना है कि जिसे जितनी बिजली चाहिए वह उसे दी जाए। गरीब अमीर में भेद नहीं करना चाहिए। इस समानता का अर्थ हुआ कि रेलवे टिकट काउंटर पर तत्काल बुकिंग के लिए पहलवान और विकलांग को पहुंचने का बराबर अधिकार है अथवा लंगर पर बंट रहे शर्बत को पाने के लिए एथलीट और पांच वर्ष की बालिका का बराबर अधिकार है।


सरकार की इस गलत सोच का परिणाम है कि उपलब्ध बिजली पर अमीरों का कब्जा हो गया है और गरीब अंधेरे में हैं। समस्या का समाधान बिजली के उत्पादन में वृद्धि से ढूंढ़ा जा रहा है। सोच है कि उत्पादन पर्याप्त हो तो गरीब को भी बिजली मिल जाएगी, परंतु ऐसा होता नहीं दिख रहा है। अमीरों की जरूरत तेजी से बढ़ रही है। पहले पंखे चलते थे, फिर कूलर चलने लगे, इसके बाद एयर कंडीशनर चले। अब पूरे घर की सेंट्रलाइज्ड एयर कंडिशनिंग की जा रही है। फलस्वरूप बिजली के उत्पादन में वृद्धि अमीरों की जरूरतों की पूर्ति के लिए भी पर्याप्त नहीं पड़ रही है। उत्तरोत्तर अधिक उत्पादन का एक और दुष्परिणाम हो रहा है। कोयले और प्राकृतिक गैस से बनी बिजली के उत्पादन से कॉर्बन उत्सर्जन हो रहा है। इससे धरती का तापमान बढ़ रहा है। वर्षा का पैटर्न बदलने में भी इसका योगदान बताया जा रहा है जैसा कि वर्तमान में सूखा पड़ा हुआ है। हाइड्रोपावर से जैव विविधता नष्ट हो रही है। जल श्चोत सूख रहे हैं और जंगल कट रहे हैं।


परमाणु ऊर्जा से निकले रेडियोधर्मी कूड़े का भंडारण और निपटान खतरनाक सिद्ध हो रहा है। सौर ऊर्जा की सिलिकोन चिप बनाने में पर्यावरण नष्ट हो रहा है। विंड पावर से चिडि़या समाप्त हो रही हैं। विशेष यह कि पर्यावरण के दुष्प्रभाव गरीब पर ज्यादा पड़ते हैं। वर्षा का पैटर्न बदलने से किसान की खेती नष्ट होती है और वह भूखा मरता है, जबकि अमीर खाद्यान्न का आयात करके आरामपूर्वक जीवन यापन करता है। वैश्विक स्तर पर ऊर्जा संकट पर लंबे समय से चिंतन चल रहा है। 1992 में पाल आर्लिख ने एक पर्चे में लिखा था कि विश्व के 30 प्रतिशत उच्च वगरें द्वारा 70 प्रतिशत बिजली की खपत की जा रही है। एक अन्य लेख में आर्लिख कहते हैं कि उत्पादन के पर्यावरण पर पड़ने वाले दबाव को दो तरह से नियंत्रित किया जा सकता है- जनसंख्या नियंत्रित करके अथवा खपत घटाकर। जनसंख्या के नियंत्रण पर विश्व स्तर पर सहमति बन चुकी है। यह विषय केवल कार्यान्वयन का रह गया है। आगे जरूरत खपत घटाने की है।


संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनेस्को ने ग्लोबल वार्मिंग तथा नैतिकता पर शोध किया है। एक रपट में कहा गया है, अमीरों द्वारा विलासिता के लिए ऊर्जा की खपत को बिना मानव अधिकारों का हनन किए घटाया जा सकता है। जो ऊर्जा का अधिक उपयोग करते हैं उन पर प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं। इसी तर्ज पर वाशिंगटन स्थित व‌र्ल्ड रिर्सोसेज इंस्टीट्यूट ने कहा है, अकसर सरकारी नीतियां अमीर लोगों एवं क्षेत्रों के पक्ष में होती हैं जिसमें संभ्रांत वर्गो को लाभ होता है, लेकिन पर्यावरणीय एवं सामाजिक दुष्प्रभावों को गरीबों पर थोप दिया जाता है। गरीबी उन्मूलन से प्रगति हो सकती है यदि प्राकृतिक संसाधनों का उचित वितरण किया जाए। हमने समानता को देश का लक्ष्य घोषित किया है। फिर भी असमानता दिनों-दिन बढ़ रही है। कारण कि हमने बिजली की खपत करने के अधिकार में समानता स्थापित की है। गरीब एवं अमीर दोनों को खपत करने का बराबर अधिकार दे दिया है। यह इसी तरह हुआ कि कुएं से पानी लेने का सबको बराबर अधिकार है। जाहिर है कि जमींदार के पास लंबी रस्सी और बड़ी बाल्टी होगी और वह ज्यादा पानी ले सकेगा। गरीब के पास रस्सी, बाल्टी न हो तो वह प्यासा रह जाएगा। तथापि दोनों को पानी लेने का समान अधिकार है। इस सोच में परिवर्तन की जरूरत है।


बिजली की खपत करने के अधिकार में समानता स्थापित करने के स्थान पर बिजली की खपत में ही सीधे समानता स्थापित करनी होगी। निजीकरण के दौर में बिजली कंपनियों द्वारा भी गरीब एवं छोटे ग्राहकों को बिजली सप्लाई में रुचि नहीं ली जाती है। अमीर द्वारा बिल का पेमेंट जल्द किया जाता है। एक कनेक्शन से ही माह में लाख रुपये की बिजली की बिक्री हो जाती है। कंपनी को एकमुश्त बड़ी रकम वसूल हो जाती है। गरीब से बिल की रकम वसूल करने में ज्यादा खर्चा पड़ता है और वितरण में तमाम तार और मीटर लगाने पड़ते हैं। चूंकि बड़ी संख्या में उपभोक्ताओं से संपर्क साधना पड़ता है, इसलिए अमीरों को बिजली की सप्लाई प्राथमिकता पर की जा रही है। देश में लागू बिजली कानून में व्यवस्था है कि केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण द्वारा समय-समय पर राष्ट्रीय विद्युत योजना बनाई जाएगी।


वर्तमान में यह प्रक्रिया जारी है। पूर्व में बनाए गए बिजली प्लान में अमीरों की बिजली की खपत कम करने का तनिक भी उल्लेख नहीं किया गया है। पूरा दबाव बिजली के उत्पादन में वृद्धि पर है। यही बात केंद्र सरकार के बिजली मंत्रालय द्वारा बनाई गई राष्ट्रीय बिजली नीति पर भी लागू होती है। यहां पर भी बिजली की खपत कम करने का उल्लेख नहीं है। विद्युत प्राधिकरण एवं बिजली मंत्रालय को इन दस्तावेजों में बिजली की मांग को सीमित करने की बात बड़े अक्षरों में जोड़नी चाहिए। वर्तमान नीति आम आदमी के लिए दो प्रकार से हानिप्रद है। उसे बिजली नहीं मिलती है। ऊपर से उसे उत्पादन के पर्यावरणीय दुष्प्रभावों की मार झेलनी पड़ती है। बिजली चंद लोगों को मिलती है और शेष जनता को पावरकट झेलना पड़ता है। इस विसंगति को दूर किए बिना बिजली संकट से निजात संभव नहीं।


लेखक डॉ. भरत झुनझुनवाला आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं


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