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आग में झुलसता असम

जागरण मेहमान कोना
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balbir punjअसम में हुई हिंसा को तथाकथित सेक्युलर दलों की कुत्सित राजनीति का नतीजा बता रहे हैं बलबीर पुंज


पिछले दिनों की असम में हिंसक घटनाएं और आगजनी तथाकथित सेक्युलर दलों की कुत्सित राजनीति का परिणाम है। असम की वर्तमान हिंसा जातीय न होकर सीमा पार से आए मुस्लिम घुसपैठियों के हाथों स्थानीय जनजाति के लोगों की अपनी पहचान, सम्मान और संपत्ति की रक्षा का संघर्ष है। विगत 19 जुलाई से भड़की हिंसा में अब तक जहां 58 लोग अकाल मृत्यु के शिकार हुए वहीं करीब तीन लाख लोग अपने घरों से उजड़कर राहत शिविरों में रहने के लिए मजबूर हैं। इन शिविरों में खाने-पीने, सोने और दवा की व्यवस्था तक नहीं है। हिंसा के खौफ से गांव के गांव खाली हो गए। दंगाइयों ने इन गांवों के वीरान घरों और खेतों में लगी फसल को आग के हवाले कर दिया। मीडिया की खबरों के अनुसार सरकार को अंदेशा है कि दंगाइयों का अगला निशाना अब कोकराझाड़ के पड़ोसी जिले बन सकते हैं, इसलिए वह उन्हें खाली कराने पर विचार कर रही है। इस खबर में एक सेवानिवृत्त स्टेशन मास्टर बासुमतारी का उल्लेख है, जिसने बताया कि उन्होंने स्थानीय विधायक प्रदीप ब्रंाा से रक्षा की गुहार लगाई तो उन्होंने पर्याप्त पुलिस बल नहीं होने की लाचारी दिखाई। गांव वालों के अनुसार टकराव की स्थिति तब बनी जब घुसपैठियों ने कोकराझाड़ के बेडलंगमारी के वनक्षेत्र में अतिक्रमण कर वहां ईदगाह होने का साइनबोर्ड लगा दिया। वन विभाग के अधिकारियों ने बोडो लिबरेशन टाइगर्स (बीएलटी) के साथ मिलकर यह अतिक्रमण हटा दिया। इसके विरोध में ऑल बोडोलैंड माइनारिटी स्टूडेंट यूनियन (एबीएमएसयू) ने कोकराझाड़ जिले में बंद का आ ान किया था। 6 जुलाई को अंथिपारा में अज्ञात हमलावरों ने एबीएमएसयू के दो सदस्यों की गोली मारकर हत्या कर दी। 19 जुलाई को एमबीएसयू के पूर्व प्रमुख और उनके सहयोगी की हत्या हो गई।


अगले दिन घुसपैठियों की भीड़ ने बीएलटी के चार सदस्यों की बर्बरतापूर्वक हत्या कर दी। इसके बाद ही बासुमतारी और अन्य गांव वाले हिंसा की आशंका में राहत शिविरों में चले गए। दूसरे दिन बांग्लादेशियों ने उनके घर और खेत जला दिए। कोकराझाड़, चिरांग, बंगाईगांव, धुबरी और ग्वालपाड़ा से स्थानीय बोडो आदिवासियों को हिंसा के बल पर खदेड़ भगाने वाले अवैध बांग्लादेशी घुसपैठिए हैं, जिनके कारण न केवल असम के जनसांख्यिक स्वरूप में तेजी से बदलाव आया है, बल्कि देश के कई अन्य भागों में भी बांग्लादेशी अवैध घुसपैठिए कानून एवं व्यवस्था के लिए गंभीर खतरा बने हुए हैं। हुजी जैसे आतंकी संगठनों की गतिविधियां इन्हीं घुसपैठियों की मदद से चलने की खुफिया जानकारी होने के बावजूद कुछ सेक्युलर दल बांग्लादेशियों को भारतीय नागरिकता देने की मांग कर रहे हैं। कुछ समय पूर्व गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने तल्ख टिप्पणी की थी कि ये अवैध घुसपैठिए राज्य में किंगमेकर बन गए हैं। असम को पाकिस्तान का अंग बनाने का सपना फखरुद्दीन अली अहमद ने देखा था। जनसांख्यिक स्वरूप में बदलाव लाने के लिए असम में पूर्वी बंगाली मुसलमानों की घुसपैठ 1937 से शुरू हुई। पश्चिम बंगाल से चलते हुए उत्तर प्रदेश, बिहार व असम के सीमावर्ती क्षेत्रों में अब इन अवैध घुसपैठियों के कारण एक स्पष्ट भूपट्टी विकसित हो गई है, जो मुस्लिम बहुल है। 1901 से 2001 के बीच असम में मुसलमानों का अनुपात 15.03 प्रतिशत से बढ़कर 30.92 प्रतिशत हो गया। इस दशक में असम के अनेक इलाकों में मुसलमानों की आबादी में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है और यह तेजी से बढ़ रही है। बांग्लादेश से आए अवैध घुसपैठियों की पहचान के लिए वर्ष 1979 में असम में व्यापक विरोध प्रदर्शन हुआ। इसी कारण 1983 के चुनावों का बहिष्कार भी किया गया, क्योंकि बिना किसी पहचान के लाखों बांग्लादेशियों का नाम मतदाता सूची में दर्ज कर लिया गया था। चुनाव बहिष्कार के कारण केवल 10 प्रतिशत मतदान ही दर्ज हो सका।


विडंबना यह है कि शुचिता की नसीहत देने वाली कांग्रेस पार्टी ने इसे ही पूर्ण जनादेश माना और राज्य में चुनी हुई सरकार का गठन कर लिया गया। यह अनुमान करना कठिन नहीं कि 10 प्रतिशत मतदान करने वाले इन्हीं अवैध घुसपैठिओं के संरक्षण के लिए कांग्रेस सरकार ने जो कानून बनाया वह असम के बहुलतावादी स्वरूप के लिए अब नासूर बन चुका है। 2008 में सर्वोच्च न्यायालय ने कांग्रेस द्वारा 1983 में लागू किए गए अवैध आव्रजन अधिनियम को निरस्त कर अवैध बांग्लादेशियों को राज्य से निकाल बाहर करने का आदेश पारित किया था, किंतु कांग्रेसी सरकार इस कानून को लागू रखने पर आमादा है। इस अधिनियम में अवैध घुसपैठिया उसे माना गया जो 25 दिसंबर, 1971 (बांग्लादेश के सृजन की तिथि) को या उसके बाद भारत आया हो। इससे स्वत: उन लाखों मुस्लिमों को भारतीय नागरिकता मिल गई जो पूर्वी पाकिस्तान से आए थे। तब से सेक्युलरवाद की आड़ में अवैध बांग्लादेशियों की घुसपैठ जारी है और उन्हें देश से बाहर निकालने की राष्ट्रवादी मांग को फौरन सांप्रदायिक रंग देने की कुत्सित राजनीति भी अपने चरम पर है। बोडो आदिवासियों के साथ हिंसा एक सुनियोजित साजिश है। जिस तरह कश्मीर से कश्मीरी पंडितों को हिंसा के बल पर खदेड़ भगाया गया, हिंदू बोडो आदिवासियों के साथ भी पिछले कुछ सालों से इस्लामी जिहादी यही प्रयोग कर रहे हैं।


2008 में भी पांच सौ से अधिक बोडो आदिवासियों के घर जलाए गए थे, करीब सौ लोग मारे गए और लाखों विस्थापित हुए थे। तब असम के उदलगिरी जिले के सोनारीपाड़ा और बाखलपुरा गांवों में बोडो आदिवासियों के घरों को जलाने के बाद बांग्लादेशी मुसलमानों द्वारा पाकिस्तानी झंडे लहराए गए थे। इससे पूर्व कोकराझाड़ जिले के भंडारचारा गांव में अलगाववादियों ने स्वतंत्रता दिवस के दिन तिरंगे की जगह काला झंडा लहराने की कोशिश की थी। सेक्युलर मीडिया और राजनीतिक दल वर्तमान हिंसा को जातीय संघर्ष के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहे हैं, जबकि कटु सत्य यह है कि यह हिंसा जिहादी इस्लाम से प्रेरित है, जिसमें गैर मुस्लिमों के लिए कोई स्थान नहीं है। बोडो आदिवासी पहले मेघालय की सीमा से सटे ग्वालपाड़ा और कामरूप जिले तक फैले थे। अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों की भारी बसावट के कारण वे तेजी से सिमटते गए। अब तो संकट उनकी पहचान और अस्तित्व बचाए रखने का है। दूसरी ओर इस्लामी चरमपंथी इस बात पर तुले हैं कि बोडोलैंड क्षेत्रीय परिषद (बीटीसी) के इलाके के जिन गांवों में बोडो समुदाय की आबादी आधी से कम है उन्हें बीटीसी से बाहर किया जाए। सच यह है कि असम के जिन क्षेत्रों में मुस्लिम धर्मावलंबी बहुमत प्राप्त कर चुके हैं वहां से इस्लामी कट्टरपंथी अब गैर मुस्लिमों को पलायन के लिए विवश कर रहे हैं।


लेखक बलबीर पुंज राज्यसभा सदस्य हैं


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