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खिलाडि़यों का मनोबल न गिराएं

जागरण मेहमान कोना
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Dhanraj Pillaiअब तक हम हॉकी में स्पेन से भी हार जाते हैं। इस ओलंपिक में मिली शर्मनाक हार से दिल तड़प उठा है, लेकिन उससे भी ज्यादा दिल दुखता है अपने ही देश के खेल-प्रेमियों की बेरुखी से। खेल तो सभी के लिए महत्वपूर्ण। खेल अनुशासन सिखाता है। खेल सिखाता है संयम रखना। खेल सिखाता है हार कर दोबारा जीतना, लेकिन न जाने क्यों हमारी शिक्षा पद्धति में खेलों को वह स्थान नहीं मिलता जो मिलना चाहिए। मां-बाप लगातार अपने बच्चों के पीछे पड़े रहते हैं कि 99 प्रतिशत मा‌र्क्स लाओ या फिर 89 प्रतिशत लाओ ही वर्ना कहीं नहीं पहुंच पाओगे। हमारा समाज यह क्यों नहीं समझता कि खेलों में भी कॅरियर बन सकता है। अगर मैं अपनी ही बात करूं तो मेरे पास कोई डिग्री नहीं है, लेकिन जब मैं पच्चीस साल का था तब मुझे पद्मश्री के खिताब से नवाजा गया था। भारत के राष्ट्रपति ने अशोक हॉल में अपने हाथों से वह सम्मान दिया था। वह अशोक हॉल जहां इस देश के लोग पहुंचने के सपने ही देखते रह जाते हैं। मुझे आज तक जो नाम, जो शोहरत मिली, वह हॉकी की बदौलत ही मिली-वह हॉकी जिसमें कभी हमारा कोई मुकाबला नहीं कर पाता था।


भारत ने हॉकी में ग्यारह पदक जीते हैं। इस रिकॉर्ड की बराबरी कोई देश नहीं कर पाया है। उन ग्यारह पदकों में थे आठ स्वर्ण पदक। हमने ओलंपिक में अपना आखिरी पदक 1980 में जीता था। समय बदला, देश बदला और क्रिकेट ने धीरे-धीरे हॉकी को पीछे धकेल दिया। फिर हुआ क्रिकेट का व्यापारीकरण। आज हर स्कूल में क्रिकेट खेला जाता है। हर कॉलेज की क्रिकेट टीम होती है और हर विश्वविद्यालय बढ़-चढ़कर क्रिकेट टूर्नामेंटों में हिस्सा लेता है। आज अगर खेल की बात होती है तो हर माता-पिता की एक ही इच्छा होती है कि हमारा बच्चा क्रिकेटर बन जाए। वह इसलिए कि क्रिकेट में नाम है, शोहरत है और है ढेर सारा पैसा है। आज हर चीज व्यापार बन गई है, हर चीज को दौलत के तराजू में रखकर तोला जाता है। खेल को खेल नहीं, बल्कि पैसा कमाने की मशीन मान लिया गया है और इसीलिए क्रिकेट के अलावा किसी और खेल की ओर ज्यादातर लोग देखने का कष्ट तक नहीं उठाते। साइना नेहवाल ने बैडमिंटन में कांस्य पदक जीता और देश लौटने पर उनका जोरदार स्वागत हुआ। क्रिकेट को छोड़ किसी और खेल के खिलाड़ी का ऐसा स्वागत होते देख मेरा दिल खुशी से झूम उठा। मैं तो चाहता हूं कि हॉकी, फुटबॉल, एथलेटिक्स, बॉक्सिंग, शूटिंग जैसे सभी खेलों में लोग बढ़-चढ़कर हिस्सा लें और अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में सफलता हासिल कर हमारे देश का नाम रोशन करते रहें। इसमें संदेह नहीं कि भारत खेल प्रेमी देश है। जरूरत है तो समाज को खेलों के संदर्भ में थोड़ा-सा झकझोर देने की और इस बात का प्रचार करने की कि खेल भी एक रास्ता है कामयाब जिंदगी गुजारने का, देश के साथ-साथ अपना भी नाम रोशन करने का। लंदन में हो रहे ओलंपिक से यह बात तो साबित हो गई कि उस देश ने दुनिया को दिखा दिया कि वह कितनी अच्छी तरह से खेलों का आयोजन कर सकता है। यही नहीं, ढेर सारे पदक जीत कर सारे संसार को यह भी जता दिया कि उसने अपने खिलाडि़यों का किस हद तक हौसला बढ़ाया था और तैयारी की थी। अपने खिलाडि़यों का हौसला बढ़ाने के मामले में हम और देशों से कितने पीछे हैं, यह बात उस सर्वे से साबित हो जाती है जो टेनविक्स ने हाल ही में रिलीज किया है।


सर्वे में दर्शकों द्वारा खिलाडि़यों का हौसला और उत्साह बढ़ाने के स्तर को मापा गया। इस सर्वे में क्रिकेट, फुटबॉल, बैडमिंटन और हॉकी के 55 जाने-माने खिलाडि़यों से उनकी राय मांगी गई। उनसे पूछा गया कि जब किसी देश की टीम अपना मैच हार रही होती है तब किस देश के लोग अपनी टीम के साथ सबसे ज्यादा दृढ़ता से खड़े नजर आते हैं? और नतीजे सिर को शर्म से झुका देने वाले मिले। भारत को मिले केवल 14 वोट, जबकि इंग्लैंड 42 प्रतिशत और ऑस्ट्रेलिया 36 प्रतिशत मतों के साथ भारत से कहीं आगे पाए गए। हम भारतीय ऐसा क्यों करते हैं कि जब कोई खिलाड़ी या टीम जीत की राह पर होती है तब तो उसे सर-आंखों पर बिठाए रखते हैं और जैसे ही हार होती है उसे खाक में मिला देते हैं? हम यह क्यों नहीं समझते कि खेल तो खेल है, इसमें किसी की हार और किसी की जीत तो होती रहेगी। यह क्यों नहीं मानते कि कोई भी खिलाड़ी हारने के लिए मैदान में नहीं उतरता। जब किसी की हार होती है तब उसे सबसे ज्यादा जरूरत होती है यह समझाने की कि उसके अपने उसके साथ हैं। कोई उसे दुनिया में सिर्फ इसलिए कम नहीं समझेगा कि उसकी हार हुई है। उसे जरूरत होती है कि उसके अपने उसे लिए तालियां बजाएं ताकि उसका हौसला मजबूत हो और वह हार को भूलकर आगे के मुकाबलों में जीत की तैयारियों में जुट जाए। हमें यानी सवा सौ करोड़ देशवासियों को एक आवाज बन कर अपने हर खिलाड़ी और टीम का हौसला बढ़ाना चाहिए। उनका सच्चे दिल से उत्साह बढ़ाना चाहिए-यह सोचे बिना कि वे हार रहे हैं या जीत रहे हैं। खेल तो खेल है। इसमें किसी की हार और किसी की जीत तो होती रहेगी। मेरा कहना है कि खेल को खेल ही रहने दीजिए और पूरी ताकत से भारत के हर खिलाड़ी और हर टीम का हौसला बढ़ाएं ताकि हम भी बन जाएं चैंपियनों का देश।


धनराज पिल्लै पूर्व हॉकी कप्तान हैं

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