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बीते कई वर्षो से उग्रवाद और अलगाववाद की समस्या से ग्रस्त पूर्वोत्तर के असम प्रदेश में विषम स्थिति पैदा हो गई है। यह विषम स्थिति असम के पांच जिलों में बोडो जनजाति समूह तथा स्थानीय मुस्लिम समुदाय के बीच हिंसा भड़कने से पैदा हुई है। बोडो तथा स्थानीय मुस्लिम समुदाय के बीच टकराव को रोकने की प्रारंभिक जिम्मेदारी राज्य सरकार की रही है, किंतु विडंबना यह है कि उसने इस जिम्मेदारी से मुंह चुराने की कोशिश की। असम के पांच जिलों में व्याप्त तनाव को खत्म करने में राज्य सरकार ने हफ्ते भर का समय क्यों खर्च किया? हिंसा की चिंगारी फैलती रही, फिर भी राज्य तथा केंद्र की सरकारें मूकदर्शक क्यों बनी रहीं? कानून एवं व्यवस्था राज्य का मामला है फिर असम के मुख्यमंत्री इसका ठीकरा केंद्र पर क्यों फोड़ते रहे? इसका मतलब यह नहीं कि केंद्र सरकार को इस मामले में बरी कर दिया जाना चाहिए। यदि असम सरकार ने केंद्रीय सुरक्षा बलों की मांग की थी तो पांच दिनों तक उस पर कार्रवाई क्यों नहीं हुई? देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह असम से ही राज्यसभा में पहुंचे हैं, ऐसे में तो उन्हें अधिक तत्पर होना चाहिए था। असम में हिंसा को रोकने में राज्य तथा केंद्र सरकार की विफलता का एक आशय यह भी है कि हिंसा रोकने की उनमें सामर्थ्य नहीं है। इसी से जुड़ा एक तथ्य यह भी है कि हिंसा के विरुद्ध व्यापक जनमत तैयार करने की सामर्थ्य आज किसी राजनीतिक नेता में नहीं है। प्रांतीय नेता की तो बात ही छोड़ें, किसी राष्ट्रीय नेता या राष्ट्रीय राजनीतिक दल में भी यह सामर्थ्य नहीं है।
असम के पांच जिलों में बोडो जनजाति तथा गैरबोडो एक अन्य समुदाय के बीच भड़की हिंसा में अब तक 70 से अधिक लोग मारे गए हैं और तीन लाख से ज्यादा लोग विस्थापित हुए हैं। पहले से ही विस्थापित लोगों का पुनर्वास करने में शासन विफल रहा है, अब नए विस्थापित लोगों के पुनर्वास की कड़ी चुनौती सामने खड़ी है। असम में भड़की हिंसा दरअसल बोडो व गैर बोडो स्थानीय समूहों के बीच अपनी पहचान और वर्चस्व को लेकर बढ़ते तनाव की देन है। इसे रोकने में जिस तरह राज्य तथा केंद्र की सरकारों ने हाथ खड़े किए, उससे यह भी लगता है कि सरकारों की मंशा बोडो तथा गैर बोडो समुदायों को आपस में लड़ाने-भिड़ाने की ही रही है। असम समेत समूचे पूर्वोत्तर की जनजातियों को शासन पहले भी लड़ाता-भिड़ाता रहा है। पूर्वोत्तर में बोडो और असमिया, मीते और नगा, खासी और गारो, कुकी और नगा समुदाय के बीच संघर्ष की खबरें अक्सर आती रहती हैं और कई बार तो इन संघर्षो के कारण बहुत बड़ा संकट खड़ा हो जाता रहा है। पिछले वर्ष मणिपुर की दो जनजातियों-नगा तथा कुकी के बीच तनाव के फलस्वरूप तीन महीने से ज्यादा समय तक वहां आर्थिक नाकेबंदी चली थी। कुकी जनजाति ने एक राजमार्ग पर नाकेबंदी की तो नगा जनजाति ने दूसरे राजमार्ग पर। उस नाकेबंदी को खत्म करने की भी राज्य व केंद्र की सरकार ने काफी देर से पहल की।
आर्थिक नाकेबंदी की वजह से कालाबाजारियों और जमाखोरों की बन आई थी। तब यही प्रतीत हुआ था कि शासन को इससे कोई मतलब नहीं कि पूर्वोत्तर के लोगों को दैनंदिन जीवन में किन आर्थिक-सामाजिक मुश्किलों से जूझना पड़ता है। देर से सुधि लेने का मतलब पूर्वोत्तर के प्रति उपेक्षा का भाव रखना है। पूर्वोत्तर के प्रश्न पर केंद्र सरकार की एक उपेक्षा का एक उदाहरण इरोम शर्मिला भी हैं, जिनका अनशन आगामी पांच नवंबर को तेरहवें वर्ष में प्रवेश करेगा। उनकी आवाज दिल्ली क्यों नहीं पहुंच पाती? इरोम शर्मिला मणिपुर में लागू सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून हटाने के लिए अनवरत अनशनरत हैं। उनका आरोप है कि इस कानून की आड़ में वहां तैनात सशस्त्र बलों के जवान निर्दोष लोगों के साथ गुलामों जैसा बर्ताव करते हैं और उनके द्वारा महिलाओं का अपहरण और दुष्कर्म किया जाना आम बात है। पूर्वोत्तर के सभी राज्यों में यह कानून लागू है। आखिर केंद्र सरकार ने इरोम शर्मिला के इन गंभीर आरोपों की जांच क्यों नहीं कराई? दरअसल इरोम की कहानी पूरे पूर्वोत्तर की कहानी है। इरोम शर्मिला पूरे पूर्वोत्तर की आवाज हैं। उनकी आवाज दिल्ली कब पहुंचेगी? इरोम शर्मिला ने सत्याग्रह के लिए गांधी का अहिंसा का रास्ता चुना, किंतु उसे सरकार ने उचित मान नहीं दिया। इतिहास गवाह है कि पूर्वोत्तर के नौजवानों ने जब हथियार उठाए तभी सरकार चेती और उसने उनसे वार्ता शुरू की। पूर्वोत्तर के नौजवानों ने हथियार क्यों उठाए? निश्चित रूप से सरकार की गैरजरूरी सख्ती से पूर्वोत्तर की धरती को मुक्त किए बगैर वहां की भीतरी तथा बाहरी चुनौतियों से नहीं निपटा जा सकेगा। पूर्वोत्तर के लोगों के हृदय की बातें सुननी होंगी। उनकी व्यथा जाननी होगी।
आज तक यह जानने का प्रयास नहीं किया गया कि वे क्यों दमित हैं, इसीलिए पूर्वोत्तर के प्रदेश भारत का हिस्सा होकर भी कई बार भारत का हिस्सा नहीं लगते। पूर्वोत्तर के लोगों की कद-काठी, शक्ल-सूरत, उनकी संस्कृति, उनकी सामाजिक परंपराएं, रीति-रिवाज और उनकी भाषाएं शेष भारत से भिन्न हैं। भिन्न चेहरे-मोहरे के कारण पूर्वोत्तर के लोगों से अपने ही देश में वीजा दिखाने को कहा जाता है। क्या इस तरह उन्हें मुख्यधारा में लाया जा सकेगा? इन्हीं सबके कारण पूर्वोत्तर के लोग भारत की विविधता, विशालता और बहुलता से सामंजस्य नहीं बिठा पाते। सरकारों ने वे कदम भी नहीं उठाए कि पूर्वोत्तरवासी मुख्यधारा से सामंजस्य बिठाने के लिए आगे आते। सामंजस्य नहीं बिठाने से ही पूर्वोत्तर से भारत की संप्रभुता को चुनौती भी मिलती रही है। मुख्य भूमि में रहकर देश का शासन चलाने वाले पूर्वोत्तर के प्रदेशों और वहां के बाशिंदों की पीड़ा को जानने-समझने का प्रयास करने से प्राय: परहेज करते हैं।
कृपाशंकर चौबे महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विवि में एसोसिएट प्रोफेसर हैं.
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