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दो रंग की आजादी

जागरण मेहमान कोना
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Arvind mohanजैसे ही अंग्रेजी राज की वैधता पर सवाल उठने शुरू हुए वैसे ही अकादमिक और राजनीतिक हलकों में कई तरह की दिलचस्प बहसें शुरू हो गई थीं, जो गांधी के समय तक खुलकर चलीं और गांधी ने उन बहसों को आम लोगों की भागीदारी और कानून के राज के दावों से उलट अंग्रेजी आचरण के आधार पर अपने पक्ष में किया और मुल्क को आजादी दिलाने के साथ दुनिया भर से उपनिवेशवाद की विदाई का आधार तैयार किया। अंग्रेजी दलीलों का आधार था कि भारत तो कभी एक मुल्क था ही नहीं-यह तो विविध जातियों, धर्मो, भाषाओं के लोगों का जमावड़ा था, इसे मुल्क का रूप तो हमने दिया। यह तर्क इतना आगे गया कि बाद में भारत जैसे मुल्कों को सभ्य बनाना गोरों का दायित्व और उन्हें ईश्वर से मिला जिम्मा तक करार दिया जाने लगा। गांधी और हमारे राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं और विचारकों का मानना था कि भारत विविधताओं में एकता वाला समाज है और अंग्रेजों ने यहां की विविधताओं का उपयोग समाज को तोड़ने और बांटने के लिए किया है। आजादी मिलने के बाद निश्चित रूप से हमारे नेताओं ने अपनी कल्पना, सोच और अंग्रेजी राज की गलतियों को दूर करने की मंशा से काम करना शुरू किया। हमारा संविधान उन सभी मूल्यों को समेटने का प्रयास करता है जो हमारे राष्ट्रीय आंदोलन के थे। बाद में जब लगा कि समाज की गैर-बराबरी का सवाल हमारी प्राथमिकता में आने से रह गया है तब संविधान संशोधन करके उसकी प्रस्तावना में समाजवाद शब्द डाला गया।


आर्थिक नीतियों के मामले में नेहरू युग तक ही नहीं इंदिरा युग के पहले चरण तक समाजवाद ही सबसे ज्यादा सुना जा सकने वाला पद था। बाद में जब बाजार अर्थव्यवस्था का सहारा लिया भी गया तो भी इस पद को निकाला नहीं गया। जब सामाजिक भेदभाव से निपटने के लिए विशेष अवसर का सिद्धांत माना गया तो शुरू में उसे दस साल भर के लिए और सिर्फ अनुसूचित जातियों-जनजातियों के लिए ही लागू किया गया। बड़े जिद्दोजहद के बाद मंडल लागू हुआ। इसमें कमियां हैं, लेकिन तरह-तरह के पिछडे़पन में से एक से लड़ने की जगह उसके लोगों में उम्मीद जगाने का काम इसने बखूबी किया। सार्वभौम मताधिकार वाली व्यवस्था और विशेष अवसर के सिद्धांत ने मिलकर मुल्क में सचमुच की क्रांति कर दी। सारी विधानसभाओं का ही नहीं, संसद तक का पूरा चरित्र बदल गया। सारी दुनिया में कमजोर और पिछड़ी जमातों का लोकतंत्र से भरोसा उठा है और पढे़-लिखे लोग ही चुनाव में दिलचस्पी लेते हैं। हमारे यहां सबसे कमजोर और गरीब जमातों में लोकतंत्र के प्रति भरोसा बढ़ता गया है। यह बदलाव सिर्फ विधायिका का नहीं है। लोकतंत्र के इस जादू का प्रभाव पढ़ाई-लिखाई, उद्योग-व्यापार, शासन सब पर हुआ है। सबसे पिछड़े इलाकों में भी विकास की रफ्तार तेज है।


मंडल और उदारीकरण का रिश्ता तो स्वाभाविक नहीं है, पर इस दौर में हुए तेज आर्थिक विकास और पिछड़ों-कमजोर जमातों की ऊर्जा के प्रस्फोट का रिश्ता जरूर देखा जाना चाहिए। अगड़ी जमात उदारीकरण में जगह बनाने की जिद्दोजहद के साथ विदेशों का रुख करने में भी आगे है और कई लोग इसे आजादी की मलाई खाकर फुर्र हो जाना भी मानते हैं, पर 60-65 साल के बाद यह साफ हो गया है कि हजारों साल से समाज का नेतृत्व करने का दावा करने वाले समूह के नेतृत्व में मुल्क का पूरा भला नहीं हो सकता। पर इस तेज विकास और बाजार वाली कथित आजादी ने दो दशकों के अंदर ही काफी कुछ बदल डाला है। कभी सबसे अमीर और गरीब के बीच दस गुने का अंतर पाटना एक संभव लक्ष्य लगता था, आज न्यूनतम मजदूरी और सबसे अमीर व्यक्ति की कमाई में कई लाख गुने का अंतर पैदा हो चुका है। मुल्क की अस्सी फीसदी आबादी रोज बीस रुपये से नीचे गुजर करती है या नहीं, यही सबसे प्रमुख आर्थिक बहस है और इसे नहीं मानने वाले भी आमदनी को 28 रुपये से ऊपर नहीं ले जा पाए हैं। आमदनी का रिश्ता पेट भरने, स्वस्थ रहने, बाल बच्चों का पेट भरने से लेकर पढ़ाई का इंतजाम करने और न्यूनतम दूसरी जरूरतें पूरी करने से तो है, पर उससे ज्यादा खतरनाक है पैसों के जोर पर बराबरी की व्यवस्था को लांघ जाना। जिसके पास पैसा है आज उसके लिए बराबरी के सिद्धांत का ही नहीं, किसी भी कानून का कोई मतलब नहीं रह गया है। आज पैसों से सिर्फ अच्छा खाना, अच्छा पहनना, अच्छा मकान, अच्छा व्यवहार भर नहीं रह गया है।


एक तो इन चीजों का खर्च और इनकी भूख की कोई सीमा नहीं है और दूसरे पैसा से सिर्फ यही नहीं होता। आज पैसा आपको सबसे अच्छा इलाज और शिक्षा के साथ-साथ सबसे बढि़या काम दिला सकता है, सबसे प्रतिभाशाली लोगों को आपकी सेवा में लगा सकता है, सबसे रचनात्मक प्रतिभा को खरीद सकता है, किसी मुकदमे में जीतने लायक वकील दिला सकता है, हर काम कराने लायक घूस देने की ताकत दे सकता है और एपी-एमएलए सब कुछ बनवा सकता है. जिन कानूनों और उनकी सर्वोच्चता का दावा करके हम अपने संविधान को, अपनी आजादी को सबसे अच्छी बताते हैं उसे बनाने, चलाने और उससे बचने का काफी कुछ अधिकार इस बढ़ती जा रही गैर-बराबरी ने पैसे वालों के हाथ में दे दिया है। भ्रष्टाचार हो या महंगाई ये सभी इस गैर-बराबरी से जुडे़ हुए हैं। गरीबी दूर होने और मुल्क की समृद्धि की रफ्तार चाहे जो हो और इन पर जितनी बहस हो, अमीरों की अमीरी के बेतहाशा बढ़ने पर कोई बहस नहीं हो सकती। और अगर पैसठ साल की आजादी ने ये दो परस्पर भिन्न प्रवृत्तियों को जन्म दिया है और मजबूती दी है तो यह देखना भी दिलचस्प होगा कि ठोस उपलब्धियां और विफलताएं क्या रही हैं? इस बीच अगर सकल घरेलू उत्पादन 430 गुना बढ़ा है तो परिवर्तित कीमतों पर इसे पंद्रह गुना भी नहीं माना जाता।


आज भी मुल्क में 1947 से ज्यादा निरक्षर और कुपोषित लोग हैं। कई ऐसी बीमारियों से पीडि़त लोगों की संख्या में भी हम अव्वल हैं जिनका इलाज सचमुच कुछ रुपयों के खर्च में हो जाता है। हमारी औरतों में रक्तल्पता सबसे अधिक है। पीने का शुद्ध पानी, शौचालय का इंतजाम और स्कूल से वंचित बच्चों के आंकड़े तो डिप्रेशन पैदा करने लायक हैं। अगर कोई संवेदनशील ढंग से सोचे तो 15 अगस्त का दिन ऐसा करने वाला अवसर हो सकता है, क्योंकि आजादी दिलाने वालों की कुर्बानियां ऐसे ही लोगों के आंसू पोछने के लिए थीं, ऐसी ही लूट रोकने के लिए थीं।


लेखक अरविन्द मोहन वरिष्ठ पत्रकार हैं

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