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बिहार के मुख्यमंत्री और जदयू नेता नीतीश कुमार ने अब यह पूरी तरह साफ कर दिया है यदि नरेंद्र मोदी को भाजपा अगले आम चुनाव में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश करती है तो वह राजग से अलग हो जाएंगे और उन्हें कांग्रेस के साथ गठबंधन करने में भी संकोच नहीं होगा। यद्यपि नीतीश कुमार ने बाद में ऐसी कोई बात कहने से इन्कार किया है, लेकिन हर कोई यह महसूस कर रहा है कि मोदी के मामले में यही जदयू की राजनीतिक लाइन है। राजनीति में यह बात खासकर कही जाती है कि यदि आपका विरोध बढ़ रहा है तो यह इस बात का प्रमाण है कि आपकी ताकत बढ़ रही है। विशेषकर पिछले एक साल से यानी जब से भारत में भ्रष्टाचार के विरोध में तथाकथित जन आंदोलन की शुरुआत हुई तब से शक्ति का यह सिद्धांत गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ कुछ ज्यादा ही लागू हो गया है। बात सोचने की है कि क्या आजादी के बाद से आज तक किसी भी पार्टी का कोई भी मुख्यमंत्री भावी प्रधानमंत्री के कयास के केंद्र में इस कदर रहा है जैसे कि मोदी रह रहे हैं? आखिर इसके पीछे कोई तो अप्रत्यक्ष शक्ति या लोगों के अवचेतन में बसी भविष्य के प्रधानमंत्री की तस्वीर काम रही होगी। भ्रष्टाचार के लगातार खुलते जा रहे पैंडोरा बाक्स ने देश के जनमन को फिलहाल जितना भयभीत कर रखा है उतना वह पहले कभी नहीं रही।
अन्ना हजारे और रामदेव की मुहिमों का निष्कर्ष चाहे जो भी निकले, लेकिन इतना जो जरूर है कि उसने मूक जनभावनाओं को एक आवाज तो दी ही। यह कुछ वैसा ही हुआ, जैसा कि 1989 में बोफोर्स कांड के बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में हुआ था। फर्क केवल यह है कि उस समय भ्रष्टाचार के जन आक्रोश का नेतृत्व एक राजनीतिक नेता द्वारा किया गया, जिसने उन्हें प्रधानमंत्री बना दिया तो इस बार सिविल सोसायटी के नेताओं द्वारा किया गया। इसलिए इस बार जब भी भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन के राजनीतिक नेतृत्व की बात आती है तो पूरे देश का ध्यान अपने आप ही गुजरात के मुख्यमंत्री की ओर चला जाता है। संतोष की बात यह है कि इस ध्यान ने लोगों की वैचारिक मेड़ों का भी अतिक्रमण कर दिया। यह लोक की इच्छा तब थी, आज भी है और शायद 2014 तक रहेगी, बावजूद इसके कि लोगों को अभी गुजरात दंगों की याद है, लेकिन तब से लेकर आज तक न जाने कितने गैलन पानी साबरमती में बह चुका है। व्यक्ति की धारणा बदलती है और तब तो और भी बदल जाती है, जब उसके कंधे पर जिम्मेदारी का बोझ रख दिया जाता है।
दरअसल मोदी के विरोध की शुरुआत तभी से होनी शुरू हुई जब राजनेताओं को सामाजिक स्तर पर इसके संकेत मिलने की भनक मिली। इस विरोध का नेतृत्व किया बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने, जो भ्रष्टाचार विरोधी अपने कदमों के लिए बहुत जल्दी ही राष्ट्रीय स्तर पर जाने जाने लगे। उन्होंने मोदी के समस्त सकारात्मक बिंदुओं को केवल इस एक बिंदु के आधार पर खारिज कर दिया कि वह सांप्रदायिक हैं। निश्चित रूप से यह मोदी को बहुत भारी पड़ने वाला विरोध है, क्योंकि भले ही यह आवाज नीतीश कुमार की हो, लेकिन इस आवाज में गठबंधन में शामिल उन अनेक पार्टियों की फुसफुसाहटें भी शामिल हैं जो जनता के सामने स्वयं को सेक्युलर दिखाना चाहती हैं। लालकृष्ण आडवाणी ने यह कहकर एक प्रकार से मोदी के विरोध को तेज एवं उनकेप्रभाव को निस्तेज कर दिया कि अगला प्रधानमंत्री न तो कांग्रेस का होगा और न ही भाजपा का। जाहिर है कि वह या तो राजग में शामिल किसी दल का होगा, जैसे कि नीतीश कुमार या फिर तीसरे मोर्चे से कोई होगा। आडवाणी के इस आकलन की आसानी से अनदेखी नहीं की जानी चाहिए, लेकिन कुछ राजनीतिक विश्लेषण इसमें सच्चाई कम, अंगूर खट्टे हैं की भावना को अधिक देख रहे हैं। आडवाणी और नीतीश कुमार के बाद मोदी के खिलाफ तीसरा मोर्चा उनके अपने ही राज्य के और अपनी ही पार्टी के बुजुर्ग नेता पूर्व मुख्यमंत्री केशूभाई पटेल ने खोल दिया है। उनका उद्देश्य अपनी सरकार बनाना कम, मोदी की सरकार न बनने देना ज्यादा है। इसी साल गुजरात में चुनाव होने हैं और जाहिर है कि यदि मोदी को अपने ही राज्य में शिकस्त मिल जाती है तो फिर राष्ट्रीय स्तर के सपने की हत्या भू्रण के स्तर पर ही हो जाएगी। अन्ना हजारे के आंदोलन के दयनीय पतन से भी मोदी को थोड़ा धक्का तो लगेगा ही, क्योंकि यही वह टीम थी जिनके वक्तव्य भ्रष्टाचार के पौधे को मुरझाने नहीं देते थे और इस पौधे की चमक मोदी के चेहरे पर प्रतिबिंबित होती थी।
राजनीतिक दृष्टि से भले ही यह बात सही न हो, लेकिन सामाजिक और नैतिक दृष्टि से तो ऐसा ही था। खैरियत है कि फिलहाल भ्रष्टाचार विरोध की इस धारा को न सूखने देने की जिम्मेदारी रामदेव ने अपने ऊपर ले ली है। अब अन्ना हजारे एक राजनीतिक पार्टी बनाएंगे-एक ऐसी राजनीतिक पार्टी, जो भ्रष्टाचार के विरोध में होगी। लेकिन क्या उनकी इस राजनीतिक पार्टी से कोई सीधा सरोकार उन राजनेताओं का होगा जो अपनी साफ-सुथरी छवि के लिए जनता के बीच जाने जाते हैं, जैसे कि नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार तथा अन्य राजनीतिक दलों के कुछ अन्य नेता भी। क्या इस देश में भ्रष्टाचार विरोधी समस्त राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक शक्तियों का ध्रुवीकरण हो सकेगा, ताकि एक नए भारत की तस्वीर उभर सके? मोदी राजनीतिक तरीके से इसका नेतृत्व कर रहे हैं। यदि उन्हें भविष्य में राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक दृष्टि से इसका व्यापक रूप में नेतृत्व करने का अवसर नहीं मिल पाया तो क्या वह उसके परे जाकर कुछ ऐसा करेंगे ताकि वह हो सके जो वे स्वयं चाहते हैं यानी भ्रष्टाचार मुक्त उन्नत भारत?
लेखक पूर्व प्रशासनिक अधिकारी हैं
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