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प्राकृतिक संसाधनों की खुली बंदरबांट, कुछ भी करने को तैयार निजी क्षेत्र और एक-एक कंपनी के टर्नओवर के बराबर संपत्ति वाले राजनेता। अगर यह सब देखकर आर्थिक उदारीकरण को बिसूरने का मन करता है तो आप गलत नहीं हैं। गुलाम अतीत, राजनीति से बोझिल व्यवस्था, लचर कानून, जरूरी सुविधाओं की कमी और जबर्दस्त अवसरों वाले समाज में उदारीकरण शायद ऐसी ही आफत लाता है। प्राकृतिक संसाधन किसी भी देश की तरक्की की बुनियाद होते हैं, लेकिन संसाधनों को संभालने वाले कानून अगर बोदे हों और निगहबान भ्रष्ट तो खुला बाजार दरअसल खुली लूट बन जाता है। संवैधानिक संस्थाओं का शुक्रगुजार होना चाहिए कि वे हमें हमारे आर्थिक खुलेपन का बदसूरत चेहरा दिखा रही हैं। सीएजी की रिपोर्टे भारत के उदारीकरण की सबसे दो टूक समीक्षा हैं। भारत के सभी बडे़ घोटाले 1997 के बाद के हैं। उदारीकरण के पहले छह वर्षो में बाजार के खिलाड़ी यह समझ गए थे कि इस बाजार में कहां कैसे क्या हो सकता है। इसलिए सभी घोटाले पिछले एक दशक के हैं, जब उदारीकरण अपने चरम पर था। इनमें भी सबसे ज्यादा लूट प्राकृतिक संसाधनों की है। खदान, खनिज, जमीन, स्पेक्ट्रम आर्थिक विकास की बुनियादी जरूरत हैं। श्रम और पूंजी देश से बाहर से ला सकते हैं, मगर प्राकृतिक संसाधनों का आयात नहीं हो सकता। इसलिए पूंजी सबसे पहले इनके पीछे दौड़ती है ताकि इन्हें लेकर बाजार में बढ़त हासिल की जा सके। समझदार सरकारें देश के प्राकृतिक संसाधनों को बाजार के साथ बड़ी चतुराई से बांटती हैं।
संसाधनों की वाणिज्यिक कीमत का तथ्यात्मक व शोधपरक आकलन होता है। भविष्य की संभावनाओं का पूरा गुणा भाग करते हुए यह आंका जाता है कि कितने संसाधन विकास के लिए जरूरी हैं और कितने बाजार के लिए। इनके आधार पर सरकारें बाजार से इसकी सही कीमत कीमत तय करती हैं और बाजार से वह कीमत वसूली जाती है, क्योंकि बाजार इनके इस्तेमाल की कीमत उपभोक्ता से लेता है। प्राकृतिक संसाधन, बाजार और पूंजी का ग्लोबल रिश्ता उदारीकरण के साथ जब भारत पहुंचा तो यहां एक अनोखा शून्य था। बाजार खोलने के बाद सरकारें प्राकृतिक संसाधनों के बंटवारे के आधुनिक-पारदर्शी कानून बनाना भूल गईं। इसलिए प्राकृतिक संसाधनों का कारोबारी इस्तेमाल घोटालों की महागाथा में बदल गया। दिल्ली का हवाई अड्डा बनाने वाली जीएमआर डायल को 24 हजार करोड़ रुपये की करीब पांच हजार एकड़ जमीन केवल सौ रुपये की सालाना लीज पर इसलिए मिल गई, क्योंकि निजी क्षेत्र की भागीदारी से बनने वाली परियोजनाओं में भूमि की कीमत तय करने का पारदर्शी पैमाना ही नहीं है। भारत में स्पेक्ट्रम कभी कौडि़यों तो कभी बहुत महंगा इसलिए बिका, क्योंकि इस कीमती संसाधन को बांटने की नीति ही नहीं बनी। कंपनियों को मनमाने ढंग से कोयला खदानें इसलिए दे दी गईं, क्योंकि सरकार खदानों के पारदर्शी आवंटन की नीति ही नहीं बना सकी।
जमीन की जमाखोरी भारत का ब्रांड न्यू् आर्थिक अपराध है। जमीन हर जगह पहली जरूरत है, लेकिन भारत सेटेलाइट जमाने में भू संसाधन को ब्रितानी कानूनों के जरिये संभाल रहा है। अदालतों ने जमीन के सरकारी अधिग्रहण को खारिज कर दिया तो पूरी नीति ही सर के बल खड़ी हो गई। अब पैसा लगाने वाले निवेशकों से लेकर कर्ज के जरिये मकान लेने वाले मध्यमवर्गीय लोगों तक सभी बीच में राह खड़े नई नीति का इंतजार कर रहे हैं। भारत राजनीति व नौकरशाही के विवेकाधिकारों का अभयारण्य है। जिन फैसलों के लिए पारदर्शी नीतियां होनी चाहिए उनके लिए पहले आओ पहले पाओ के आधार पर फैसले होते हैं। कानूनों के बनने में देरी या उनका लंबे समय लटके रहना आदत नहीं है, बल्कि शायद बांटने और कमाने की इस ताकत को बनाये रखने के षड्यंत्र का हिस्सा है। अध्ययनों में ब्राजील, भारत, रूस, चीन आदि भ्रष्टतम देशों के चैंपियन हैं। इन देशों ने बीते दो-तीन दशकों में अपने बाजार खोले हैं। कुछ साल पहले अमेरिका के रोचेस्टर इंस्टीट्यूट ने उदारीकरण और भ्रष्टाचार पर अध्ययन में पाया था कि जिन देशों में लोकतंत्र पहले और आर्थिक उदारीकरण बाद में आया है वहां मुक्त बाजार ने भ्रष्टाचार को नए आयाम दे दिए हैं। उदारीकरण अनंत अवसरों, नियंत्रणों से मुक्ति और पैसे की आंधी लेकर आता है, जिसके सामने लोकतंत्रों के कमजोर व पुराने कानून अक्सर हार जाते हैं। खुली अर्थव्यवस्थाओं में भ्रष्टाचार के लिए ज्यादा खुराक उपलब्ध है। एक कंपनी को शून्य से सौ करोड़ रुपये के कारोबार तक पहुंचने में पता नहीं कितने लोग, कितनी तकनीक, कितना निवेश जोड़ना पड़ता है और ऐसा करते हुए कंपनी के प्रवर्तकों की आधी जिंदगी गुजर जाती है। अलबत्ता भारत में एक राजनेता कोई उत्पादक निवेश किए बगैर पांच साल में शून्य से सौ करोड़ की घोषित संपत्ति का मालिक हो जाता है।
भारत में सियासत का मतलब ही है कुछ लेने या देने का अनोखा विशेषाधिकार। हम मुक्त बाजार की विकृतियों को संभाल नहीं पा रहे हैं। सातवें-आठवें दशक के नेता अपराधी गठजोड़ की जगह अब नेता-कंपनी गठजोड़ ले ली है। यह जोड़ी ज्यादा चालाक, आधुनिक, रणनीतिक, बेफिक्र और सुरक्षित है। मुक्त बाजार में ताली दोनों हाथ (लेने और देने) से बज रही है। उदारीकरण, भ्रष्टाचार और प्राकृतिक संसाधनों से जुड़े कानूनों की कमजोरी ने मिलकर ऐसी अराजकता रच दी है कि हर उस क्षेत्र में जहां हमें प्रगति मिली है, वहीं लूट की वीभत्स कथाएं भी खुल गई हैं। प्राकृतिक संसाधनों के बंटवारे के कानून बदले बिना यह अराजकता नहीं रुकेगी।
लेखक दैनिक जागरण के राष्ट्रीय ब्यूरो प्रमुख हैं
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