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जिस हाथ में सत्ता को समेट कर रखने तथा जनहित में उसका उपयोग करने का आंतरिक बल न बचा हो उसे स्वयं ही हट जाना चाहिए। अपनी समस्त कमियों के बावजूद हमारे शासन की जनतांत्रिक व्यवस्था बाकी सभी विकल्पों से श्रेष्ठ मानी गई है, किंतु आज स्थिति बदल रही है। भारत का शासन जनता के चुने नेता के हाथ में नहीं है। मनमोहन सिंह ने जनता के दरबार में केवल एक लोकसभा चुनाव लड़ा और हार गए। दोबारा साहस नहीं कर सके। वह राज्यसभा में असम के निवासी होने का प्रमाण देकर आए। समाज में किसी न किसी रूप में नैतिकता सदा ही बनी रहती है। आम चुनावों में मात्र करीब दस करोड़ मत प्राप्त करने वाली कांग्रेस जब यह घोषणा करती है कि जनता ने उसे ही चुना है, तब फिर नैतिकता का संकट खड़ा हो जाता है। फिर गठबंधन की बात। राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, लोकसभा अध्यक्ष, राज्यसभा के उपसभापति सब उसी एक दल के। बाकी को तीन-चार सबसे महत्वपूर्ण मंत्रालयों को छोड़कर मनपसंद मंत्रालय सौंप दिए गए। मलाईदार महकमों की विशेष मांग है। द्रमुक को लगातार टेलीकॉम चाहिए। रांकापा को उड्यन ही चाहिए, ममता को रेल ही चाहिए। अगर सरकार चलानी है तो मानना ही पड़ेगा। क्या इंदिरा गांधी ऐसा करतीं? मनमोहन ने सब स्वीकारा। हर बड़े मसले पर वह चुप ही रहे। उनकी दृढ़ता केवल परमाणु करार बिल पर दिखी। ऐसा लगा जैसे भारत के शासन पर विदेशी कंपनियों के हित साधन का भारी दबाव सरकार झेल रही है। वैसे इसमें संशय पहले भी नहीं था। बांग्लादेशी घुसपैठ, कश्मीरी पंडितों की पुनस्र्थापना, नक्सलवाद जैसे विषयों पर सरकार ने कुछ नहीं किया।
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प्रधानमंत्री ए. राजा को लगातार ईमानदारी का प्रमाणपत्र देते रहे। सर्वोच्च न्यायालय की फटकार के बाद सरकार हरकत में आई, राजा जेल गए और जब लौटे तो उनके राज्य में केंद्र सरकार में शामिल दल ने ढोल-नगाड़ों से उनका स्वागत किया। कोई आश्चर्य नहीं होगा कि राजा फिर बहाल हो जाएं और अपना प्रिय विभाग पा जाएं। प्रधानमंत्री का स्वभाव ही वीतरागी का है। यदि ऐसा न होता तो आंध्र प्रदेश में पांच-छह वर्ष तक गैरकानूनी खनन के सिलसिले पर मौन न रहा जाता। वाइएसआर और उनके बेटे जगनमोहन रेड्डी की संपत्ति में अप्रत्याशित बढ़ोतरी की भनक क्यों नहीं लगी? आज सारा सरकारी तंत्र जगनमोहन रेड्डी के पीछे पड़ा है और जनता उन्हें सर आंखों पर बिठाने को उत्सुक है। जगनमोहन जब तक कांग्रेस के साथ थे, उनकी आमदनी वैध थी। उनके तेवर जैसे ही बदले वे अस्वीकार्य हो गए, अपराधी हो गए। प्रजातंत्र में उसे शीर्ष स्थान पर नेतृत्व की अक्षमता का उदाहरण ही माना जाएगा, क्योंकि यह इतनी छोटी घटना नहीं है जिसकी जानकारी प्रधानमंत्री को न हो। और यदि नहीं है तो इससे अक्षमता का परिमाण और बढ़ता है। ऐसा ही अब बाबा रामदेव के साथ हो रहा है। साल भर पहले भारत की मिनी कैबिनेट ने हवाई अड्डे पर उनका स्वागत किया। फिर सरकार ने उन पर आधी रात को सरकारी आक्रमण देखा। अन्ना का तिहाड़ जाना भी देश ने देखा और संसद में प्रधानमंत्री केमुख से उनकी तारीफ भी सुनी।
अन्ना का आंदोलन बिखर गया- उनकी अब भंग टीम के व्यक्तिगत स्वार्थो एवं अहं के कारण। सरकार प्रसन्न थी, मगर बाबा रामदेव ने साल भर बाद फिर दिल्ली आकर सरकार की नींद उड़ा दी। जब विचारवान व्यक्तियों, विचारों तथा विकल्पों का अकाल पड़ जाता है तब नौकरशाहों की चांदी हो जाती है। भारत सरकार ने रामदेव पर जगनमोहन रेड्डी फार्मूला लगा दिया। जो रामदेव पालम हवाई अड्डे पर मंत्रियों से आदर-सम्मान पा रहे थे, आज सरकार के विभिन्न विभागों से नोटिस पा रहे हैं। आचार्य बालकृष्ण फर्जी पासपोर्ट के आरोप में एक महीने जेल में रहकर आए-गोपाल कांडा को पुलिस हफ्तों ढूंढ़ती रही। सरकार जानती है कि अपने आयुर्वेदिक उत्पादों तथा उनकी सारे देश में उपलब्धता बढ़ाने के कारण रामदेव के विरोध में मल्टीनेशनल कंपनियां पूरे दल-बल के साथ खड़ी हैं। रामदेव प्रतिष्ठानों से वे आशंकित हैं और सरकार भी अब उन्हीं के साथ खड़ी हो गई है। यह प्रश्न तो पूछा ही जा सकता है कि अभी तक सब यदि पाक-साफ था तो सरकार को अचानक गड़बड़ी कैसे दिख गई? सच तो अब जनता देख रही है।
कपिल सिब्बल को 2जी में जीरो-लॉस दिखाई दिया। अब जब कोयला-घोटाला सामने आया है तो एक और जीरो-लॉस मिनिस्टर प्रकट हो गए हैं-श्रीप्रकाश जायसवाल! इन्हें भी वही दिखाई देता है जो सिब्बल को दिखाई देता है। सरकार को पूरे मामले में कहीं कोई कमी नहीं दिखाई देती है। उसे यह दिखाई नहीं देता है कि प्रशासनिक अक्षमता के कारण उत्तर-पूर्व के लोग कष्ट झेल रहे हैं। पूरा देश और खासतौर पर उत्तरपूर्व के सातों राज्य बांग्लादेशी घुसपैठियों के अनियंत्रित तथा प्रायोजित प्रवाह के कारण कई दशकों से त्रस्त हैं। अब कहा जा रहा है कि अफवाहें पाकिस्तान से फैलाई गई हैं। पाकिस्तान को यह सरकार अनगिनत बार सुबूत सौंपती रहती है। पाकिस्तान इन्हें हंसी में उड़ाता रहता है। कितनी शालीन सरकार है भारत की कि वह फिर सुबूतों का नया बंडल तैयार करने में लग जाती है और कसाब, अबू जिंदाल, अफजल आदि का पूरा ख्याल रखती है। जब सरकार की साख धूल धूसरित हो जाए, आतंकवाद लगातार बढ़े, अक्षमता हर ओर छा जाए, लोग कहने लगें कि भारत सरकार क्यों इतनी निरीह है, तब प्रधानमंत्री का क्या फर्ज बनता है? यह समय सच को स्वीकारने का है। जनता को नया निर्णय लेने को कहिए और इस अकर्मण्यता से देश को और आहत न करिए।
लेखक एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक हैं
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