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खतरे में देश की आंतरिक सुरक्षा

जागरण मेहमान कोना
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कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र सहित देश के विभिन्न राज्यों में पूर्वोत्तर के हजारों लोग रहते हैं। इनमें छात्र, व्यवसायी और छोटे-मोटे काम धंधे करने वाले लोगों की संख्या बहुतायत है। उपद्रवी तत्वों ने इन्हें मोबाइल के जरिये संदेश भेजा कि वे तत्काल राज्य छोड़ दें। अन्यथा, रमजान बाद उनकी हत्या कर दी जाएगी। इस धमकी से पूर्वोत्तर के लोगों में दहशत अभी भी व्याप्त है और वे अपने घरों की ओर मुड़ गए हैं। केंद्र व राज्य सरकारें इस धमकी को अफवाह बताकर उस पर ध्यान न देने की अपील कर चुकी हैं, लेकिन उनके मन में पसरा खौफ नहीं जा रहा है। इसमें कोई शक नहीं कि यह धमकी सिर्फ अफवाह भर ही है, लेकिन उपद्रवी तत्वों के मंसूबे जरूर पूरे हो गए हैं। चिंता की बात यह है कि केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा सुरक्षा का आश्वासन दिए जाने के बाद भी वे यहां रुकने को तैयार नहीं हैं। क्या वजह है कि केंद्र और राज्य सरकारें लंपट तत्वों पर लगाम लगाने में अक्षम हैं? ऐसे ढेरों सवाल हैं, जिसे लेकर पूर्वोत्तरवासी व्यथित हैं। देश भी हतप्रभ और निराश है। हाल के दिनों में बेंगलूर, पुणे और हैदराबाद में रेल स्टेशनों पर भारी भीड़ पूर्वोत्तरवासियों की बेचैनी और घबराहट को बयां करती है। इन लोगों का पलायन इस बात का संकेत है कि देश में कट्टरपंथी ताकतें मजबूत हुई हैं और सरकार उन पर नकेल कसने में विफल साबित हुई है। आज उसी का दुष्परिणाम है कि देश में भय का माहौल है और लोग असुरक्षित महसूस कर रहे हैं।


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पूर्वोत्तर के लोगों का पलायन सिर्फ उनके खौफ को ही रेखांकित नहीं करता है, बल्कि देश की बिगड़ती कानून-व्यवस्था और नाकाम आंतरिक सुरक्षा की ओर भी इशारा करता है। यह बिल्कुल सामान्य बात नहीं है कि देश का कोई भी आमजन किसी हिस्से में अपने को असुरक्षित महसूस करे और अराजक तत्व उसे डराकर भगा दें। अगर पूर्वोत्तर के लोगों का केंद्र और राज्य सरकारों के आश्वासन पर भरोसा नहीं है और वे पलायन में ही अपनी सुरक्षा महसूस कर रहे हैं तो निश्चय ही यह केंद्र व राज्य सरकारों के लिए शर्म का विषय है। पूर्वोत्तर देश का संवेदनशील हिस्सा है। यहां के लोगों की सुरक्षा प्राथमिकता में होनी चाहिए। वर्तमान घटना असहज करने वाली है। उसका असर पूर्वोत्तर के लोगों के मन-मस्तिष्क पर पड़ सकता है। यह असहज करने वाली स्थिति पूर्वोत्तर राज्यों और वहां के निवासियों के लिए ठीक नहीं है। राष्ट्र की एकता-अखंडता के लिए भी अशुभ है। बड़ा सवाल यह है कि आखिर वे कौन लोग हैं, जो पूर्वोत्तरवासियों के मन में खौफ पैदा कर अपने मंसूबों को अंजाम दे रहे हैं? वे कौन लोग हैं, जो देश में भय का वातावरण पैदा कर राष्ट्रीय एकता और अखंडता को चुनौती दे रहे हैं? सवाल यह भी है कि केंद्र और राज्य सरकारें उन उपद्रवी तत्वों के प्रति नरम क्यों है, जो असम हिंसा के संदर्भ में भड़काऊ बयान देकर देश में सांप्रदायिक हिंसा फैलाने की कोशिश कर रहे हैं? पिछले दिनों संसद में असम मसले पर चर्चा के दौरान जिस तरह एक अल्पसंख्यक सांसद द्वारा प्रतिक्रिया की बात कही गई और यह प्रचारित किया गया कि असम हिंसा में एक खास समुदाय के लोगों को निशाना बनाया जा रहा है और शरणार्थी शिविरों में उनके साथ भेदभाव हो रहा है, वह संदेश देश में अच्छा नहीं गया। इस तरह की अराजक भाषा से देश का माहौल बिगड़ा है।


कट्टरपंथियों को लोगों को भड़काने का मौका मिला है। पिछले दिनों जमशेदपुर, रांची और पुणे में उनकी कारस्तानी देखी गई। मुंबई का आजाद मैदान तो लहूलुहान हो उठा। इस बात की जांच होनी चाहिए कि पूर्वोत्तर के लोगों के खिलाफ धमकी भरे संदेश के पीछे कहीं उन्हीं तत्वों का हाथ तो नहीं, जिन्होंने आजाद मैदान में हिंसा को जन्म दिया? कहीं वही लोग तो नहीं, जिन्होंने असम हिंसा के संदर्भ में मोबाइल फोन के जरिये फर्जी वीडियो क्लिप्स प्रेषित कर देश का माहौल खराब करने की कोशिश की? इनकी संलिप्तता से इसलिए इन्कार नहीं किया जा सकता कि इन घटनाओं के तार आपस में जुड़ते नजर आ रहे हैं, लेकिन दुर्भाग्य है कि केंद्र और राज्य सरकारें मोबाइल और इंटरनेट के जरिये फैलाई जा रही हिंसा पर रोक लगाने में नाकाम साबित हो रही हैं। विडंबना यह भी है कि नफरतगारों के खिलाफ ठोस कार्रवाई के बजाय केंद्र सरकार सियासत कर रही है। अचरज लगता है कि कर्नाटक में हिंसा की एक भी वारदात नहीं हुई, लेकिन देश के प्रधानमंत्री ने कर्नाटक सरकार से बात करना जरूरी समझा। जबकि पुणे में पूर्वोत्तर के छात्रों को निशाना बनाए जाने पर उन्होंने महाराष्ट्र सरकार से बात करने की जरूरत भी महसूस नहीं की।


अभिजीत मोहन हैं


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