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व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा का प्रदर्शन

जागरण मेहमान कोना
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भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के सूत्रधार अन्ना हजारे के साथियों के बीच मतभेद गहराने लगे हैं। व्यवस्था परिवर्तन को अंजाम देने की दिशा क्या हो, इसे लेकर सहयोगियों के बीच घमासान तेज हो गया है। अन्ना के प्रमुख सहयोगी केजरीवाल जहां कांग्रेस और भाजपा दोनों को भ्रष्टाचार के लिए बराबर का जिम्मेदार मानते हुए उन पर हमला बोल रहे हैं, वहीं उनकी प्रमुख सहयोगी किरण बेदी उनसे सहमत नहीं हैं। वह 26 अगस्त को केजरीवाल की अगुवाई में नेताओं के घेराव कार्यक्रम से भी दूर रहीं। वजह साफ है। किरण नहीं चाहती थी कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी की भी घेराबंदी हो। उनका मानना था कि ऐसी अव्यावहारिक रणनीति से आंदोलन की धार कुंद होगी। उन्होंने स्पष्ट कहा भी कि जिस विपक्षी पार्टी ने जनलोकपाल बिल पर अन्ना के आंदोलन को हर संभव समर्थन दिया, उसे लक्ष्य करना ठीक नहीं। बावजूद इसके केजरीवाल उनकी राय से सहमत नहीं दिखे। रविवार के घेराव के तुरंत बाद उन्होंने कहा भी कि किरण को भाजपा के सत्ता में आने पर भ्रष्टाचार पर लगाम लगने का भरोसा हो सकता है, लेकिन उन्हें नहीं है। आने वाले समय में दोनों के बीच जुबानी जंग और तेज हो सकती है।


अब सवाल यह उठता है कि हर मसले पर समवेत स्वर में हुंकार भरने वाले सहयोगियों के बीच भ्रष्टाचार की परिधि को लेकर एक राय क्यों नहीं बन पा रही है? क्या वजह है कि अन्ना के सहयोगी अलग-अलग सुर अलाप रहे हैं? क्या यह माना जाए कि अन्ना की अपने सहयोगियों पर पकड़ ढीली पड़ रही है या सयहोगियों के बीच उत्तराधिकार को लेकर छटपटाहट बढ़ गई है? जिस दिन टीम अन्ना का आंदोलन खत्म हुआ और राजनीतिक दल बनाने का संकेत दिया गया, उसी दिन से अन्ना नेपथ्य में जाते दिखने लगे हैं। आमतौर पर सुना भी गया कि अन्ना राजनीतिक दल बनाने के इच्छुक नहीं हैं। वे अहिंसात्मक आंदोलन के सहारे ही भ्रष्टाचार को खत्म करना चाहते हैं। लेकिन उनके प्रबल सहयोगी केजरीवाल लगातार मुनादी पीट रहे हैं कि अन्ना राजनीतिक दल बनाने के पक्षधर हैं। सच जो भी हो लेकिन किरण बेदी और कुमार विश्वास भी इससे सहमत नहीं हैं। अब सवाल यह उठता है कि क्या केजरीवाल अन्ना के नेपथ्य में जाने के बाद आंदोलन का चेहरा बनाने की कोशिश कर रहे हैं? इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। रविवार को उन्होंने हजारों समर्थकों के साथ सड़क पर उतरकर अपनी दावेदारी पेश भी कर दी है।


समर्थक मैं अन्ना हूं की टोपी की तर्ज पर मैं अरविंद हूं टोपी लगाए दिखे। हालांकि केजरीवाल और उनके साथियों ने इस पर ऐतराज जताया। उन्होंने कहा भी कि उनकी लड़ाई के नेता अन्ना ही हैं। मीडिया में भी बहस जोर पकड़ रही है कि क्या केजरीवाल आंदोलन को हाइजैक करना चाहते हैं? मजे की बात यह कि घेराव कार्यक्रम के तत्काल बाद ही उत्साहित केजरीवाल यह कहते सुने गए कि आंदोलन और राजनीति एक साथ कैसे होती है, इसे उन्होंने दिखा दिया। यानी इस घेराव की सफलता का श्रेय उन्होंने खुद ले लिया। सवाल जस का तस बना हुआ है। वह यह कि क्या केजरीवाल देश को एक नया राजनीतिक विकल्प दे पाएंगे? क्या जनता अन्ना की तरह उन पर भरोसा करेगी? क्या सबको साथ लेकर चलने की उनमें क्षमता है? अन्ना का मुखौटा लगाना अलग बात है और अन्ना होना अलग। केजरीवाल के अडि़यल रुख को देखकर इस निष्कर्ष पर पहुंचना भी मुश्किल है कि वे सबको साथ लेकर चल पाएंगे। उनकी हठधर्मिता की वजह से पहले भी कई सहयोगी साथ छोड़ चुके हैं। कालेधन के खिलाफ आंदोलन कर रहे स्वामी रामदेव जब अन्ना के करीब आए तो लगा कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग तेज होगी। सरकार भी डरी दिखी, लेकिन केजरीवाल की रामदेव के प्रति बेरुखी ने आंदोलन की धार कम करने का ही काम किया। अब तो भंग हो चुकी टीम अन्ना में भी वैचारिक टकराव बढ़ने लगा है। ऐसे में कई तरह के सवाल उठने लाजिमी हैं। मसलन, क्या केजरीवाल ऐसे लोगों को अन्ना से दूर करने की कोशिश कर रहे हैं, जिससे उनके विचार नहीं मिलते? केजरीवाल ने किरण बेदी के सुझाव को खारिज कर इसकी पुष्टि कर दी है। केजरीवाल का यह रवैया आंदोलन और लोकतंत्र के लिए सही नहीं है। जहां तक भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई का सवाल है तो केजरीवाल ने संप्रग सरकार के साथ भाजपा पर निशाना साधकर अपने उत्तराधिकार के दावेदारी को मजबूत किया है, न कि भ्रष्टाचार के खिलाफ मजबूत दांव चला है।


अभिजीत मोहन स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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