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अपने देश में यह सिलसिला आजादी से ही चला आ रहा है कि किसी चीज की नीलामी करने की बजाय उसे सत्तारूढ़ पार्टियां अपनी इच्छा से मनमाने दामों पर अपनी पसंद के लोगों या कंपनियों को आवंटित कर देती हैं। यह काम केंद्र में भी होता है और राज्यों में भी। कोई ऐसी सियासी पार्टी नहीं है, जिसने यह काम न किया हो या न कर रही हो। इस तरह से किसी चीज का आवंटन करने में यह शक बराबर बना रहता है कि आवंटन अपने चहेतों को या घूस लेकर किया गया। जाहिर है, अगर खुली नीलामी में बोली लगकर आवंटन हो तो चीजें ज्यादा दामों पर जाएं और सरकारी खजाने में सेंध भी न लगे। चूंकि अपनी इच्छा से आवंटन के नुकसान सामने आनेलगे, तो आवंटन में नीलामी की नीति बनाई जाने लगी। स्पेक्ट्रम घोटाले के सामने आने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि स्पेक्ट्रम लाइसेंस नीलामी के जरिये आवंटित किए जाएंगे। कोयला खदानों के आवंटन में भी नीलामी की नीति अपनाने का फैसला किया गया, लेकिन इसे न केंद्र ने लागू किया और न ही राज्य सरकारों ने। इसलिए कैग ने अपनी रिपोर्ट में यह अनुमान लगाया है कि अगर कोल-ब्लॉक का खुली नीलामी के जरिये आवंटन किया जाता तो राजकीय कोष को 1.86 लाख करोड़ रुपये का लाभ होता। चूंकि आवंटन अपनी मर्जी से किया गया, इसलिए जो लाभ नहीं हुआ, वही अनुमानित घाटा है।
हालांकि भाजपा के तीन मुख्यमंत्रियों डॉ. रमन सिंह (छत्तीसगढ), शिवराज सिंह चौहान (मध्य प्रदेश) और कनार्टक के पूर्व मुख्यमंत्री वाईएस येद्दयुरप्पा ने भी नीलामी की बजाय अपनी मर्जी से कोल ब्लॉक का आवंटन करके राजकीय कोष को हानि पहुंचाई है और ये लोग नीलामी नीति को लागू करने के लिए तैयार भी नहीं थे। लेकिन भाजपा की मांग है कि नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को इस्तीफा दे देना चाहिए। जब तक वह अपना पद नहीं छोड़ेंगे, तब तक भाजपा संसद का बॉयकाट करती रहेगी। लेकिन भाजपा के अडि़यल रवैये से भी अधिक हास्यास्पद है संप्रग सरकार का तर्क। केंद्र सरकार का कहना है कि यह सही है कि कोल ब्लॉक का आवंटन नीलामी के जरिये नहीं किया गया, लेकिन जिन कंपनियों को आवंटन किया गया था, उन्होंने खनन नहीं किया, जिससे कोयला अपनी जगह मौजूद है। जब कोयला निकाला ही नहीं गया तो नुकसान जीरो रहा। गौरतलब है कि 2जी घोटाले में भी टेलीकॉम मंत्री कपिल सिब्बल ने शून्य-हानि थ्योरी ही पेश की थी, लेकिन बाद में उन्हें अपनी बात वापस लेनी पड़ी। इस शून्य-हानि थ्योरी पर मुख्यत: दो आपत्तियां हैं। सबसे पहली बात तो यह है कि जिस कंपनी को खदान आवंटित हो जाती है, उसके शेयर के दाम वैसे ही बढ़ जाते हैं।
कोयला निकाला गया हो या न निकाला गया हो, उसे लाभ होना शुरू हो जाता है। दूसरा यह कि जब कोल ब्लॉक आवंटित कर दिए जाते हैं तो खनन का अधिकार सरकार के पास नहीं, बल्कि निजी ठेकेदारों के पास पहुंच जाता है। बहरहाल, इतनी ही चिंताजनक बात यह है कि अपनी प्रशासनिक कमियों को आंकड़ों में हेर-फेर करके छुपाने का प्रयास किया जाए, जैसा कि किसानों की आत्महत्या के संदर्भ में छत्तीसगढ़ की सरकार कर रही है। रमन सिंह की सरकार ने राज्यभर से मिले आत्महत्या वेफ आंकड़ों को यह कहते हुए सुधारा है कि पुलिस कांस्टेबल, व्यापारियों की आत्महत्या को भी किसानों की आत्महत्या बता देते हैं। इसलिए इस गलती को सुधारने के बाद मालूम हुआ कि वर्ष 2011 में छत्तीसगढ़ के एक भी किसान ने आत्महत्या नहीं की। शून्य के इस नए आविष्कार की पोल इसी बात से खुल जाती है कि अगर आप रायपुर से आधे घंटे की ड्राइव करते हुए अवहानपुर जाकर वार्षिक पुरुष रिपोर्ट को देखेंगे तो वर्ष 2011 में किसानों की आत्महत्या के 12 मामले दर्ज मिलेंगे। यह रिपोर्ट रायपुर में पुलिस मुख्यालय को भेजी गई थी, लेकिन जब राज्यव्यापी आंकड़े राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो को भेजे गए तो यह डाटा सफर में ही कहीं खो गया। दरअसल, किसानों की आत्महत्या एक संवेदनशील और राजनीतिक मुद्दा है, जिससे राज्य सरकार कठघरे में खड़ी हो सकती है। इसलिए किसानों की आत्महत्याओं को खुदकुशी की ऐसी श्रेणियों में डाल दिया गया, जो कम संवेदनशील हैं और इस तरह किसानों की आत्महत्या को शून्य दर्शा दिया गया, ठीक वैसे ही जैसे कोयला आवंटन में शून्य हानि दिखाई जा रही है। सियासी शून्य का यह खेल भोली-भाली जनता को शून्य बनाने का प्रयास कर रहा है, जिस पर विराम लगाना आवश्यक है।
शाहिद ए चौधरी स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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