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सीनाजोरी का अर्थशास्त्र

जागरण मेहमान कोना
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Anshuman Tiwariमेरी कमाई देश में है। एक भी पैसा देश से बाहर नहीं गया यानी सरकार को कोई घाटा नहीं हुआ। क्या मैं टैक्स देने से मना कर सकता हूं? कंपनियों को मुफ्त में कोयला खदान देने से देश को नुकसान न होने की सरकारी दलील पर अगर आपके दिमाग में ऐसा कोई सवाल उठे तो आप कतई गलत नहीं हैं। कंपनियों को मिली खदानों का कोयला धरती केगर्भ में सुरक्षित होने से सरकार को कोई यदि नुकसान नहीं दिखता तो फिर आप भी कमाइए, देश में खर्च कीजिये और टैक्स मत दीजिए। सरकार को क्या नुकसान हो रहा है। पैसा तो देश में ही है। कोयला खदानों की बंदरबांट में देश को हानि न होने की यह सूझ उस नए अर्थशास्त्र का हिस्सा है जिसे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की टीम देश के गले उतारना चाहती है। यह दागदार हिसाब संपत्तियों के मूल्यांकन के शास्त्रीय से लेकर बाजारवादी सिद्धांतों तक का गला घोंट देता है और राजस्व का नुकसान आंकने के बजटीय सिद्धांतों को दफन कर देता है। सरकार के समझदार मंत्री देश को शर्मिदा करने वाला यह अर्थशास्त्र सिर्फ इसलिए पढ़ा रहे हैं ताकि प्राकृतिक संसाधनों को बांटने के अधिकार की कीमत वसूलने वाले नेताओं (रेंट सीकिंग) और उनकी चहेती कंपनियों (क्रोनी कैपिटलिज्म) के बीच गठजोड़ को सही साबित किया जा सके। यह चोरी के बाद सीनाजोरी का अर्थशास्त्र है। सरकार और कांग्रेस देश को शायद सिरे से मूर्ख समझती है। वह देश के सामान्य आर्थिक ज्ञान का मखौल बना रही है। सदियों से बाजारी, कारोबारी और संपत्ति के हिसाब में तपे हुए इस देश का एक अदना सा किसान भी जानता है कि प्राकृतिक संसाधन हाथ में होने का क्या मतलब होता है और जरा सी जमीन होने पर कर्ज से लेकर इज्जत तक सब कुछ मिल सकती है।


चुनिंदा कंपनियों को करीब छह अरब टन से अधिक कोयला भंडार वाली 142 खदानें मुफ्त में मिलना कितनी बड़ी नेमत है, इसलिए कोयले की लूट से देश का कोई नुकसान न होने का तर्क शायद ही किसी के गले उतरेगा। इस नए अर्थशास्त्र पर चला जाए तो किसी के पास कितनी भी जमीन क्यों हो, अगर उसका इस्तेमाल नहीं है तो फिर उसकी कीमत नहीं है यानी न वह कर्ज के लायक है या न रुतबे के। टीम मनमोहन नया अर्थशास्त्र बाजार की बुनियादी समझ को शर्मिदा करता है। बाजार संपत्तियों का मूल्यांकन दो तरह से करता है। एक, संपत्ति की वर्तमान कीमत और दो, इस संपत्ति की मिल्कियत के जरिये भविष्यल में होने वाली कमाई। बाजार की जबान में कंपनी की वर्तमान हैसियत उसकी बुक वैल्यू है और भावी कीमत मार्केट वैल्यू। शेयर बाजार बताता है कि प्राकृतिक संसाधनों के कारोबार वाली कंपनियों की मार्केट वैल्यू, बुक वैल्यू से ज्यामदा होती है। उनके पास प्रकृति की नेमत है, जिसकी कीमत लगातार बढ़ती जानी है। जमीन, खदानें, स्पेक्ट्रम जैसे प्राकृतिक संसाधनों को हासिल करना कंपनियों की हैसियत ही बदल देता है।


मुफ्त कोयला खदानों की कंपनियों के शेयर पिछले कुछ वर्षो में तेज रफ्तार से चढ़े, जबकि उनसे कोयला भी नहीं निकला था, लेकिन कैग की रिपोर्ट आने व खदानों पर खतरा मंडराने के बाद इनके शेयर बुरी तरह गिर भी गए। यानी सरकार के फैसले से कंपनियों के मुनाफे और घाटे पूरी तरह जुडे़ थे। खदानों के सहारे कंपनियों ने कितना कर्ज, कितनी मार्केट वैल्यू, कितनी साख जुटा ली, इसका तो हिसाब कैग ने भी नहीं किया। गलत को सही साबित करने का हठ नसीहतों को नकार रहा है। सरकार ने 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन की मनमानी को जायज ठहराने की कोशिश थी और देश को 1.76 लाख करोड़ रुपये का नुकसान बताने वाले कैग को उसकी सीमाएं दिखाई थीं। कुछ माह बाद मनमोहन सिंह की कैबिनेट ने ही तय किया कि इसी स्पेक्ट्रम के लिए बोली 14000 करोड़ रुपये होगी। कोयला खदान आवंटन से हानि की गणित लगाने में कैग ने कोयले की उस कीमत को आधार बनाया है जिस पर कोल इंडिया देश में कोयला बेचती है। देश में आयातित कोयले की कीमत कोल इंडिया से पांच गुना महंगी है। हाल में मध्य प्रदेश में हुई खदानों की नीलामी में आई कीमत भी कोल इंडिया की करीब दोगुनी है। अगर इन्हें आधार बनाया जाए तो यह लूट बहुत बड़ी हो जाती है। कोयला घोटाले में प्रधानमंत्री के आर्थिक तर्क बजट को भी झुठलाते है। आर्थिक फैसलों से भावी फायदे-नुकसान का आकलन कारोबार का बुनियादी पहलू है। कैग ने इसमें कोई नया ज्ञान नहीं जोड़ा है। कपिल सिब्ब्लों व मनीष तिवारियों की निगाह में अगर यह आकलन गलत है तो वह बजट सही कैसे हुआ जो हर साल टैक्स रियायतों से होने वाले नुकसान का आकलन कर बजट के अनुबंध 15 के तहत संसद में पेश किया जाता है।


कांग्रेस बयानवीरों के तर्को के आधार पर तो प्रिजम्टिव टैक्सेशन, प्रिजम्टिव इनकम जैसी सभी व्यवस्थाएं गलत साबित होती हैं। भारत रेंट सीकिंग और क्रोनी कैपिटलिज्म के सबसे दुर्दात नमूने देख रहा है, जहां कुछ सैकड़ा नेता प्राकृतिक संसाधन बांटने की ताकत रखते हैं। भारत के अपारदर्शी बाजार में फायदों के बंटवारे से सियासत जेब भरती है और फिर उसे सही साबित करने में नया हिसाब पढ़ाती है। कोयला या स्पेक्ट्रम तो जाने हुए घोटाले हैं, जिनके ऑडिट हो जाते हैं। नदियों से मौरंग, बालू, चट्टानों से गिट्टी निकालने से लेकर जंगल में तेंदू पत्ता तोड़ने के ठेकों तक प्राकृतिक संसाधनों की लूट-बांट का तो कोई हिसाब ही नहीं है। प्राकृतिक संसाधनों के आवंटन और सरकारी-निजी भागीदारी वाली परियोजनाओं के पिछले दशक के सभी फैसलों के अगर ईमानदार ऑडिट हो जाएं तो लूट की ऐसी वीभत्स तस्वीरें सामने आएंगी कि हमें शर्म भी ढूंढे नहीं मिलेगी। अर्थशास्त्र और गणित में कोई खोट नहीं है। हमारी सियासत ही हमारा दुर्भाग्य है।


लेखक दैनिक जागरण के राष्ट्रीय ब्यूरो प्रमुख हैं


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