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द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद दो गुटों में बंटे विश्व और भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति, ये दो ऐसे महत्वपूर्ण कारण थे, जिसने गुट निरपेक्ष आंदोलन को जन्म दिया। बदले वैश्विक माहौल में 30 से 31 अगस्त को ईरान की राजधानी तेहरान में गुट निरपेक्ष देशों का 16वां शिखर सम्मेलन आयोजित किया गया था, लेकिन इसे निराशाजनक ही कहा जाएगा कि एक बार फिर इस सम्मेलन ने अपनी वही पुरानी प्रतिबद्धता को दोहराकर औपचारिकता पूरी का ली। वर्ष 1961 में स्थापित निर्गुट अपने 50 वर्षो की यात्रा पूरी कर चुकने के बावजूद आज भी अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है। यह आज तक वैश्विक मंच पर अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज नहीं करा सका है। इसके पीछे कई तरह के कारण रहे हैं। गुटनिरपेक्ष आंदोलन के 120 देश सदस्य हैं, जबकि 17 अन्य देश इसके पर्यवेक्षक हैं। एक विशाल संगठन होने के बावजूद इसकी उपलब्धि अपेक्षानुरूप नहीं कही जा सकती। वर्तमान में जिस प्रकार अस्थिर वैश्विक परिस्थितियां बनी हुई हैं, निर्गुट शिखर सम्मेलन से काफी अपेक्षाएं की जा रही थीं। लेकिन यह इन अपेक्षाओं के अनुरूप खुद को खड़ा कर पाने में एक बार फिर नाकाम हो गया। अब यह इसके सदस्य देशों की मजबूत प्रतिबद्धता पर निर्भर करेगा कि वे इसे आगे किस रूप में लेते हैं। जिस दौर में और जिन उद्देश्यों को लेकर निर्गुट का जन्म हुआ था, उन उद्देश्यों को पाना अब भी दूर की कौड़ी है। इस बार के सम्मेलन ने भी स्पष्ट कर दिया कि जब तक कुछ सदस्य देश निजी स्वार्थो को सर्वोपरि रखे हुए हैं, एक मजबूत और वैश्विक स्तर के संगठन की उम्मीद करना बेमानी है। इस बार के निर्गुट शिखर सम्मेलन की थीम थी सभी देशों के साझा प्रयास से वैश्विक शांति। मौजूदा वैश्विक अस्थिरता और अशांति के माहौल के बीच यह थीम काफी प्रासंगिक थी। जिस प्रकार विश्व के विभिन्न देश आंतरिक व बाह्य संघर्ष से जूझ रहे हैं, उसे देखते हुए इसकी प्रासंगिकता स्पष्ट होती है। वर्तमान में सीरिया वैश्विक मंच पर कई तरह से सवालों के घेरे में है।
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सीरिया आंतरिक अशांति से जूझ रहा है। ईरान का अमेरिका और अन्य विकसित देशों के साथ विवाद गहरा रूप धारण कर चुका है। अमेरिका ईरान पर आर्थिक प्रतिबंध लगा चुका है। इराक और इजरायल के साथ भी ईरान का विवाद लंबे समय से जारी है। भारत-पाकिस्तान का विवाद दशकों से अनसुलझा ही है। पश्चिम एशिया सहित समूचा मध्य-पूर्व और एशिया किसी न किसी विवाद में फंसा पड़ा है। दूसरी तरफ चीन की विस्तारवादी नीति के कारण दक्षिण चीन सागर क्षेत्र विवादित है। इस क्षेत्र को लेकर चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, वियतनाम आदि के अपने-अपने दावे हैं। इस पूरे मसले से भारत का हित भी प्रभावित हो रहा है। गुट निरपेक्ष आंदोलन के शिखर सम्मेलन से अपेक्षाएं तो शुरू में भी की गई थीं और अब भी की जाती हैं। लेकिन क्या कारण है कि विश्व की बहुसंख्य आबादी और संसाधनों से भरे सदस्य देशों के इस संगठन ने विश्व मंच पर अब तक अपनी सशक्त पहचान नहीं बना सका है। दूसरी ओर आसियान, एपेक, नाटो जैसे छोटे संगठन वैश्विक मंच पर आज महत्वपूर्ण बने हुए हैं। थोड़ा विश्लेषण करने पर हम पाते हैं कि किसी भी संगठन को महत्वपूर्ण बनाने में उसके आर्थिक व रणनीतिक तत्व प्रमुख भूमिका निभाते हैं। गुटनिरपेक्ष आंदोलन के पास इन तत्वों की कमी है। इसके गठन के साथ निर्धारित उद्देश्य तत्कालीन परिस्थितियों के अनुकूल थे, लेकिन बाद में समय के साथ इसमें परिवर्तन नहीं करना और सदस्य देशों द्वारा इसे गंभीरता से न लेना इसकी असफलता के सबसे बड़े कारण सिद्ध हुए हैं। जैसा कि हम आज भी देख रहे हैं इसके अधिकांश सदस्य देश आपसी विवाद और अविश्वास से ग्रस्त हैं।
संगठन के पास सदस्यों के बीच निरंतर संपर्क स्थापित करने का अभाव है। साथ ही इनके पास एक बेहतर प्रशासनिक और मजबूत वित्तीय प्रबंधन तंत्र विकसित नहीं किया जा सका है। चूंकि विकसित देशों पर सदस्य देशों की निर्भरता भी काफी अधिक है। अत: यह इस दिशा में गंभीर नहीं हो पाते। आज कई क्षेत्रों में अशांति और हथियारों की जबरदस्त होड़ मची हुई है। कई देशों के बीच आपसी अविश्वास का घृणित माहौल कायम है। सदस्य देशों के बीच आपसी व्यापार भी संतोषजनक नहीं है। आज जरूरत है कि ये सभी देश आपसी व्यापार प्रोत्साहन की नीति अपनाते हुए एक केंद्रीय कोष प्रबंधन और प्रशासनिक निकाय स्थापित करें। आतंकवाद के खिलाफ और वैश्विक शांति की दिशा में एक साझी रणनीति अपनाएं।
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गौरव कुमार स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं.
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