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संसद की सही भूमिका

जागरण मेहमान कोना
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कोयला घोटाले के मुद्दे पर संसद में विपक्षी दलों के व्यवधान को सही ठहरा रहे हैं बलबीर पुंज

क्या संसद का मानसून सत्र व्यर्थ गया? यदि उपलब्धियों की दृष्टि से देखा जाए तो यह सत्र बहुत सफल रहा। यह ठीक है कि संसद 13 दिनों तक चली नहीं, परंतु संसद ने अपना काम बखूबी किया। संसद के मुख्यत: तीन काम होते हैं। एक, सामयिक विषयों पर चर्चा। दूसरा, वाद-विवाद कर कानून बनाना और तीसरा, सरकार को जनता के प्रति उसके कृत्यों के लिए जवाबदेह बनाना। कोयला ब्लॉक आवंटन में मची लूट के कारण वाद-विवाद और कानून बनाने की प्रक्रिया 13 दिनों तक अस्तव्यस्त रही, किंतु सरकार को जनता के प्रति जवाबदेह बनाने का जो भार संसद पर था उस दायित्व को विपक्ष ने सफलता से निभाया। यदि इस घोटाले पर भी संसद में चर्चा की खानापूर्ति हो जाती तो कॉमनवेल्थ, 2जी, अंतरिक्ष और रक्षा घोटालों की तरह कोयला घोटाला भी दफन हो गया होता। यदि विपक्ष जनता की आवाज बन इस लूट के विरोध स्वरूप संसद बाधित नहीं करता तो आज सीबीआइ जिस तरह कोयला आवंटन पाने वाली कंपनियों पर छापे मार रही है, क्या वह संभव हो पाता? विपक्ष के प्रचंड विरोध के कारण ही कोयला घोटाले की परतें खुलने लगी हैं। रोजाना नए नाम जुड़ रहे हैं, जिनमें अधिकांश कांग्रेसी नेता और उनके परिजन हैं।


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कांग्रेसी नेता विजय दरडा को तो राज्य सरकार की अनुशंसा के बगैर ही कोयला खदान आवंटित कर दी गई, किंतु सरकार पूर्ण पारदर्शिता बरतने और शून्य नुकसान होने का कुतर्क दे रही है। कैसी पारदर्शिता? पारदर्शिता तब साबित होती जब जिन कंपनियों को कोयला खदानें आवंटित की गईं, उनकी पृष्ठभूमि की जांच भी स्क्रीनिंग कमेटी करती। जिन कंपनियों को कोयला खनन का कोई अनुभव नहीं है, उन्हें खदानें क्यों आवंटित की गईं? यदि कहीं कोई गड़बड़ी नहीं हुई तो आज सीबीआइ तथ्य छिपाने, त्रुटिपूर्ण जानकारी देने और जालसाजी करने के आरोप में कंपनियों पर छापे क्यों मार रही है? सन 2003 में भाजपानीत राजग सरकार द्वारा पावर सेक्टर को सरकारी आधिपत्य से मुक्त करने के बाद कोयले की मांग में भारी परिवर्तन आया। तब ऊर्जा के क्षेत्र में निजी क्षेत्र की कंपनियों की रुचि बढ़ी। वहीं 1991 में प्रारंभ किए गए आर्थिक सुधारों, जिन्हें राजग सरकार ने तेजी से आगे बढ़ाया था, के कारण आधारभूत संरचनाओं वाले पावर, सीमेंट और स्टील की मांगों में उछाल आने के कारण कोयले की भारी मांग थी। सन 2004 में सरकार बदल गई। कोयले की मांग और कोयला आवंटन की परंपरागत नीति की खामियों को देखते हुए तत्कालीन कोयला मंत्रालय के सचिव ने सरकार को एक नोट भेजा, जिसमें बताया कि यदि इसी तरह कोयला आवंटन जारी रहा तो इसके लाभार्थियों को छप्परफाड़ मुनाफा होगा।


सचिव ने 2004 में ही नीलामी के माध्यम से कोल ब्लॉक आवंटित करने की अनुशंसा की थी, किंतु प्रधानमंत्री कार्यालय ने इस सुझाव का विरोध किया। क्यों? बाद में प्रधानमंत्री कार्यालय ने नीलामी व्यवस्था अपनाने के लिए विधि मंत्रालय से राय मांगी। विधि मंत्रालय ने तब यह कहा था कि कोयला ब्लॉक नीलामी के आधार पर देने चाहिए और यह एक प्रशासनिक आदेश से हो सकता है, किंतु प्रधानमंत्री कार्यालय ने उस राय को निरस्त कर दिया और दूसरी राय मांगी। क्यों? इस बार विधि मंत्रालय ने माइंस एंड मिनरल्स (डेवलपमेंट एंड रेगुलेशन) एक्ट में संशोधन करने का सुझाव दिया, जो कि एक लंबी प्रक्रिया है। फिर सरकार ने कहा कि चूंकि यह लंबी प्रक्रिया है और जब तक प्रक्रिया पूरी होगी तब तक कोयले का आवंटन रोकना ठीक नहीं है। आवंटन रोकने से स्टील, सीमेंट और पावर क्षेत्र का काम ठप हो जाएगा, जिसका जीडीपी पर असर पड़ेगा। सच तो यह है कि सरकार को न तो जीडीपी की चिंता थी और न ही ऊर्जा क्षेत्र को उबारना उसकी प्राथमिकता थी। क्या यह सच नहीं है कि आवंटित किए गए कुल 145 ब्लॉक में से एक को छोड़कर बाकी किसी में कोई खनन नहीं हुआ? एक ओर एनटीपीसी और अन्य निजी विद्युत कंपनियां कोयले की कमी के कारण ठप थीं या क्षमता से कम उत्पादन कर रही थीं, वहीं सरकार इन कंपनियों को कोयला आवंटन कर अपना वारान्यारा कर रही थी। एमएमडीआर अधिनियम में संशोधन वर्षो लटका रहा। सरकार अब यह दलील दे रही है कि कुछ राज्यों द्वारा नीलामी व्यवस्था का विरोध किए जाने के कारण संशोधन लाने में विलंब हुआ। सच तो यह है कि राज्यों ने 2006 में ही नीलामी के पक्ष में सहमति दे दी थी, बशर्ते उससे पैदा होने वाले राजस्व में उनका भी अंश निर्धारित किया जाए।


स्वयं तत्कालीन कोयला राज्यमंत्री, जो अभी कोयला मंत्री हैं, ने 21 दिसंबर, 2009 को संसद को यह बताया था कि अधिकांश राज्य नीलामी व्यवस्था के लिए सहमत हैं, किंतु संशोधन लाने में छह साल की देरी की गई। संशोधित होने वाले विधेयक का मसौदा 2006 में तैयार था, परंतु सरकार ने इसे 2010 में पारित किया और उसके जो नियम-उपनियम थे उन्हें फरवरी 2012 में प्रकाशित किया। इस तरह एक कानून बनाने में आठ साल का लंबा समय लगाया गया। यह विलंब क्यों? इस साल जून में सरकार ने आवंटित कोयला खदानों में हुए खनन की जांच के लिए एक अंतर मंत्रालय समूह बनाया था। कोयला मंत्रालय की अतिरिक्त सचिव जोहरा चटर्जी इस समूह की मुखिया थीं। उन्होंने अपनी ड्राफ्ट रिपोर्ट में यह कहा था कि 53 आवंटन तुरंत रद किए जाएं। महालेखा परीक्षक ने जिन 145 कोयला ब्लॉक के कुल 57 आवंटन पर 1.86 लाख करोड़ का घोटाला होने की बात की है, उनमें से यही 53 ब्लॉक अकेले 1.85 लाख करोड़ के घोटाले के लिए जिम्मेदार हैं अर्थात 57 में से 53 निकाल दें तो चार आवंटन केवल 1000 करोड़ के घोटाले के लिए जिम्मेदार हैं। इतने बड़े पैमाने पर लूट हुई है और सरकार शून्य नुकसान का दावा करती है। 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले में ऐसी ही बंदरबांट नीति के अंतर्गत नौ लाइसेंस दिए गए थे। सरकार ने प्रति लाइसेंस 1658 करोड़ रुपये बेस प्राइस निर्धारित किया था अर्थात राजस्व में कुल 14,922 करोड़ रुपये आए। विपक्ष के मुखर विरोध और न्यायालय के हस्तक्षेप के कारण सरकार को लाइसेंस रद करने पड़े। नए सिरे से लाइसेंस जारी करने के लिए सरकार ने अब प्रति लाइसेंस 14,000 करोड़ रुपये बेस प्राइस तय किया है। अर्थात नई दर के हिसाब से प्रति लाइसेंस 12 हजार 342 करोड़ का चूना राजकोष को लगाने की व्यवस्था सरकार ने की थी। अब नई दर के हिसाब से 1.26 लाख करोड़ रुपये राजकोष में आएगा। कोयला घोटाले की भी क्षतिपूर्ति हो, यह विपक्ष का दायित्व बनता है। यदि 2जी मामले में तत्कालीन संचार मंत्री ए राजा जेल जा सकते हैं तो प्रधानमंत्री अपने पद पर कैसे रह सकते हैं?


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लेखक बलबीर पुंज राज्यसभा सदस्य हैं


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