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केंद्रीय महिला एवं बाल कल्याण मंत्री कृष्णा तीरथ ने महिलाओं की आर्थिक स्थिति सुधारने की घोषणा की है। उनका कहना है कि इस क्रम में सरकार ऐसा कानून बनाने जा रही है, जिसके तहत अब पत्नियों को पतियों के वेतन में से एक निश्चित राशि मिल सकेगी। इसके लिए पत्नियों को अपना पैन कार्ड बनवाना जरूरी होगा और अपना बैंक अकाउंट खुलवाना होगा, ताकि पति हर महीने उनके हिस्से का वेतन उनके खाते में डाल दें। बहुत मुमकिन है कि कुछ पत्नियों को इससे थोड़ी सुविधा हो जाए और उन्हें बार-बार पति से घर खर्च के लिए पैसे न मांगने पड़ें। यह अपेक्षा की जा रही है कि पत्नी आखिर उस पैसे को घर परिवार पर ही खर्च करेगी यानी घर का पैसा घर में ही रहेगा। गृहणियां घरेलू काम में अधिक समय बिताती हैं और दफ्तर की तुलना में कहीं अधिक काम करती हैं, लेकिन तब भी उनके श्रम का ठीक आकलन नहीं होता है। इस तरह की तमाम बातें बातें पहले ही हो चुकी हैं। गृहिणियों केकाम का मूल्यांकन कैसे हो, इस पर कोर्ट ने भी कुछ मामलों के संदर्भ में अपनी राय व्यक्त की है और गृहिणियों के श्रम का पारिश्रामिक तय करने के लिए कुछ आधार भी बताए हैं। ध्यान रहे कि अदालत का यह उल्लेख दुर्घटना में मृत महिला के परिजनों के लिए मुआवजे के संदर्भ में था। अब भी जीवित रहते और उसकी कार्यावधि के दौरान गृहकार्य के सही मूल्यांकन का कोई आधार सुनिश्चित नहीं हुआ है। महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय के इस ताजा प्रस्ताव के संदर्भ में यह बात भी सामने आई है कि उसने केंद्रीय सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय को उस सारे कामकाज का मूल्यांकन करने को कहा है, जो महिलाएं घर के अंदर करती हैं।
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कार्यान्वयन मंत्रालय के मुताबिक उसने पहले से ही एक विशेषज्ञों का दल गठित किया है, ताकि वह अखिल भारतीय स्तर पर इस तरह का सर्वेक्षण करे। इसका मकसद है कि राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में महिलाओं द्वारा किए गए अनुल्लेखित योगदान का आकलन किया जाए और घर के भीतर की गतिविधियों के लिंग भेदों/असमानताओं की पड़ताल की जाए। घर के काम का भी वेतन मासूम हो कि संयुक्त राष्ट्रसंघ के तत्वावधान में बीजिंग में 1995 में महिलाओं की जो चौथी अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस हुई थी, उसमें ही इस संदर्भ में प्रस्ताव पारित किया गया था। इसमें आह्वान किया गया था कि हमें सही सांख्यिकीय साधन विकसित करने होंगे, ताकि हम महिलाओं के कार्य को समग्रता में देख सकें और बिना किसी वेतन के उनके घरेलू क्षेत्र में दिए गए योगदान का भी आकलन कर सकें, जिससे राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में उनकी भूमिका की सही पड़ताल हो सके। इस संदर्भ में यह भी पूछे जाने की जरूरत है कि क्या घर के सभी कामों के लिए भी कोई वेतन निर्धारित किया जा सकता है? दरअसल, यह तय हो भी नहीं सकता है। हर समय में हर समाज में कुछ काम अवैतनिक ही रहेंगे, सभी कार्र्यो का सवैतनिक बनना मुमकिन नहीं होगा। सभी परिवारों या समाज में मसला यही बन सकता है कि वेतन वाला काम और बिना वेतन का काम कहींअलग-अलग समुदायों में केंद्रित तो नहीं हो गया है कि बिना वेतन वाला अधिकतर काम एक ही समुदाय के हिस्से आता हो। यदि ऐसा है तो वह बराबरी और न्याय की कसौटी को खारिज करने वाला होगा। पिछले तीन दशकों में भारत की कुल श्रमशक्ति में महिलाओं की हिस्सेदारी अब भी 35 फीसदी से कम ही आंकी गई है।
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में लगभग 90 फीसद महिलाएं घरेलू जिम्मेदारियां संभालती हैं। ऐसे में एक तर्क यह हो सकता है कि चूंकि वे ये तमाम जिम्मेदारियां संभालती ही हैं, इसलिए उस श्रम के बदले उसे पारिश्रामिक मिले और वह पारिश्रमिक उस घर का कमाने वाला आदमी उसे दे। इस पर सवाल यह उठता है कि इस पूरी कवायद से उस परिवार की आय में क्या अंतर पड़ जाएगा। अन्तर सिर्फ इतना ही हो सकता है कि घरेलू महिला के हाथ में कुछ पैसे उसके अधिकार के तौर पर आ जाएंगे, लेकिन मालिक तो फिर देने वाला ही होगा। फिर मेहनताना देने वाले की एक मानसिकता यह भी है कि जो पैसा देता है वह काम भी अपने हिसाब से करवाता है। सरकार की साजिश दूसरा अहम सवाल यह है कि सार्वजनिक दायरे के विभिन्न कार्यो और नौकरियों में महिलाओं की बराबर की भागीदारी की मांग का क्या होगा? आखिर घर के अंदर की जिम्मेदारी औरत के हिस्से में ही क्यों हो और बाहर का पहला दावेदार पुरुष कब तक बना रहेगा? सरकार को ऐसी नीतियों या कानूनों के बारे में सोचने की जरूरत क्यों नहीं लगती, जिनसे निजी और सार्वजनिक दायरे का यह अंतर कम किया जा सके। जिससे महिलाएं अधिकाधिक सार्वजनिक दायरे में हिस्सेदारी करती जाएं और स्त्री-पुरुष के बीच श्रमशक्ति बराबर बनने की तरफ बढ़ा जा सके। हालात बदल रहे हैं, लेकिन आर्थिक हैसियत में गैरबराबरी अब भी बहुत अधिक है। यह सच है कि महिलाएं बड़े पैमाने पर श्रमशक्ति का हिस्सा बनी हैं, लेकिन उन्हें अधिकतर अवसर असंगठित क्षेत्र में मिला है, जहां किसी भी प्रकार की सुविधा या सुरक्षा नहीं है। 90-95 फीसद महिलाएं इसी असंगठित में काम करती हैं।
आज भी उनके श्रम का बड़ा हिस्सा अदृश्य है और घर का बिना पारिश्रमिक वाला श्रम उन्हीं के जिम्मे होता है। इसीलिए कहा जाता है कि वह दोहरे बोझ की शिकार हैं। इस दोहरे बोझ से मुक्ति के लिए यदि उन्होंने बाहर का काम छोड़ा तो सार्वजनिक दायरे में जाकर कमाने के अधिकार से वंचित हो जाएंगी। कमाने का अवसर एक महत्वपूर्ण अधिकार माना जाता है, जिसके लिए सरकार को अवसर उपलब्ध कराने होते हैं। बेरोजगारों की बढ़ती संख्या सरकारों के लिए चिंता का विषय होती है। यदि महिलाओं के लिए रोजगार घर में ही उनके पति की आय में हिस्सा देकर दिया गया तो सरकार इस जिम्मेदारी से सीधे बच जाएगी। सरकारी-गैरसरकारी स्थायी नौकरियां धीरे-धीरे कम होती जा रही हैं। ऐसे में पति की आय के स्रोत बदलते रहेंगे तो पत्नी के लिए यह सुनिश्चित करना और मुश्किल होगा। यदि महिलाओं को पतियों से पगार मिलने का कानून बन गया तो ये तमाम बहसें भी खत्म हो जाएंगी और हमारे जैसे पितृसत्तात्मक समाज में इनका इस्तेमाल पितृसत्तात्मक ढांचे को मजबूत करने के लिए किया जा सकता है। कहा जाएगा कि अब जब महिलाओं को घर के काम का वेतन मिल रहा है तो वे बाहर जाने के बारे में क्यों सोचें?
अंजलि सिन्हा स्त्री अधिकार संगठन से जुड़ी हैं
केंद्रीय महिला एवं बाल कल्याण मंत्री कृष्णा तीरथ.
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