Menu
blogid : 5736 postid : 6247

सुधार, समय और सियासत

जागरण मेहमान कोना
जागरण मेहमान कोना
  • 1877 Posts
  • 341 Comments

भारत में एक राजनेता था। आर्थिक नब्ज पर उसकी उंगलियां चुस्त थीं, मगर सियासत और वक्त की नब्ज से हाथ अकसर फिसल जाता था। 1991 में उसके पहले आर्थिक सुधारों को लेकर देश बहुत आगे निकल गया, मगर उसकी पार्टी कहीं पीछे छूट गई। बहुत कुछ गंवाने के बाद 2012 में जब दूसरे सुधारों का कौल लिया तो उसकी राजनीतिक ताकत छीज चुकी थी और जनता को इनके फायदे दिखाने का वक्त नहीं बचा था। अफसोस! उस राजनेता के साहसी सुधार उसकी पार्टी की सियासत केकाम कभी नहीं आए। आज से एक दशक बाद जब इतिहास में आप यह पढ़ें तो समझिएगा कि डॉ. मनमोहन सिंह और कांग्रेस का जिक्र हो रहा है। आर्थिक सुधारों के डॉक्टर की सबसे बड़ी विफलता यह है कि समय और सियासत के साथ सुधारों में केमिस्ट्री नहीं बना पाते। उनके सुधारों का लाभ उनके राजनीतिक विपक्ष को ही मिलता है। जब जागे तब सबेरा वाला सिद्धांत सियासत और अर्थशास्त्र में नहीं चलता। इसलिए प्रधानमंत्री 91 का दौर याद करते हुए बड़े असंगत से लग रहे थे। उन्हें अपने वित्तमंत्रित्व दौर के भाषण फिर पढ़ने चाहिए। देश को बिगाड़ने वाले जितने कदम उन्होंने तब गिनाए थे वे सभी काम उनकी अगुआई में पिछले सात साल में किए गए हैं। भारी सब्सिडी, फिजूल की स्कीमें, बेसिर पैर के खर्च वाले समाजवादी नुस्खे। भारी टैक्स व मनमानी रियायतें। भयानक घाटा, कर्जदार सरकार, बर्बाद होते बैंक। कुछ खास लोगों को सब कुछ देने वाला पुराना भ्रष्ट लाइसेंस राज।


Read: आम आदमी की चिंता


1991 से पहले का अंधेरा, सीलन भरा लिजलिजा सरकारी दौर जब जी उठा, देश की साख लगभग ढह गई तब प्रधानमंत्री को सुधारों की फिक्र हुई है। पैसों केपेड़ पर लगने का सवाल बड़ा मजेदार है, लेकिन इसे तो सरकार के राजनीतिक नेतृत्व से पूछा जाना चाहिए। संप्रग के नए राजनीतिक अर्थशास्त्री ने पिछले सात साल में राजकोषीय संतुलन का श्राद्ध कर दिया। 21वीं सदी का भारत जब तरक्की के शिखर पर था तब कांग्रेस का आर्थिक चिंतन आठवें दशक की कोठरी में घुस गया। देश की आर्थिक किस्मत साझा कार्यक्रमों और राष्ट्रीय सलाहकार परिषदों जैसी सुपर सरकारों ने तय की, जिन्हें ग्रोथ और सुधार के नाम पर मानो ग्लानि महसूस होती थी। उदारीकरण के तपते हुए वषरें में समाजवादी कोल्ड स्टोरेज से निकले पिछले बजटों ने भारत की आर्थिक बढ़त की टांग खींच ली है। वित्तीय घाटे पर फिक्रमंद दिख रहे भारत के सुधार पुरुष को याद होगा कि बजटों की बुनियाद संप्रग के न्यूनतम साझा कार्यक्रम ने तैयार की थी। उस राजनीतिक दस्तावेज ने राजकोषीय संतुलन को सिर के बल खड़ा कर दिया। संप्रग-एक के पहले बजट (2004-05) में साझा कार्यक्रम का हवाला देते हुए घाटा कम करने के लक्ष्य (राजकोषीय उत्तरदायित्व कानून के तहत) टाल दिए गए।


लगाम एक बार जो छूटी तो पकड़ में नहीं आई। 2008-09 के बाद तो घाटा घटाने के लक्ष्य पांच साल के लिए टल गए। समावेशी विकास यानी इन्क्लूसिव ग्रोथ की कांग्रेसी सियासत ने हमें उस उलटी गाड़ी में चढ़ा दिया, जिसे खुद सुधारों के रहनुमा चला रहे थे। 2005-06 में सब्सिडी का बिल केवल 44000 करोड़ रुपये था, जो सिर्फ पांच साल में 2.16 लाख करोड़ रुपये पर पहुंच गया। मनरेगा, स्वास्थ्य मिशन जैसी स्कीमें खर्च की चैम्पियन बन गई, जिनकी सफलता संदिग्ध है। समावेशी विकास देश पर कोई असर नहीं दिखता अलबत्ता बजट की बदहाली बढ़ाने में इसकी भूमिका पर कोई संदेह नहीं है। प्रधानमंत्री की सुधारवादी मुद्रा में आर्थिक नीतियों को लेकर कांग्रेस का चरम कन्फ्यूजन दिखता है। इन्क्लूसिव ग्रोथ का पूरा आर्थिक दर्शन राजनीति के मोर्चे पर कांग्रेस को एक कायदे की जीत भी नहीं दिला सका। 2009 में लोकसभा के चुनाव के साथ संप्रग ब्रांड स्कीमों का क्रियान्वयन पूरे देश में हो गया, लेकिन तब से कांग्रेस लगातार सियासी जमीन गंवाती चली गई है। यानी खजाना लुटाकर भी राजनीतिक फायदा नहीं मिला। एक फलते-फूलते उद्यमी देश को रोजगार गारंटियों व मुफ्त अनाज के नशे में डुबाकर कांग्रेस व संप्रग को क्या मिला, यह तो पता नहीं, लेकिन इतना जरूर पता है कि तरक्की तोड़ने की इस समावेशी परियोजना में पिछले एक दशक की मेहनत के फायदे खर्च हो गए।


आर्थिक सुधारों को लेकर प्रधानमंत्री के दर्द से किसी का भी दिल भर आएगा, लेकिन ज्यादा दर्द इस बात पर होना चाहिए कि प्रधानमंत्री को वक्त की नब्ज पढ़ना नहीं आता। 2012 से लेकर 2014 तक एक दर्जन प्रमुख राज्यों और फिर लोकसभा के चुनाव होने हैं। इसलिए सुधारों की गाड़ी अब बड़े चुनाव के बाद ही पटरी पर आएगी। सुधार ताकतवर हैं, मगर सुधारक कमजोर हैं। राजनीतिक जड़ों से उखड़ी एक सरकार बड़े दांव लगा रही है, इसलिए तत्काल शेयर सूचकांक भले ही थिरक उठे, निवेशकों के भरोसे का सूचकांक तो अभी नहीं उठना। वक्त कुछ अलग ढंग से खुद को दोहरा रहा है। 1991 के सुधार सही समय पर थे, मगर उनका फायदा उठाने का मौका आने तक कांग्रेस राजनीतिक मोर्चे पर बिखर गई थी। उन सुधारों का असर 1999 से दिखना शुरू हुआ और फायदे भाजपा की अगुआई वाले राजग के खाते में गए। कांग्रेस को कुर्सी 2004 में ही मिल सकी। ताजे आर्थिक सुधार बड़े महत्वपूर्ण हैं, मगर वक्त निकलने के बाद शुरू हुए हैं। इसलिए सरकार के पास कर दिखाने का मौका निकल गया। कांग्रेस बदकिस्मत है। इन कठिन सुधारों के राजनीतिक फायदे भी अगली सरकार के खाते में जाएंगे। डॉक्टर के सुधार नुस्खों पर विपक्ष की सरकारों ने अपनी राजनीतिक सेहत बनाई है। आर्थिक सुधारों और सियासत का भारतीय इतिहास खुद को फिर दोहराने वाला है।

Read:India vs England Match Review: इंग्लैंड की टीम में अनुभव की कमी दिखी


अंशुमान तिवारी दैनिक जागरण के राष्ट्रीय ब्यूरो प्रमुख हैं

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh