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शासकों की पुलिस

जागरण मेहमान कोना
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Prakash Singhपुलिस सुधारों के प्रति राज्यों की अरुचि के कारण आम जनता से इसके लिए आंदोलन की अपेक्षा कर रहे हैं प्रकाश सिंह


शायद ही कोई दिन ऐसा बीतता है जब पुलिस से संबंधित कोई आलोचनात्मक खबर अखबारों में न छपती हो। उत्पीड़न, उगाही, जनता के साथ दु‌र्व्यवहार, घटना स्थल पर समय से न पहुचना, विवेचना में लापरवाही, कुछ न कुछ आए दिन होता ही रहता है। इधर हाल में दो बड़ी घटनाएं ऐसी हुई जिनका उल्लेख करना आवश्यक है। पुलिस महानिदेशकों के अखिल भारतीय सम्मेलन में परिचर्चा के दौरान बिहार के डीजीपी ने कहा कि शांति व्यवस्था की स्थिति खड़ी होने पर बल प्रयोग के बजाय घटना की वीडियोग्राफी भी एक अच्छा विकल्प है। दंगाइयों को फोटो से चिन्हित करने के पश्चात उनके विरुद्घ अभियोग दर्ज कर मुकदमा चलाया जा सकता है। दूसरे शब्दों में, बलवा करने वालों पर दमनात्मक कार्रवाई कोई जरूरी नहीं है। बिहार में रणवीर सेना के प्रमुख की हत्या के बाद उनके जातीय समर्थकों ने पटना में जमकर उपद्रव किया था और पुलिस मूक दर्शक बनी रही।


इसी लय पर मुंबई में भी असम और म्यांमार की घटनाओं को लेकर जब 11 अगस्त को आजाद मैदान में मुसलमानों ने उपद्रव किया तो वहां भी पुलिस हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। बलवाइयों ने जमकर तोड़फोड़ की और महिला सिपाहियों के साथ दु‌र्व्यहार भी किया। एक डिप्टी कमिश्नर ने अराजक तत्वों के विरुद्ध कार्रवाई करने की कोशिश की तो उन्हें पुलिस कमिश्नर ने मौके पर ही झाड़ दिया। कमिश्नर का कहना है कि अगर कार्रवाई करते तो उसकी गंभीर प्रतिक्रिया होती।


अगर गहराई में उपरोक्त दोनों घटनाओं का विश्लेषण किया जाए तो सच्चाई यह है कि बिहार में जातीय समीकरण के कारण और उच्चतम स्तर से कार्रवाई न होने के संकेत के कारण पुलिस निष्कि्रय हो रही है। इसी तरह मुंबई में गृह मंत्रालय के मौखिक आदेशों के कारण पुलिस ने बलवाइयों को खुली छूट दी। कुल मिलाकर नतीजा यह निकलता है कि राजनीतिक निर्देश और संरक्षण के कारण वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों ने दोनों प्रकरणों में अपने कर्तव्यों का निर्वहन नहीं किया। इसका परिणाम आम जनता को भुगतना पड़ा और इस निष्कि्रयता के जो भयंकर दूरगामी परिणाम होंगे वे अपनी जगह हैं। प्रश्न यह उठता है कि देश की पुलिस किसके लिए है-क्या यह शासक वर्ग के लिए है और उसके राजनीतिक लक्ष्य की पूर्ति करना उसका कर्तव्य है या यह देश की जनता के लिए है और कानून पर चलते हुए कानून की रक्षा करना उसका सर्वोपरि कर्तव्य है।


बड़े दुर्भाग्य की बात है कि स्वतंत्रता के छह दशक बीत जाने के बाद आज भी पुलिस का सामंतवादी ढांचा बरकरार है। अंग्रेजों ने अपने साम्राज्य की रक्षा और शासक वर्ग के हितों को ध्यान में रखते हुए इस पुलिस की संरचना की थी। स्वतंत्रता या उसके शीघ्र बाद में पुलिस व्यवस्था को बदलने की आवश्यकता थी, परंतु ऐसा नहीं किया गया। आज केवल इतना ही फर्क है कि गोरे शासकों के बजाय अन्ना के शब्दों में अब काले अंग्रेजों की हुकूमत चल रही है।


आज से छह वर्ष पहले 22 सितंबर 2006 को सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस सुधार संबंधी कुछ आदेश दिए थे। इन आदेशों का लक्ष्य था कि पुलिस पर किसी तरह का बाहरी दबाव न रहे और उसे अपने कार्यो में स्वायत्तता हो ताकि वह अराजक तत्वों के विरुद्घ निर्भीकता से कार्रवाई कर सके। इसके अलावा पोस्टिंग व ट्रांसफर के मामलों में एक बोर्ड जिसके सदस्य वरिष्ठ पुलिस अधिकारी होंगे, के बनाए जाने का निर्देश था और यह अपेक्षा की गई थी कि उप पुलिस अधीक्षक और राजपत्रित अधिकारियों के ट्रांसफर और पोस्टिंग यह बोर्ड ही करेगा।


पुलिस के विरुद्ध गंभीर शिकायतों के निस्तारण हेतु भी राज्य और जनपद स्तर पर शिकायत बोर्ड बनाए जाने के निर्देश थे। पुलिस अधिकारियों के लिए नियुक्ति पर दो साल का कार्यकाल निर्धारित किया गया था। दुर्भाग्य से इन आदेशों को कार्यान्वित नहीं किया गया। कुछ राज्यों ने स्वीकृति का हलफनामा तो दिया है, परंतु जमीनी हालात अभी भी पहले जैसे ही हैं। अधिकांश राज्य हीला-हवाली कर रहे हैं। कुछ राज्यों ने चालाकी में कानून बना लिए हैं, जो वास्तव में सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की अवहेलना करते हैं।


कुल मिलाकर देखा जाए तो सुधार के बजाय पुलिस में गिरावट ही होती जा रही है। सवाल अब सुप्रीम कोर्ट की विश्वसनीयता का है। न्यायपालिका की जिम्मेदारी क्या निर्देश देने के बाद समाप्त हो जाती है? अगर राज्य सरकार जानबूझकर उन आदेशों की अवहेलना करती है तो क्या सुप्रीम कोर्ट की जिम्मेदारी नहीं है कि उन पर चाबुक चलाए और उन्हें अवमानना की नोटिस दे? एक तरफ पुलिस के कुछ अधिकारी शांति व्यवस्था की चुनौतियों के सामने मूक दर्शक बन गए हैं, दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट अपने आदेशों की अवहेलना को देखकर भी कोई सख्त कदम नहीं उठा रहा है।


अगर यही हालात बने रहे तो हमें शायद भूल जाना होगा कि इस देश में पुलिस नाम की कोई चीज है। हां उसे शासक वर्ग का एक मिलिशिया या बल कहा जा सकेगा। पुलिस अधिकारियों का एक वर्ग, जो सुधार के प्रति समर्पित है, अपनी मांगों को लेकर जनता के पास जाने का प्रयास कर रहा है। इन अधिकारियों का यह सोचना है कि जब तक सुधारों को जनता का समर्थन नहीं मिलेगा तब तक प्रगति नहीं होगी।


उन्होंने एक दस सूत्रीय कार्यक्रम बनाया है जिसका मुख्य संदेश यह है कि वर्तमान शासक पुलिस को जनता की पुलिस के रूप से परिवर्तित किया जाए और पुलिस के जनता के प्रति व्यवहार में आमूल परिवर्तन हो। अभियोगों के पंजीकरण में विशेष सुधार होना चाहिए। साथ ही साथ, पुलिस की जनशक्ति में वृद्धि और उसके संसाधनों के आधुनिकीकरण की आवश्यकता है। अधीनस्थ कर्मचारियों को अपने कार्यकाल में कम से कम तीन प्रोन्नतियां अवश्य मिलनी चाहिए।


पुलिसकर्मियों से बारह घंटे से ज्यादा डयूटी न ली जाए और कालांतर में इसे कम करके आठ घंटे लाया जाए। सिपाहियों की आवासीय सुविधा में भी विशेष सुधार की आवश्यकता है, इत्यादि। पीपुल्स पुलिस यानी जनता की पुलिस बनाने का यह प्रयास सही दिशा में एक सकारात्मक कदम है। देश का बहुत नुकसान हो चुका है, जनता भी बहुत त्रस्त हो चुकी है। अब भी अगर सरकार पुलिस सुधारों के प्रति सजग हो जाए और सुप्रीम कोर्ट इस विषय में सख्त रुख अपना ले तो स्थिति संभाली जा सकती है। जनता की भी इस क्षेत्र में बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। आवश्यकता है एक जन आंदोलन की, जिसमें पुलिस सुधारों की मांग की जाए, उसे शासकीय चंगुल से मुक्त कर जनता के प्रति जिम्मेदार बनाया जाए और ऐसी व्यवस्था की जाए कि पुलिस कानून और संविधान की रक्षा करना ही अपना सर्वोपरि कर्तव्य समझे।


प्रकाश सिंह उप्र और असम के पूर्व डीजीपी हैं


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