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गत 9 सितंबर को 100 मिशन पूरे करने के बाद इसरो ने एक और उपलब्धि हासिल कर ली है। उसके 101वें मिशन के रूप में जीसेट-10 उपग्रह का प्रक्षेपण सफल रहा है। भारत के अब तक के सबसे भारी संचार उपग्रह को फ्रेंच गयाना के कुरु अड्डे से एरियन रॉकेट के जरिए पृथ्वी की कक्षा में पहुंचाया गया। इसरो के अधिकारियों के मुताबिक इस अति उन्नत उपग्रह से देश में संचार क्रांति को नई ऊर्जा मिलेगी। 30 संचार ट्रांसपोंडरों से युक्त इस उपग्रह के नवंबर में संचालन योग्य होने के बाद दूरसंचार डायरेक्ट-टू-होम और रेडियो नेविगेशन सेवाओं का विस्तार होगा।
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जीपीएस संकेतों की सटीकता बढ़ाने के लिए इसमें गगन नेविगशन पेलोड भी है। जीसेट-10 का वजन करीब 3400 किलो है। इस उपग्रह पर 750 करोड़ रुपये का खर्च आया है। इस राशि में उपग्रह की लागत, प्रक्षेपण का खर्च और बीमा शामिल है। यह विचित्र बात है कि पिछले दिनों इसरो ने पीएसएलवी राकेट के जरिए दो विदेशी उपग्रह छोड़ कर उड़ानों का शतक लगाया, लेकिन 101वीं उड़ान के लिए उसे विदेशी सहयोग लेना पड़ा। इनसेट श्रेणी के भारी भरकम उपग्रहों को प्रक्षेपित करने के लिए जीएसएलवी जैसे शक्तिशाली रॉकेट की जरूरत पड़ती है। यह रॉकेट 5000 किलो तक का पेलोड भू-समकालिक कक्षा में स्थापित कर सकता है। पीएसएलवी से लैस इसरो को दूरसंवेदी उपग्रहों के लिए विदेशी सहयोग की जरूरत नहीं है, लेकिन संचार उपग्रहों के प्रक्षेपण के मामले में हम अभी आत्मनिर्भर नहीं हो पाए हैं।
ध्रुवीय कक्षाओं और छोटे उपग्रहों के मामले में इसरो ने अच्छी दक्षता हासिल कर ली है, लेकिन भू-समकालिक उपग्रह प्रक्षेपण यान (जीएसएलवी) के मामले में संपूर्ण तकनीकी दक्षता हासिल करने में इसरो के वैज्ञानिकों को बड़ी चुनौतियों से निपटना पड़ेगा। जीएसएलवी श्रृंखला के रॉकेटों की सतत सफलता को सिद्ध किया जाना अभी बाकी है। पीएसएलवी का रास्ता सुगम रहा है, लेकिन जीएसएलवी के मामले में कई अड़चनें आ रही हैं। स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन के विकास में विलंब सबसे बड़ी बाधा है। इस इंजन में संपूर्ण तकनीकी दक्षता हासिल करके ही भारत बड़े रॉकेटों का निर्माण कर सकता है। अंतरिक्ष में लंबी पारी खेलने के लिए इसरो को जीएसएलवी से भी आगे सोचना होगा। जीएसएलवी का डिजाइन और विकास दो टन वजनी संचार उपग्रहों के प्रक्षेपण के हिसाब से किया गया था। दो टन से ज्यादा वजन वाले उपग्रह छोड़ने के लिए भारत को विदेशी सहयोग लेना पड़ रहा है। उपग्रहों का विदेशी प्रक्षेपण बहुत महंगा पड़ता है।
मसलन जीसेट-8 के निर्माण 300 करोड़ रुपये खर्च हुए थे और इतना ही धन उसके प्रक्षेपण पर खर्च हुआ था। रॉकेट टेक्नोलॉजी में भारत को अभी बहुत लंबा सफर तय करना है। अंतरिक्ष की दौड़ में हमारा निकटम प्रतिद्वंद्वी चीन कई मामलों में हमसे बहुत आगे चल रहा है। चीनी रॉकेट 9 टन का पेलोड ले जा सकते हैं, लेकिन भारतीय रॉकेट अभी 2.5 टन से ज्यादा भार नहीं ले जा सकते। इसरो ने अंतरिक्ष अन्वेषण की कई महत्वाकांक्षी योजनाएं बनाई हैं। अंतरिक्ष में भारत के पहले 50 मिशन 27 वर्ष में पूरे हुए थे और अगले 50 मिशन सिर्फ दस साल में पूरे हुए। अब इसरो अगले पांच वर्षो में 58 मिशन भेजने का इरादा रखता है। मंगल और चांद पर मिशन भेजने की योजनाओं के अलावा इसरो के कार्यक्रमों में मानवयुक्त उड़ानें, सूर्य मिशन और दोबारा इस्तेमाल किए जाने वाले रॉकेटों का निर्माण शामिल है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन इस समय साल में औसतन तीन-चार मिशन भेजता है।
उसका अगले पांच वर्षो में प्रति वर्ष 12 मिशन भेजने का इरादा है। इन भावी योजनाओं की सफलता जीएसएलवी जैसे बड़े रॉकेटों पर टिकी हुई हैं। इसरो ने जीएसएलवी-1 और जीएसएलवी-2 के विकास में कुछ प्रगति की है और जीएसएलवी-3 अभी विकास के चरण में है। रॉकेट टेक्नोलॉजी में दक्षता हासिल करके ही भारत नए मिशनों की चुनौतियों से निपट सकता है।
लेखक मुकुल व्यास स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं.
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