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आंदोलन का राजनीतिक मोड़

जागरण मेहमान कोना
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Niranjan Kumarगांधी जयंती के प्रतीकात्मक महत्व को ध्यान में रखते हुए अरविंद केजरीवाल ने 2 अक्टूबर को अपनी राजनीतिक पार्टी के गठन का एलान कर दिया है। इसी के साथ अन्ना हजारे के नेतृत्व में चले आ रहे भ्रष्टाचार विरोधी और व्यवस्था परिवर्तन के आंदोलन में औपचारिक रूप से दो फाड़ हो गया है। अन्ना ने सक्रिय राजनीति में नहीं जाने का निर्णय किया है। अन्ना और अरविंद के इन नए अभियानों से देश में परिवर्तनगामी शक्तियों की दिशा और दशा क्या होगी, इसको समझने के लिए एक बार इतिहास के पन्नों को पलटना पड़ेगा। हालांकि आज परिस्थितियां अलग हैं, लक्ष्य भिन्न है और शत्रु भी अलग।



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बात स्वाधीनता आंदोलन की हो रही है। फरवरी 1922 में गांधीजी द्वारा असहयोग आंदोलन को स्थगित कर देने के पश्चात देश और कांग्रेस पार्टी में एक नए तरह का मंथन हो रहा था। तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष चितरंजन दास, मोतीलाल नेहरू, हकीम अजमल खान और विट्ठल भाई पटेल जैसे नेताओं ने अंग्रेज सरकार से संघर्ष करने के लिए असहयोग और बहिष्कार के बजाय संसद और विधानसभाओं में प्रवेश कर ब्रिटिश शासन की गतिविधियों में व्यवधान डालने और उनकी कुनीतियों का पर्दाफाश करने पर बल दिया ताकि ब्रिटिश सरकार पर दवाब डालकर स्वराज की मांग को स्वीकार करने के लिए उसे बाध्य किया जा सके। इसके लिए इन लोगों ने 1 जनवरी 1923 को कांग्रेस खिलाफत स्वराज पार्टी की स्थापना की।


स्वराजवादियों को संसद और विधानसभाओं में प्रवेश तो करना था, लेकिन इन्हें ब्रिटिश सरकार का कोई पद ग्रहण करने की अनुमति नहीं थी। गांधीजी इस समय में जेल में बंद थे, लेकिन सरदार पटेल, डॉ. अंसारी, डॉ. राजेंद्र प्रसाद और चक्रवर्ती राजगोपालाचारी जैसे अन्य नेताओं ने इन प्रस्तावों का विरोध किया। वैसे दोनों ही समूहों का लक्ष्य समान था-स्वशासन या स्वराज की प्राप्ति, फर्क था तो पद्धतियों और साधनों का। वर्तमान पर नजर डालें तो इतिहास अपने को कुछ-कुछ दोहराता सा दिखाई दे रहा है। जेपी आंदोलन के बाद संभवत: अन्ना और केजरीवाल का जनलोकपाल आंदोलन सबसे व्यापक था। हालांकि अपेक्षाकृत यह शहरी क्षेत्रों, मध्यवर्ग और बुद्धिजीवियों के बड़े वर्ग में ज्यादा मुखर था।


ग्रामीण और निम्नवर्गीय जनता इसे अभी पूरी तरह से समझ और जुड़ नहीं पाई थी, फिर भी इससे परिवर्तन की एक आस अवश्य बंधी थी, लेकिन कुछ ही समय में अन्ना टीम के वैचारिक मतभेद सामने आ गए। अन्ना और उनके कुछ सहयोगी आंदोलन को अराजनीतिक रखते हुए संघर्ष करना चाहते हैं, वहीं अरविंद केजरीवाल, प्रशांत भूषण आदि सक्रिय राजनीति में प्रवेश और चुनाव लड़कर राजनीतिक व्यवस्था में परिवर्तन करना चाहते हैं। केजरीवाल के राजनीतिक पार्टी के विजन और एजेंडा की फिलहाल एक संक्षिप्त रूपरेखा दी गई है, जो स्वराज पार्टी के आदर्शो-संकल्पों की तरह ही हैं। कुछ अन्य बिंदुओं जैसे चुनाव सुधार और विभिन्न चीजों में सीधे जन भागीदारी के अतिरिक्त केजरीवाल की पार्टी के सांसद और विधायक सरकारी सुख-सुविधाएं नहीं लेंगे। यद्यपि अन्ना हजारे ने स्पष्ट किया है कि राजनीति में आना गलत नहीं है, पर यह भी कहा कि पार्टी बना लेने से ही जनता का कल्याण होने वाला नहीं है। उधर केजरीवाल ने कहा है कि हमारे रास्ते भले अलग हो गए हैं, लेकिन मंजिल एक ही है। फिर अतीत में चलें-1923 में कांग्रेस और स्वराजवादियों के बीच मतभेद कम करने के प्रयास हुए और कांग्रेस स्वराजवादियों के कार्यक्रम का विरोध नहीं करने के लिए सहमत हो गई।


नवंबर 1923 में हुए चुनावों में संसद (केंद्रीय विधानसभा) के 101 में से 42 सीटों पर स्वराजवादियों को विजयश्री मिली और कई प्रांतों में भी स्वराज पार्टी प्रमुख दल बन गया। चुनावी सफलता के बावजूद स्वशासन के इच्छित लक्ष्य को पाने में स्वराजवादियों को कोई खास कामयाबी नहीं मिल पाई। वर्तमान में फिर वापस लौटें। आज के हालात तत्कालीन स्थितियों से भिन्न हैं। उस समय कांग्रेस, स्वराज पार्टी और आम जनता का समान शत्रु अंग्रेजी राज था, अर्थात दोस्त और दुश्मन की पहचान बहुत साफ थी। इसीलिए जन सामान्य चाहे निम्न वर्ग हो, मध्य या उच्च वर्ग, सभी की सहानुभूति देसी राजनीतिक पार्टियों या आंदोलनों के साथ थी-उनके आंतरिक मतभेदों के बावजूद, क्योंकि स्वशासन सबका लक्ष्य था। इसीलिए स्वराज पार्टी के कार्यक्रमों से असहमत होने के बावजूद अंग्रेजी राज के विरोधस्वरूप कांग्रेस या अन्य दलों अथवा जन सामान्य ने एकबद्ध होकर मजहब, जाति, क्षेत्र और भाषा आदि के सवालों से परे जाकर चुनावों में इसे बड़ी सफलता दिलवाई, लेकिन आज के शासक वर्ग ने जनता को मजहब, जाति, क्षेत्र और भाषा आदि के खांचों में इस कदर बांट रखा है कि उनका उल्लू सीधा होता रहे।


दूसरी तरफ जनता में राजनीतिज्ञों और राजनीतिक पार्टियों को लेकर पूरी तरह से निराशा, बल्कि एक दुर्भावना भर गई है। पहले की तरह राजनीति समाजसेवा का माध्यम न होकर सिर्फ स्व-सेवा का माध्यम बन गई है। लोग किसी भी राजनीतिक पार्टी पर भरोसा करने के लिए तैयार नही हैं, हालांकि यह एक खतरनाक स्थिति है। केजरीवाल की राजनीति को लेकर भी यह संशय लोगों के मन में उठ सकता है, बल्कि पूर्व में उठा भी है। इसके अतिरिक्त केजरीवाल की साख अपेक्षाकृत शहरी क्षेत्र या मध्यम या उच्च मध्यम वर्ग तक ही है, जो आम तौर पर वोट करने नहीं जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों और निम्न वर्गीय जनता में उनकी वैसी पहुंच नहीं बन पाई है और न ही यह बड़ी जनसंख्या दूसरे राजनीतिक दलों से इसके फर्क को जानने और समझने की स्थिति में है। स्पष्ट है कि इस नई राजनीतिक शुरुआत की सफलता के लिए त्याग, तपस्या और ईमानदारी का उच्च प्रतिमान स्थापित करने वाले अन्ना जैसे अराजनीतिक और नि:स्वार्थ व्यक्तित्वों के सहयोग की आवश्यकता बनी रहेगी।


याद रहे कि गांधीजी अगर अपने समय में या आज भी सर्व-स्वीकृत नेता बने हुए हैं तो इसके पीछे एक महत्वपूर्ण कारण उनका त्याग, तपस्या भरा जीवन और उनकी नि:स्वार्थता ही थी। दशकों के बाद अन्ना और केजरीवाल की टीम से एक नए परिवर्तन की आशा बनी है, लेकिन इस आशा की सफलता दोनों के साथ मिलकर काम करने में ही संभव है। इतिहास से ही सबक लें कि कुछ ही वर्षो में राष्ट्रीय कांग्रेस और स्वराज पार्टी ने लक्ष्य प्राप्ति हेतु अपने मतभेद समाप्त कर लिए और स्वाधीनता आंदोलन पूर्ण स्वराज की ओर बढ़ चला। केजरीवाल जैसों को यह समझ लेना चाहिए कि देश के जनमानस में पैठ बनाने के लिए उसे अन्ना जैसे लोगों का आक्सीजन चाहिए तो दूसरी तरफ अन्ना को भी समझना होगा कि व्यवस्था और राजनीतिक परिवर्तन की लड़ाई शुद्ध अराजनीतिक तरीकों से नहीं जीती जा सकती है। देश का भावी इतिहास दोनों के तालमेल की प्रतीक्षा कर रहा है।


लेखक  डॉ.निरंजन कुमार दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं


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