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बीस सितंबर की शाम जब दक्षिण अफ्रीका में हुए विश्व हिंदी सम्मेलन में भाग लेने के लिए दिल्ली के इंदिरा गांधी अंतराष्ट्रीय हवाई अड्डे पहुंचा तो मन में उत्साह था और पूर्वाग्रह भी। उत्साह सम्मेलन में भाग लेने का और अपनी भाषा के गौरव से जुड़ने का था तो पूर्वाग्रह यह कि सरकारी आयोजन बिल्कुल अव्यवस्थित और रस्म अदायगी की तरह होते हैं। मानकर चल रहा था कि सम्मेलन में कुछ भी अगर सार्थक चर्चा हो गई तो वह बोनस होगा। इसके पहले सूरीनाम में हुए विश्व हिंदी सम्मेलन में लेखकों के ठहरने के इंतजाम को लेकर खासा बवाल हुआ था और कई वरिष्ठ लेखकों ने बेहतर इंतजाम के लिए वहां धरना भी दिया था। एक सत्र में तो इतनी अव्यवस्था की खबर आई कि उसकी अध्यक्षता करने वाले को बताए बिना ही उनका नाम पुकारा जाने लगा।
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ऐसे अनुभव पढ़ने-जानने के बाद पूर्वाग्रह स्वाभाविक है। 1975 से शुरू हुए विश्व हिंदी सम्मेलन को लेकर हमारी अगंभीरता इस बात से साफ झलकती है कि 37 साल में सिर्फ 9 बार इसका आयोजन किया जा सका है। यह एक बानगी भर है कि सरकारें हिंदी को लेकर कितनी संजीदा रह गई हैं। बहरहाल, इस संजीदगी की बात फिर कभी। फिलहाल जोहानिसबर्ग के कुछ अनुभव जिन्हें साझा किए बिना इसकी बात अधूरी है। आखिरकार तय हुआ अंतराल इस बार जोहानिसबर्ग का हिंदी सम्मेलन इस लिहाज से अहम रहा कि कई सत्रों में सार्थक चर्चा हुई। लेखकों के सम्मान और व्यवस्था में कमी न देख संतोष हुआ। कई महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित किए गए, जो कम से कम इस बात की आश्वस्ति तो देते ही हैं कि हिंदी के लिए कुछ ठोस होगा। पहली बार इस तरह का प्रस्ताव आया है कि विगत में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलनों में पारित प्रस्ताव को रेखांकित करते हुए हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ में आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता प्रदान किए जाने के लिए समयबद्ध कार्रवाई सुनिश्चित की जाए।
पिछले दो सम्मेलनों में भी ऐसा ही प्रस्ताव पारित किया गया था, लेकिन अब तक कोई नतीजा सामने नहीं आया था। विदेश मंत्री रहते अटल बिहारी वाजपेयी ने जरूर संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी में भाषण देकर हिंदुस्तानियों का दिल जीत लिया था, लेकिन बाद में उनकी सरकार के कार्यकाल में कोई गंभीर कोशिश हुई हो, ऐसा ज्ञात नहीं है। कांग्रेस शासन के दौरान तो पता नहीं कुछ किया भी गया या नहीं। इसके अलावा दूसरा अहम प्रस्ताव पारित हुआ कि दो हिंदी सम्मेलनों के आयोजन के बीच यथासंभव अधिकतम तीन वर्ष का अंतराल हो। अब तक कोई भी अंतराल तय नहीं था। सरकारों की इच्छा और अफसरों की मर्जी पर विश्व हिंदी सम्मेलन का होते रहे हैं। अब यदि भारत सरकार ने यह इच्छाशक्ति दिखाई है कि वह अधिकतम तीन वषरें के अंतराल पर विश्व हिंदी सम्मेलन का आयोजन करेगी तो ये संतोष की बात है। अगर यह मुमकिन हो पाता है तो इससे हिंदी का काफी भला होगा। हिंदी को लेकर वैश्विक स्तर पर एक चिंता और उससे निपटने के उपायों पर विमर्श की नियमित शुरुआत तो होगी।
हिंदी को लेकर सरकारों की नीतियां भी साफ तौर पर सामने आ पाएंगी। दो सम्मेलनों के बीच अंतराल तय करने के लिए जोहानिसबर्ग में पत्रकारों ने लगातार सवाल उठाए। मुमकिन है कि यह प्रस्ताव उसके बाद ही जोड़ा गया हो । बॉलीवुड की खामोश भूमिका प्रस्तावों के अलावा इस बार सम्मेलन के दौरान जिस तरह का उत्साह और स्थानीय लोगों की भागीदारी देखने को मिली, वह रेखांकित करने योग्य है। जोहानिसबर्ग से चंद किलोमीटर दूर सैंडटन उपनगर में हुए इस समारोह में सैकड़ों स्थानीय लोग सुबह से शाम तक चल रहे सत्रों में चर्चा सुनने के लिए मौजूद रहे। यहां जोहानिसबर्ग के अलावा डरबन और केपटाउन जैसे दूर के दक्षिण अफ्रीकी शहरों से भी लोग आए थे। तमाम लोगों से बात करने पर जो एक अहम बात उभरकर सामने आई, वह यह कि हिंदी टीवी चैनलों और बॉलीवुड ने हिंदी के प्रसार के लिए बगैर शोर मचाए बहुत बड़ा काम किया है। भाषा के प्रसार में इन्होंने अहम, लेकिन खामोश भूमिका निभाई है। जोहानिसबर्ग में एक ड्राइवर को वहां के लोकल एफएम चैनल लोटस पर हिंदी गाना सुनते हुए जब हमने पूछा कि आपको समझ में आता है, तो उनका जवाब मजेदार था। बोले कि वी डोंट अंडरस्टैंड हिंदी, बट वी एंज्वॉय हिंदी सॉन्ग्स।
कोई भी भाषा जब किसी दूसरी भाषा के लोगों को आनंद देने लगे तो समझिए कि उसका संप्रेषण अपने उरूज पर है। आम आदमी के अलावा उद्घाटन सत्र में मॉरीशस के कला और संस्कृति मंत्री चुन्नी रामप्रकाश ने भी माना कि हिंदी के प्रचार-प्रसार में बॉलीवुड फिल्मों और टीवी धाकावाहिकों का बड़ा योगदान है। उन्होंने हिंदी में भाषण देकर वहां मौजूद तमाम हिंदी भाषियों का दिल लूट लिया। उन्होंने स्वीकार किया कि उनकी जो भी हिंदी है वह सिर्फ हिंदी फिल्मों और धारावाहिकों की बदौलत है, लेकिन हिंदी के चंद मूर्धन्य कर्ता-धर्ता यह बात कभी मानेंगे नहीं। उन्हें लगता है कि हिंदी धारावाहिक और फिल्मों में इस्तेमाल होने वाली भाषा हिंदी का नाश कर रही है। इस तरह की धारणा ही हिंदी की सबसे बड़ी शत्रु है। हिंदी इतनी कमजोर नहीं है कि उसे दूसरी भाषा के शब्द आकर दूषित या भ्रष्ट कर दें। हिंदी के नीति नियंताओं को यह बात समझनी होगी कि भाषा को जितना उदार बनाया जाएगा उसका प्रसार उतना ही होगा। उसे शब्दों की किसी चौहद्दी में बांधने से उसका विकास अवरुद्ध हो सकता है। यहां हिंदी के प्रसार में मीडिया और सोशल मीडिया के योगदान की भी चर्चा हुई। विमोचनों से तार-तार मर्यादा जोहानिसबर्ग में हुए इस नौवें विश्व हिंदी सम्मेलन में कई हिंदी सेवियों को सम्मानित किया गया, लेकिन जो एक बात सबसे ज्यादा आपत्तिजनक थी, वह था किताबों का ताबड़तोड़ विमोचन।
हिंदी के चंद लेखकों की प्रचारप्रियता और जल्द से जल्द प्रसिद्ध हो जाने की होड़ ने पुस्तक विमोचन कार्यक्रम को हास्यास्पद बना दिया। होता यह था कि लेखक का नाम पुकारा जाता था और वह एक ऊंचे चबूतरे पर खड़ी विदेश राज्यमंत्री परनीत कौर के पास पहुंचता, किताब खोलकर फोटो खिंचवाता और फिर वापस। किताब विमोचन का यह कार्यक्रम हिंदी लेखकों की गरिमा के अनुरूप नहीं था और इस तरह के फोटो खिंचवाने के लिए होने वाला यह कार्यक्रम तुरंत बंद होना चाहिए। क्योंकि अंतरराष्ट्रीय मंच पर फोटो खिंचवाने की होड़ में लेखकों की मर्यादा और प्रतिष्ठा दोनों तार-तार हो रही थी। उसी दौरान एक स्थानीय नागरिक ने मुझसे पूछा था व्हाई दिस केआस (इतना कोलाहल क्यों है?)। अगर विमोचनों का कार्यक्रम रखना जरूरी ही हो तो उसे गरिमापूर्ण ढंग से किया जाना चाहिए। किताब पर चर्चा हो, लेखक का परिचय दिया जाए। फिर लेखकों को भी संयत व्यवहार करना चाहिए। जोहानिसबर्ग के नेल्सन मंडेला स्क्वायर पर आयोजित इस ढाई दिन के विश्व हिंदी सम्मेलन में मंथन के बाद अब चुनौती उन प्रस्तावों पर अमल करने की है जो यहां पारित किए गए। वरना मेरे जैसे उन तमाम हिंदी भाषियों का पूर्वाग्रह यकीन में बदल जाएगा कि ऐसे सम्मेलनों में प्रस्ताव सिर्फ औपचारिकतावश पारित किए जाते हैं। जरूरत राजनातिक इच्छाशक्ति की भी है।
गांधी जी हमेशा से भाषा और हिंदी की बातें करते थे। उस पर विचार-विमर्श करते थे, लेकिन आज की राजनीतिक पीढ़ी में कोई ऐसा नेता नजर नहीं आता जिसे भाषा को लेकर चिंता हो या उसके पास भाषा के विकास को लेकर कोई विजन हो। ऐसे में जनता का ही दायित्व है कि वह इसे आगे बढ़ाने के लिए हरसंभव कोशिश करे।
लेखक अनंत विजय स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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