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पाकिस्तान की 14 साल की बहादुर लड़की मलाला रावलपिंडी के एक अस्पताल में जिंदगी और मौत से जूझ रही है। उस पर तहरीके-तालिबान (टीटीपी) ने स्वात घाटी में बर्बर हमला किया था। उसका दोष महज इतना है कि वह स्कूल में अपनी पढ़ाई पूरी करने पर अड़ी थी, जबकि इस क्षेत्र में तालिबान का फरमान है कि लड़कियां स्कूल न जाएं। पाकिस्तान शोक में डूबा है और विश्व आक्रोशित है, किंतु उस पर हमला करने वाला तालिबान दृढ़प्रतिज्ञ है कि अगर वह बच गई तो उस पर फिर हमला किया जाएगा। तालिबान के प्रवक्ता एहसानुल्ला एहसान ने लड़कियों के लिए मलाला के अभियान को नंगई बताया है। उसने कहा कि वह पश्चिमी संस्कृति की प्रतीक बन गई थी। मलाला ने सबसे पहले 2009 में ध्यान आकर्षित किया। तब वह 11 साल की थी। उसने अपने जीवन पर पड़ने वाली तालिबानी शासन की काली छाया का वर्णन अपनी डायरी में किया था। इस काम में स्थानीय बीबीसी का सहयोग मिला था। फरवरी 2009 में इस बच्ची ने लिखा, मैं अपनी यूनिफार्म, स्कूल बैग और पेंसिल बॉक्स देख कर बहुत दुखी हूं। लड़कों के स्कूल कल खुल रहे हैं, किंतु तालिबान ने लड़कियों की शिक्षा पर रोक लगा दी है। मेरे सामने स्कूल की स्मृतियां घूम रही हैं..। तीन साल में ही यह लड़की उम्मीद और साहस की प्रतिमूर्ति बन गई थी। उसने अपनी पढ़ाई जारी रखी और अपने समर्थकों तथा आलोचकों के लिए नए मानदंड प्रस्तुत किए। इसीलिए उसे स्वात का गौरव कहा जाता है। मलाला ने पहले डॉक्टर बनने और हाल ही में जनसेवा के लिए राजनीति में कूदने की इच्छा जताई थी। मलाला की जिंदगी के लिए पूरे पाकिस्तान में प्रार्थनाओं का दौर चल रहा है। इस्लाम के सिद्धांतों की गलत व्याख्या, लैंगिक भेदभाव तथा हिंसा के बीज मुशर्रफ काल में ही पड़ गए थे। मलाला को सात अक्टूबर को तालिबानी बर्बरता का शिकार बनाया गया।
पाकिस्तान के लिए अक्टूबर का पखवाड़ा महत्वपूर्ण है। 12 अक्टूबर 1999 को जनरल मुशर्रफ ने एक नाटकीय तख्तापलट में नवाज शरीफ की सरकार को उखाड़ फेंका था। नौ वर्षो तक जनरल मुशर्रफ पाकिस्तान की सत्ता पर काबिज रहे। इस बीच उन्होंने मजहबी विभाजन में महारथ हासिल कर ली। एक तरफ उन्होंने खुद को उदारवादी के रूप में पेश किया और दूसरी तरफ सत्ता में बने रहने के लिए मुल्लाओं और दक्षिणपंथी इस्लामिक दलों के साथ खतरनाक सौदेबाजी भी की। इस प्रकार मजहबी दलों के गठबंधन का जन्म हुआ। मुत्ताहिदा मजलिस-ए-अमल (एमएमए) 2002 में चुनाव में फर्जीवाडे़ के माध्यम से खैबर पख्तूनख्वा (उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत) में सत्ता में आ गई। यह घटना पाकिस्तान की राजनीति में नए बदलाव की कारक बनी। इससे पहले वहां मजहबी दलों को पांच फीसदी से अधिक वोट नहीं मिलते थे और उनका कोई चुनावी भविष्य नहीं था। जनरल मुशर्रफ ने ऐसा सामाजिक-राजनीतिक आर्थिक तंत्र खड़ा किया जो इस्लाम की वहाबी-सलाफी धारा के प्रति सहानुभूति रखता था। इस तंत्र के विध्वंसक नतीजे सामने आए। इससे पहले उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत अपनी सहिष्णु और अहिंसक राजनीतिक परंपरा के लिए जाना जाता था। खान अब्दुल गफ्फार खान जिन्हें सीमांत गांधी के नाम से जाना जाता है, भी इसी क्षेत्र से थे। यहां एमएमए द्वारा अवामी नेशनल पार्टी को बेदखल कर देने से दक्षिणपंथी विचारधारा का इस क्षेत्र के साथ-साथ अफगानिस्तान से लगते कबीलाई इलाके में व्यापक प्रभाव बढ़ा। 9/11 के बाद के वातावरण में और मुशर्रफ कार्यकाल में दक्षिणपंथी विचाराधारा को बढ़ावा मिलने के कारण 2007 में कुख्यात बैतुल्ला महसूद के नेतृत्व में तहरीके-तालिबान (टीटीपी) का गठन स्वाभाविक था।
टीटीपी के अधीन 13 अलग-अलग आतंकवादी समूह इकट्ठा हुए, जिनका समान उद्देश्य था-आतंक के खिलाफ युद्ध में अमेरिका का साथ देने के कारण पाकिस्तान का विरोध, अफगानिस्तान में अमेरिकी नेतृत्व में पश्चिम फौज के खिलाफ हमले करना और उनके द्वारा निर्धारित इस्लामिक शरीयत कानून को आचार संहिता के तौर पर लागू करना। मुशर्रफ काल में ही पाकिस्तान में लाल मस्जिद में हुए नरसंहार के दौरान विषैली विचारधारा का एक हद तक समर्थन करने वाले सरकारी तंत्र के खिलाफ मजहबी कट्टरपंथी वर्ग खुलकर उठ खड़ा हुआ। लाल मस्जिद की जंग मुशर्रफ युग की समाप्ति की शुरुआत सिद्ध हुई। साथ ही इससे एक नई चुनौती पैदा हुई। तालिबान समर्थित विचारधारा मदरसों से निकलकर पाकिस्तानी सत्ता और नागरिक समाज में गहरे पैठ कर गई। मुशर्रफ की विदाई और जरदारी के नेतृत्व में नई नागरिक सरकार के गठन के बावजूद दक्षिणपंथी विचारधारा की गहरी पैठ पाकिस्तान को बेचैन कर रही है। यह पंजाब के गर्वनर सलमान तसीर और अल्पसंख्यक मंत्री शाहबाज भट्टी की हत्या से स्पष्ट हो जाता है। दोनों मामलों में हत्यारे सुरक्षा बलों के जवान थे और इन हत्यारों को पाकिस्तान के नागरिक समाज से खासा समर्थन मिला।
जनवरी 2011 में तसीर की हत्या के बाद पाकिस्तान में आतंकवाद का समर्थन न करने वाला उदार वर्ग भी चुप रहा। नवाज शरीफ और इमरान खान समेत किसी भी वरिष्ठ नेता ने इन हत्याओं की भर्त्सना नहीं की। इसके बजाय ये नेता दक्षिणपंथी तत्वों को समर्थन देकर पाक के आंतरिक मामलों में दखल देने के लिए अमेरिका पर दोषारोपण करने लगे। जब तक पाकिस्तान की सेना आतंकी समूहों से पूरी तरह नाता नहीं तोड़ लेती तथा पाकिस्तान का राजनीतिक प्रतिष्ठान टीटीपी की विचारधारा से खुद को अलग नहीं कर लेता तब तक मलाला का जीवन और उद्देश्यपूर्ण संघर्ष व्यर्थ ही रहेगा।
लेखक सी उदयभाषकर सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं
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