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वंचितो से छ्ल कपट

जागरण मेहमान कोना
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आखिरकार केंद्र सरकार ने एकता परिषद की दस मांगों को मान लिया। इस अवसर पर पदयात्रा को स्थगित करते हुए एकता परिषद के अध्यक्ष राजगोपाल पीवी ने कहा कि यदि छह महीने में इस समझौते पर सकारात्मक पहल नहीं हुई तो उन्हे पुन: आगरा से दिल्ली तक पदयात्रा करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि भूमि सुधार की समग्र नीति और कानून बनाने की मांग को लेकर लगभग पचास हजार सत्याग्रहियों के साथ गांधीवादी कार्यकर्ता राजगोपाल पीवी को एक बार फिर आंदोलन की राह पकड़नी पड़ी, हालांकि सरकार ने इन सत्याग्रहियों के दस प्रश्नों के उत्तर उनके पक्ष में दिए, लेकिन यह प्रश्न तो फिर भी अनुत्तरित ही रह गया कि वंचित तबका बार-बार क्यों छला जाता है? सरकारी नीतियों में भूमिहीन मजदूरों और आदिवासियों की चिंता क्यों शामिल नहीं होती? उन्हें क्यों बार-बार ऐसे आंदोलन करने के लिए मजबूर होना पड़ता है? यह विडंबना ही है कि पांच वर्ष पूर्व राजगोपाल पीवी को 25 हजार वंचितों के साथ ग्वालियर से पदयात्रा करते हुए दिल्ली पहुंचने पर मिले आश्वासन के बावजूद पुन: 50 हजार सत्याग्रहियों के साथ ग्वालियर से दिल्ली तक की पदयात्रा करनी की योजना बनानी पड़ी।


पांच साल पहले दिल्ली में लगभग 25 हजार वंचितों की गर्जना से डरकर केंद्र सरकार ने प्रधानमंत्री की अध्यक्षता मे एक समिति गठित की थी और यह भरोसा दिलाया था कि जल्दी ही उनकी समस्याओं का समाधान किया जाएगा। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि समिति ने इस दिशा में न ही तो कोई सार्थक काम किया और न ही वंचित तबके की समस्याओं के प्रति दिलचस्पी दिखाई। सरकार के इस रवैये से आहत होकर कुछ समय पहले राजगोपाल पीवी ने कन्याकुमारी से संपूर्ण देश के लिए जनसंवाद यात्रा निकाली थी। शोषित और वंचित तबके को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक करने के उद्देश्य से निकाली गई इस जनसंवाद यात्रा ने 355 जिलों में लगभग 75 हजार किलोमीटर की दूरी तय की थी। शायद यह उस जनसंवाद यात्रा का ही असर है कि आज लगभग 50 हजार सत्याग्रहियों के दबाव में केंद्र सरकार इस मुद्दे पर समझौते के लिए तैयार हुई है। जिस तरह तीर्थयात्री मन्नत मांगने के लिए अनेक कष्ट सहकर पैदल ही तीर्थस्थल की यात्रा करते हैं, उसी तरह ये सत्याग्रही भी जल, जंगल, जमीन का अधिकार प्राप्त करने के लिए दिल्ली रूपी तीर्थस्थल की यात्रा पर निकले। इन तीर्थयात्रियों ने न तो पैरों में पड़े छालों की परवाह की और न ही अन्य परेशानियों को अपने संघर्ष में आड़े आने दिया। दरअसल ऐसे आंदोलन तुरंत नहीं उपजते हैं।


गौरतलब है कि लगभग एक दशक से भी ज्यादा समय से शोषित और वंचित तबका एकता परिषद के बैनर तले अहिंसक तरीके से अपनी मांगों को लेकर संघर्षरत है। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि भूमि अधिग्रहण विधेयक अभी तक संसद में पेश नहीं हो सका है। हालांकि इस विधेयक में भी अनेक विसंगतियां बताई जा रही हैं। एकता परिषद का मानना है कि राष्ट्रीय भूमि सुधार नीति में बदलाव किया जाना चाहिए। साथ ही राष्ट्रीय भूमि सुधार परिषद का पुनर्गठन भी होना चाहिए। भारत में लगभग ढाई करोड़ परिवार भूमिहीन हैं। एक तरफ विभिन्न सरकारें विकास का ढोल पीटती रहीं, वहीं दूसरी तरफ भूमिहीनों की संख्या बढ़ती रही। नीति निर्माताओं को शायद यह मालूम नहीं है कि आजादी के बाद विकास के नाम पर लगभग छह करोड़ लोग विस्थापित हुए हैं। सवाल यह है कि जब रियल एस्टेट और औद्योगिक घरानों के लिए जमीन का इंतजाम हो सकता है तो भूमिहीनों और आदिवासियों के लिए क्यों नहीं? इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है कि जल ,जंगल और जमीन की रक्षा करने वाले आदिवासियों को ही आज इन प्राकृतिक संसाधनों को प्राप्त करने के लिए पापड बेलने पड़ रहे हैं।


लेखक रोहित कौशिक  स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


Tag: केंद्र सरकार,भूमि अधिग्रहण, आदिवासियों,भूमि सुधार, Wancito Fraund and Cheating,Wancito Fraund,Cheating

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