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अवधेश कुमार नेपाल में इस समय भयानक भारत विरोधी अभियान चल रहा है। वहां के सिनेमा घरों में हिंदी फिल्मों का प्रदर्शन बंद हो चुका है। यूनिफाइड कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल-माओवादी से टूटकर अलग हुए मोहन किरण वैद्य की पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल-माओवादी ने धमकी दी थी कि अगर किसी सिनेमा हॉल ने हिंदी फिल्म दिखाई तो उनके समर्थक हमला कर उसे बर्बाद कर देंगे। वैद्य ने आरोप लगाया कि हिंदी फिल्में नेपाल में घृणा फैला रहीं हैं। उनके अनुसार, फिल्मों में नेपालियों को केवल नौकर के रूप में दिखाते हैं और उनके बारे में गलत धारणा पैदा होती है। वैद्य की घोषणा के साथ माओवादियों के समूहों ने भारत नेपाल सीमा क्षेत्रों में कैंप लगाकर भारत से आने वाली गाडि़यों के प्रवेश को बाधित कर दिया। उत्तर प्रदेश के महाराजगंज से लगे सोनौली सीमा क्षेत्र पर कई दिनों तक भारतीय नंबर वाले वाहनों का प्रवेश बंद रहा। नेपाल की ओर भैरहवां में हर कुछ दूरी पर चारों ओर माओवादियों ने ऐसा माहौल बना दिया, जिसमें कोई भारतीय नंबर की गाड़ी स्वयं ही प्रवेश करना न चाहे। माओवादियों ने जगह-जगह कैंप कर अंदर प्रवेश कर चुके भारतीय नंबर की गाडि़यों को रोकना और उसे नष्ट करना आरंभ कर दिया था। यह असाधारण स्थिति है।
भारत पर निर्भरता नेपाल की प्राकृतिक रचना ऐसी है कि उसे बाहर से आने वाले उपयोग की ज्यादातर सामग्रियां भारत के रास्ते ही मंगानी पड़ती है। जाहिर है, आप यदि फिल्मों के रील या सीडी प्रवेश न करने के बहाने से गाडि़यों का आवागमन रोकते हैं तो उसके साथ उपयोग की अन्य सामग्रियों का आयात भी बाधित हो जाता है। इस समय तक नेपाल की भारत पर इतनी अधिक निर्भरता है कि अगर कुछ दिनों भारत से सामग्रियां जाना बंद हो जाए तो वहां आम उपयोग के सामानों के लिए हाहाकार मच जाएगा। राजीव गांधी के शासनकाल में ऐसा हो चुका है, जब तत्कालीन नेपाली प्रधानमंत्री कृष्ण प्रसाद भट्टराई के रवैये से खीझकर भारत ने सीमा अवरुद्ध कर दिया था। 2006 और 2007 में मधेस आंदोलन के दौरान भी आंदोलनकारियों ने सीमा बाधित किया था और वहां हाहाकार मच गया था। हालांकि अब चीन के रास्ते काफी कुछ वहां आने लगा है, पर एक तो चीन नेपाल की आम दैनिक आवश्यकता के अनुसार चीजें नहीं भेजता और वहां से रास्ता इतना सुगम नहीं कि आवश्यकता के अनुसार समय पर सारी सामग्रियां पहुंचती रहें। वैद्य के नेतृत्व वाले माओवादी इसे बखूबी जानते हैं।
जहिर है, वे ऐसा कर रहे हैं तो उनका कुछ लक्ष्य होगा। ध्यान रखने की बात है कि भारतीय फिल्मों के प्रदर्शन पर रोक उनके समूचे भारत विरोध अभियान का केवल एक अंग है। वैद्य ने रेडियो पर हिंदी गानों के प्रसारणों के खिलाफ भी फतवा जारी किया। भारतीय कारखानों, व्यवसायों से लेकर उन शिक्षण संस्थानों तक पर हमले किए जा रहे हैं, जो भारतीय मदद से बने हैं। इन सबका अर्थ क्या है? वैद्य के अनुसार, ये सारे नेपाली समुदाय के अंदर विद्वेष फैलाकर दंगा करवाते हैं। क्या इनके आरोप को कतई स्वीकार किया जा सकता है? वैद्य के नेतृत्व वाले माओवादी कहते हैं कि यह नेपाल की संप्रभुता, स्वाभिमान और सम्मान की रक्षा के लिए है। क्या भारत उनकी संप्रभुता तक पर खतरा पैदा कर रहा है? यकीनन भारत के लिए ये हरकतें और इसके आधार के लिए लगाए गए आरोप अस्वीकार्य हैं। हालांकि नेपाल की सभी प्रमुख पार्टियों ने इस भारत विरोधी अभियान से स्वयं को अलग किया है। इसमें यूसीपीएन-माओवादी से लेकर नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी-मार्क्सवादी लेनिनवादी, कांगे्रस एवं सारे मधेसी समूह शामिल हैं। चार प्रमुख मधेसी समूहों के मंच संयुक्त लोकतांत्रिक मधेसी मोर्चा या यूडीएमएफ ने बाजाब्ता बैठक बुलाकर इसकी निंदा की और वैद्य के नेतृत्व वाले माओवादियों से तुरंत भारत विरोधी अभियान रोकने की मांग की। ये माओवादी इन्हें ही भारत समर्थक बताकर कठघरे में खड़ा कर रहे हैं।
यह प्रश्न शायद हमें चकित करे कि राजनीतिक गतिरोध से जूझते हुए नेपाल में आखिर अचानक भारत विरोध का प्रचंड बवंडर क्यों पैदा हो गया। कुछ लोग इसके पीछे वहां के मोटर सिंडिकेट तथा नेपाली फिल्म कारोबारियों की भूमिका मान रहे हैं। यकीनन इनकी भूमिका भी है। इसे अंध राष्ट्रवाद कहना भी पूरी तरह सही नहीं है, क्योंकि इसमें भारत विरोध ज्यादा है। वास्तव में जो कुछ हो रहा है, उसमें आश्चर्य जैसा कुछ नहीं है। नेपाल भारत संबंधों का यह एक कठोर जटिल यथार्थ है कि व्यक्तिगत रूप से आमने-सामने होने पर हमारे बीच अपनेपन का भाव होता है, पर एक देश के रूप में भारत के प्रति आम पढ़े-लिखे नेपाली के अंदर भारत विद्वेष की भावना मिलती है। नेताओं के संदर्भ में तो यह कहावत ही प्रचलित रही है कि नेपाल में तुरत लोकप्रिय होना है तो भारत का तीखा विरोध आरंभ कर दीजिए। हमारे प्रतीकों से बैर भारतीय प्रतीकों के प्रति भी इतना असम्मान और विरोध का भाव है, जिसकी सामान्यत: कल्पना नहीं की जा सकती। याद करिए, नेपाल के उपराष्ट्रपति परमानंद झा द्वारा चार वर्ष पहले धोती-कुर्ता पहनकर हिंदी में शपथ लेने का कितना विरोध हुआ था। पूरे पहाड़ी क्षेत्र में आंदोलन आरंभ हो गया। हिंदी पत्रिकाएं, अखबार, पुस्तकें जलाई जाने लगीं। धोती-कुर्ता तक की होली जलने लगी। नेपाल उच्चतम न्यायालय ने हिंदी में शपथ लेने की आलोचना ही नहीं की, उसे असंवैधानिक करार दे दिया।
परमानंद झा लंबे समय तक अपने रुख पर डटे रहे। इस दौरान उनके घर पर तीन बार बम विस्फोट किया गया। विरोधियों का कहना था कि धोती-कुर्ता के साथ हिंदी तो भारतीय भाषा और वेश है, जिसे स्वीकार नहीं कर सकते। वे नेपाली में और दौरा सुरवाल पहनकर शपथ लें। खैर, मधेसी पार्टियों के दबाव से संविधान में संशोधन हुआ, जिसके अनुसार अपनी भाषा में शपथ लेने की स्वतंत्रता मिली और परमानंद झा ने दोबारा 18 महीने बाद 7 फरवरी 2010 को दौरा सुरवाल तथा सिर पर नेपाली प्रतीक काली टोपी पहनकर मैथिली में शपथ ली। मैथिली को वहां संविधान में मान्यता है। इस भावना को माओवादियों ने अपने संगठन के आरंभिक दिनों से न केवल बढ़ाया, बल्कि उनकी तथाकथित जनक्रांति के लक्ष्यों में उनके अनुसार भारत का जो साम्राज्यवादी लक्ष्य है, उससे नेपाल को मुक्त करना शामिल था। वे राजतंत्र और भारत दोनों के खिलाफ आग उगलते थे। मधेसियों की सभाओं पर माओवादियों ने सैंकड़ों हमले किए और कई में तो खूनी संघर्ष तक हुआ। प्रधानमंत्री बनने के बाद प्रचंड ने परंपरा तोड़कर पहले भारत आने की जगह चीन गए और तर्क दिया कि उन्हें ओलिंपिक में आमंत्रित किया गया है।
प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए उन्होंेने न जाने कितनी बार भारत के बारे में आपत्तिजनक तथा चेतावनी भरे वक्तव्य दिए। जाहिर है, भारत विरोध का विष माओवादियों के आम कैडर में रक्त और मांस की तरह घुला-मिला है। इससे वे स्वयं को अलग नहीं कर सकते। 19 जून को यूसीपीएन माओवादी से अलग होने के बाद वैद्य ने घोषणा किया था कि हम जन विद्रोह वाली विचारधारा को लेकर आगे बढ़ेंगे, क्योंकि प्रचंड और बाबूराम भट्टराई उस मूल विचारधारा से दूर चले गए हैं। सीपी गजुरेल, राम बहादुर थापा, नत्र विक्रम चंद जैसे नेता भी वैद्य के साथ आ गए। ये सब घोर भारत विरोधी तथा चीन के प्रति सहानुभूति रखने वाले नेता माने जाते हैं। इस समय तो वहां कोई राजा है नहीं कि ये उसके खिलाफ संघर्ष करेंगे। इनकी तथाकथित जनक्रांति की दृष्टि से आज सबसे बड़ा दुश्मन भारत है।
वास्तव में माओवादियों के बीच विभाजन का एक बड़ा आधार भारत संबंधी नीतियों को बनाया गया। वैद्य के अलग होने के पीछे अगर यह एक प्रमुख मुद्दा रहा है तो उसका प्रकटीकरण इसी तरीके से हो सकता है। जिस तरह जगह-जगह माओवादी उनके साथ खड़े हो गए, उसके संकेत अत्यंत गंभीर और चिंताजनक हैं। तत्काल सीमा की बाधाएं समाप्त हो जाएंगी, पर नेपाल के अंदर भारत विरोध के इस माओवादी अभियान का गंभीरता से संज्ञान लेना होगा। माओवादी आंदोलन से लेकर मधेस आंदोलन, चुनाव के बाद सरकार गठन से लेकर विघटनों और गठनों की प्रक्रियाओं में भारत अपनी उस भूमिका को अंजाम देने में विफल रहा, जो उसे देना चाहिए था। यह केवल भारत विरोध ही नहीं, इसमें परोक्ष तौर पर चीन का समर्थन सन्निहित है। इसलिए हमें और सजग-सक्रिय होना पड़ेगा। नेपाली दूतावास ने विरोध दर्ज कराया, पर इतना पर्याप्त नहीं है।
लेखक अवधेश कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं
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