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दुनिया भर की सरकारों की तमाम कोशिशों के बावजूद हर आठवां व्यक्ति भूख से बेहाल है। विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) की रिपोर्ट के मुताबिक 2010-12 में 86 करोड़ 80 लाख लोग भूख से जूझ रहे हैं। यह दुनिया की आबादी का 12.5 फीसदी है। यह भुखमरी उत्पादन में कमी का नहीं, बल्कि वितरण तंत्र की खामी का नतीजा है। हर साल 130 करोड़ टन खाद्य सामग्री या तो बेकार चली जाती है या फेंक दी जाती है। यह कुल उत्पादन का एक-तिहाई है। वितरण तंत्र की खामी के साथ-साथ कॉर्पोरेट खेती के बढ़ते चलन ने भी गरीबों को भुखमरी व कुपोषण के बाड़े में धकेलने का काम किया। 2007-08 में खाद्यान्न की अप्रत्याशित रूप से बढ़ी हुई कीमतों के कारण दुनिया के 37 देशों में खाद्य दंगे भड़क उठे थे। इसी से सबक लेते हुए खाद्यान्न आयात करने वाले देशों ने विदेशों में सस्ती कृषि भूमि खरीदने या पट्टे पर लेना शुरू कर दिया। इनका मकसद उन जमीनों पर खेती करना है ताकि वे अपने यहां खाद्यान्न की कमी से निपट सकें। सिर्फ सरकारें ही नहीं, कई निजी कंपनियां भी इस तरह की खरीदारी में जुटी हुई हैं। इसे खेती-किसानी की आउटसोर्सिंग की संज्ञा दी गई।
यह आउटसोर्सिंग देश के भीतर और बाहर दोनों जगह हो रही है। भूमि हड़प की इस प्रक्रिया में छोटे व सीमांत किसान तेजी से भूमिहीन श्रमिक बन रहे हैं। हालांकि इन किसानों को रोजगार, बिजली, सड़क, पैदावार व आमदनी में बढ़ोतरी आदि का प्रलोभन दिया जा रहा है, लेकिन इससे होने वाले नुकसान के बारे में स्थानीय सरकारें खामोश हैं। फिर मुआवजा, रोजगार, आमदनी आदि के मामलों में असंगठित व छोटे किसानों के हितों की अनदेखी की जा रही है।सबसे बड़ी बात यह है कि देसी-विदेशी निवेशक अधिग्रहित भूमि पर रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों के बल पर सघन खेती करते हैं। इससे जैव विविधता, मिट्टी की गुणवत्ता और भूमिगत जल पर गंभीर असर पड़ता है। देखा जाए तो कॉर्पोरेट खेती विकसित देशों और उनके पिट्ठू वित्तीय संस्थानों की कुटिल चाल का नतीजा है। 1990 के दशक से ही विकसित देश, विश्व बैंक व अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष अफ्रीका-एशिया के गरीब देशों पर वित्तीय उदारीकरण और भूस्वामित्व संबंधी नीतियों में बदलाव लाने के लिए दबाव बना रहे हैं। इसके लिए तरह-तरह के प्रलोभन भी दिए गए। इससे प्रेरित होकर स्थानीय सरकारों ने निवेशकों को कई प्रकार की छूट दीं। उनका तर्क है कि इससे रोजगार के अवसर निकलेंगे, तकनीकी विकास होगा और विदेशी मुद्रा आएगी।
संयक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन का भी मानना है कि 2050 खाद्यान्न उत्पादन दोगुना करने और भूखे लोगों को भोजन पहुंचाने के लिए गरीब देशों में कृषि निवेश जरूरी है। विशेषज्ञों के अनुसार अफ्रीका के चरागाहों और एशिया के मैदानी भागों में दुनिया का ब्रेड बास्केट बनने की पूरी संभावना है। इस संभावना का दोहन तभी होगा जब खेती में बड़े पैमाने पर पूंजी व तकनीक का निवेश किया जाए, लेकिन वे यह नहीं बताते कि निवेशक मुनाफे को सर्वाधिक महत्व देंगे और जल, जंगल, जमीन की सुरक्षा का शायद ही कोई ध्यान रखेंगे। फिर कार्पोरेट खेती में चुनिंदा फसलों की नकदी खेती की जाएगी जिससे इन फसलों से आम निवासियों को बहुत कम लाभ मिलेगा क्योंकि सभी उत्पाद धनी देशों के सुपर स्टोरों में चले जाएंगे। दूसरी ओर बड़े पैमाने पर नकदी फसलों की वाणिज्यिक खेती से छोटे किसान विस्थापित हो रहे हैं। बड़े-बड़े कॉर्पोरेट घरानों के कृषि क्षेत्र में आगमन से छोटे व सीमांत किसान खेती-किसानी से दूर होते जा रहे हैं। इसका एक दुष्परिणाम यह हो रहा है कि कॉर्पोरेट घरानों के रूप में देश में एक नई किस्म की जमींदारी प्रथा विकसित हो रही है। औद्योगिकरण के नाम पर ये घराने महानगरों के आसपास की उपजाऊ भूमि को बड़े पैमाने पर अधिग्रहित कर रहे हैं।
लेखक रमेश दुबे स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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