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वित्तीय घाटे का विचित्र इलाज

जागरण मेहमान कोना
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bhratसार्वजनिक इकाइयों के शेयर बेचकर सरकार अपना वित्तीय घाटा  पूरा करना चाहती है। सरकार की आमदनी कम हो और खर्च ज्यादा हो तो अंतर को वित्तीय घाटा कहा जाता है। वर्तमान में वित्तीय घाटा तेजी से बढ़ रहा है, क्योंकि खाद्य पदार्थो, डीजल एवं फर्टिलाइजर पर दी जा रही सब्सिडी का बोझ बढ़ रहा है। चिदंबरम की सोच है कि सरकारी कंपनियों के शेयर बेचकर इस घाटे की भरपाई कर ली जाए। पेंच है कि पूंजी प्राप्ति का उपयोग चालू खर्च के पोषण के लिए किया जाना है। पूंजी प्राप्ति में जमीन, शेयर, मकान, मशीन आदि की बिक्री आती है। जैसे प्रिंटिंग प्रेस का मालिक या पूर्व में खरीदे गए मकान को बेचे तो यह उसकी पूंजी प्राप्ति होगी, जबकि पोस्टर आदि की प्रिंटिंग से मिली रकम उसकी चालू प्राप्ति होगी। प्रिंटिंग प्रेस की वित्तीय हालत का सही आकलन पूंजी प्राप्ति से नहीं किया जा सकता है। मान लीजिए छपाई के धंधे में 50 हजार का घाटा लगा, लेकिन पैतृक जमीन को बेचकर 2 लाख रुपये मिल गए। प्रेस की वित्तीय स्थिति सुदृढ़ है, क्योंकि 150,000 की रकम बच रही है, परंतु वास्तव में प्रेस की हालत खस्ता है, क्योंकि छपाई के मूल धंधे में घाटा लग रहा है। सरकार द्वारा किए गए विनिवेश को इसी तरह से समझना चाहिए। सरकार को चालू खाते में भारी घाटा लग रहा है। टैक्स से मिल रही रकम की तुलना में रक्षा, वेतन, पेंशन और सब्सिडी पर खर्च ज्यादा है। पूर्व में सरकारी कंपनियों में किए गए निवेश को बेचकर इस घाटे की भरपाई की जा रही है। यह उसी तरह हुआ कि पिता द्वारा दी गई जमीन बेचकर घाटे में चलने वाला प्रिंटिंग प्रेस अपने को स्वस्थ बताए। फिर भी सरकारी कंपनियों के शेयर बेचना बहुत जरूरी है


सार्वजनिक इकाइयों की मूल समस्या है कि इनके अधिकारी जवाबदेह नहीं होते हैं। अधिकारियों के लिए अपने निजी स्वार्थ के लिए कंपनी को डुबाना लाभप्रद हो जाता है। नेहरू की सोच थी कि देश की अर्थव्यवस्था का मूल आधार सार्वजनिक इकाइयां होंगी, परंतु पिछले 50 वर्ष के वैश्विक अनुभव ने इस फार्मूले को अस्वीकार कर दिया है। सोवियत रूस के पतन का मुख्य कारण सार्वजनिक इकाइयों द्वारा अकुशल उत्पादन था। चीन ने सार्वजनिक इकाइयों की अकुशलता से बचने के लिए विदेशी निवेश को बड़े पैमाने पर आकर्षित किया है। उपरोक्त विवरण का आशय सार्वजनिक इकाइयों की भ‌र्त्सना करना कदापि नहीं है। नि:संदेह इनका हमारे आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। स्वतंत्रता के बाद दुर्गापुर एवं भिलाई में स्टील का उत्पादन शुरू हुआ, आइटीआइ ने टेलीफोन बनाए, एचएमटी ने ट्रैक्टर बनाए, भेल ने टर्बाइन बनाई इत्यादि। इन नए माल का उत्पादन करने की उस समय निजी उद्यमियों में क्षमता न थी। अब पासा पलट गया है। निजी उद्यमी पेट्रोलियम संयंत्र जैसे बड़े कारखाने लगाने में सक्षम हैं। इस बदली हुई परिस्थिति में सार्वजनिक इकाइयों की भूमिका पुनर्निर्धारित करने की जरूरत है। इस दिशा में मैसूर के दीवान विश्वेश्वरैया हमारा मार्गदर्शन करते हैं। उनका कहना था कि राज्य का काम उद्योग चलाना नहीं है, परंतु यह कार्य पूर्णतया निजी क्षेत्र पर भी नहीं छोड़ा जा सकता है। नए उद्योगों को लगाना और चलाना साहस का कार्य होता है जो अकसर निजी क्षेत्र में उपलब्ध नहीं होता है। इसलिए सरकार को नए उद्योग स्थापित करके सफलता हासिल करने के बाद निजी क्षेत्र को हस्तांतरित कर देना चाहिए।


वर्तमान में कई क्षेत्र हैं जहां नई सार्वजनिक इकाइयों को स्थापित करना लाभदायक होगा। अंतरिक्ष अथवा स्पेस तकनीकों में इसरो जैसे संगठनों ने पर्याप्त क्षमता विकसित कर ली है। हम सेटेलाइट बना सकते हैं, सेटेलाइट प्रक्षेपण कर सकते हैं, परंतु व्यापार करना इसरो जैसे संगठन का स्वभाव नहीं है। अत: देश को सेटेलाइट टेक्नोलॉजी एक्सपोर्ट कॉरपोरेशन स्थापित करना चाहिए। दूसरा क्षेत्र डब्लूटीओ, संयुक्त राष्ट्र, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष एवं विश्व बैंक जैसी संस्थाओं में लॉबी करने का है। अनेक छोटे देशों के लिए डब्लूटीओ के नियमों तथा उनके प्रभाव को समझना कठिन होता है। पश्चिमी वकील इस कार्य के लिए भारी फीस लेते हैं। हम सार्वजनिक इकाई के माध्यम से इसे सस्ते में उपलब्ध करा सकते हैं। भारत में अध्यापकों एवं डॉक्टरों की भारी संख्या है। यहां शिक्षा एवं चिकित्सा दूसरे विकासशील देशों की तुलना में अच्छी है। अफ्रीका से अनेक विद्यार्थी आ भी रहे हैं। लंदन स्कूल ऑफ इकानोमिक्स में एमए की शिक्षा की दो वर्ष की फीस लगभग 20 लाख रुपये है। उसी स्तर की शिक्षा हमारे अध्यापक संभवत: दो लाख में उपलब्ध करा सकते हैं।


इस संभावना को क्रियान्वित करने के लिए सरकार को इंडियन एजूकेशन एंड हेल्थ एक्सपोर्ट कॉरपोरेशन स्थापित करना चाहिए। इस उपक्रम का कार्य होगा कि भारत में उपलब्ध शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवाओं की रेटिंग करें। फिर इन सुविधाओं का विदेशों में प्रसार करे। वहां से छात्रों को लाए तथा उनकी शिक्षा की व्यवस्था करे। अमेरिका में बाइपास सर्जरी कराने के स्थान पर मरीज को भारत लाकर यहां सर्जरी कराना सस्ता पड़ता है। इस तरह के तमाम क्षेत्र हैं जिनमें नए निवेश की जरूरत है। सरकार को सार्वजनिक कंपनियों का पूर्ण निजीकरण करके इनके मैनेजमेंट को निजी कंपनियों के हाथ में सौंप देना चाहिए जिससे इन कंपनियों में व्याप्त अकुशलता से देश को छुटकारा मिले। मिली रकम का उपयोग नए क्षेत्र में निवेश में करना चाहिए। चिदंबरम द्वारा लागू की जा रही पालिसी दो तरह से हानिप्रद है। एक, इसमें सरकारी कंपनियों का मैनेजमेंट सरकारी अधिकारियों के हाथ में ही रहता है। अत: इनमें व्याप्त अकुशलता एवं भ्रष्टाचार से देश को छुटकारा नहीं मिलता है। दूसरे, पूंजी प्राप्ति से मिली रकम का उपयोग चालू खर्च के लिए किया जाना है।



लेखक भरत झुनझुनवाला आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं


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