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दरबार का शौक

जागरण मेहमान कोना
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इन दिनों कई राज्यों की राजधानियों में मुख्यमंत्री और उनके मंत्रियों के जनता दरबार लगाने का सिलसिला चल पड़ा है। प्रचारित किया जाता है कि यह जनता का दुख-दर्द सुनने और उसे दूर करने की कोशिश है, लेकिन असल में यह जनता दरबार नहीं राजदरबार है। इनमें सैकड़ों की भीड़ जुटती है। कोई पेंशन-छात्रवृत्ति, कोई जमीन पर कब्जे, कोई बेरोजगारी भत्ता न मिलने की गुहार लगा रहा है। राजसी ठाट-बाट के शौकीन नेताओं को यह मजमा खूब सुहा रहा है। सैकड़ों किलोमीटर दूर से, सैकड़ों रुपये खर्च कर गरीब जनता अपना दुखड़ा लिए आती है कि यदि सुशासन उनके गांव तक पहुंचता तो उन्हें यहां आने की जरूरत ही न पड़ती। सियासी चकाचौंध में मगन इन जनप्रतिनिधियों के पास यह सोचने की सुध नहीं है कि आखिर राशन कार्ड बनवाने से लेकर तीन सौ रुपये की पेंशन पाने को यह रेला राजधानी तक दौड़ा क्यों चला आ रहा है। जरूरत सरकार को जन के द्वार पर जाने की है, न कि अपने आवास पर भीड़ जुटाने की। आखिर सत्ता के उस विकेंद्रीकरण का क्या हुआ, जिससे गांव-गांव तक स्वराज और सरकार के पहुंचने का दावा ठोका गया था।


पंचायत स्तर को तो भूल ही जाइए, विकास खंड और जिला स्तर पर इन समस्याओं का हल क्यों नहींहोता। समाज के शोषक तंत्र के साथ राजनेताओं और नौकरशाही की मिलीभगत के बीच ही हमें ऐसा लोकतांत्रिक रास्ता निकालना है, जिससे जन समस्याओं को पीडि़त के दरवाजे पर ही निपटाया जा सके। यही गांधी के ग्राम स्वराज का मकसद था। आज पंचायत भवन, विकास खंड के कार्यालय धूल फांक रहे हैं। शहरों में तो मीडिया जनसमस्याओं पर रोशनी डालता है, मगर गांव-कस्बों में हालात बेहद कष्टकारी हैं। यह परेशानी कोई नई नहींहै। सरकारी कामकाज में देरी, घूसखोरी से निपटने के लिए पब्लिक सर्विस गारंटी एक्ट, सूचना का अधिकार, सतर्कता प्रतिष्ठान और जन शिकायत निवारण तंत्र बना तो दिए गए, लेकिन इन कानूनों का कोई लाभ होते दिख नहींरहा। खासकर ग्रामीण और कस्बाई इलाकों में। जनकल्याणकारी योजनाओं की कमी नहींहै, लेकिन इनका लाभ लक्षित वर्गो तक पहुंचाना सुनिश्चित करना चाहिए। मनरेगा, राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना, आंगनवाड़ी, महिला एवं बाल विकास की तमाम सामाजिक कल्याण की योजनाओं में हजारों करोड़ स्वाहा तो हो रहे हैं, मगर अपेक्षित परिणाम नहींमिल रहा।


राशन कार्ड, बिजली, पानी, स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं से सामाजिक लाभ पाने के लिए ग्रामीण ब्लॉक से लेकर जिले के सरकारी कार्यालयों की चौखटों के चक्कर लगाते रहते हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह है स्थानीय स्तर पर प्रशासन पर काम करने वाला राजनीतिक दबाव। लिहाजा ऐसी व्यवस्था कायम करनी होगी कि जिससे समस्याओं का उसके उचित स्तर पर ही निपटारा हो जाए। सरकारों को समझना होगा कि वृद्धावस्था पेंशन, विकलांगता पेंशन हो या छात्रवृत्ति जैसे सामाजिक लाभ नागरिकों के संवैधानिक अधिकार हैं। खुली बैठक में उस ग्राम पंचायत के तहत आने वाली समस्याओं की सुनवाई हो और त्वरित निस्तारण हो। विशेष मामलों में ही आवेदनों को ऊपर स्तर पर स्वीकृति के लिए भेजा जाए। मसलन खुली बैठक में ही बुजुर्ग पेंशन के लिए लिखित आवेदन करें और ग्रामीणों के समक्ष ही दस्तावेज और अन्य की आपत्तियां निस्तारित करते हुए उसे पेंशन देने का फैसला हो जाए। आपराधिक मामलों के लिए स्थानीय चौकियों और विकास खंड स्तर पर थाना स्तर के पुलिस अधिकारियों की शिरकत सुनिश्चित की जानी चाहिए। प्रशासनिक विकेंद्रीकरण को मजबूत बनाने के लिए बेहतर होगा कि धीरे-धीरे पंचायत स्तर से जिला स्तर तक सामाजिक-आर्थिक आंकड़ों का एक डाटाबेस तैयार किया जाए। इसके सहारे शीर्ष स्तर के अधिकारी शिकायतों-आवेदनों की निगरानी कर सकेंगे। तभी सरकार आपके द्वार का सपना पूरा हो सकता है।


लेखक प्रभाकर त्रिपाठी  स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं



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