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पंजाब में आतंक की आहट

जागरण मेहमान कोना
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prakashपंजाब की हालिया घटनाओं से जो संकेत मिलता है उसे शुभ नहीं कहा जा सकता। इन घटनाओं से बहुत चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है, परंतु इन्हें नजरंदाज करने में बहुत बड़ा खतरा है। कुछ तथ्य अपनी जगह अकाट्य हैं और इन्हें ध्यान में रखना आवश्यक है। पंजाब में आतंकवाद सुरक्षा बलों के अथक प्रयास से अवश्य खत्म हो गया, परंतु उसकी चिंगारी शेष रह गई थी। पाकिस्तान इस चिंगारी को बराबर हवा देने की कोशिश करता रहा है और सरकार भी यह बात अच्छी तरह जानती है। गृह राज्यमंत्री ने राज्यसभा में 9 मई, 2012 को एक बयान में कहा कि पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आइएसआइ बब्बर खालसा इंटरनेशनल यानी बीकेआइ को पुनर्जीवित करने की कोशिश कर रही है ताकि पंजाब में फिर से आतंक का माहौल बन सके। एक और बयान में 4 सितंबर, 2012 को गृह राज्यमंत्री ने पुन: कहा कि आइएसआइ सिख आतंकवादी गुटों को हर तरह की मदद दे रही है ताकि पंजाब में फिर हिंसा का तांडव हो।


इसके अलावा तत्कालीन गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने भी 13 जुलाई, 2012 को कहा कि पंजाब में आतंकवाद के पनपने का खतरा बना हुआ है। इस वर्ष के शुरू से ही एक विचित्र घटनाक्रम हो रहा है। पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या के अपराध में बब्बर खालसा के बलवंत सिंह राजोआना को 31 मार्च को पटियाला जेल में फांसी दी जानी थी। इसके विरुद्ध प्रदेश भर में कट्टरपंथियों ने माहौल बनाया। शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी ने भी बलवंत सिंह के पक्ष में आवाज उठाई। दुर्भाग्य से पंजाब के मुख्यमंत्री और उनके बेटे इस वर्ग के दबाव में आ गए और उन्होंने राष्ट्रपति से बलवंत सिंह की पैरवी की। भारत सरकार भी दब गई और बलवंत सिंह की फांसी पर रोक लगा दी गई। कट्टरपंथियों ने देख लिया कि भारत सरकार को आसानी से झुकाया जा सकता है। इसी क्रम में दूसरी घटना छह जून को हुई। इस तारीख को सिखों का एक वर्ग घल्लू घारा दिवस के रूप में मनाता है। ऑपरेशन ब्लूस्टार के दौरान जो सिख मारे गए थे, उन्हें इस दिन श्रद्धांजलि दी जाती है। इस वर्ष छह जून को एक विशेष घटना हुई। स्वर्ण मंदिर के अंदर जरनैल सिंह भिंडरावाला और उनके सहयोगियों की स्मृति में एक मेमोरियल बनाने की घोषणा की गई और उसकी नींव का पत्थर रखा गया। केंद्र ने इस घटना को हल्के में लिया, परंतु कुछ स्थानीय नेताओं ने गहरी आपत्ति प्रकट की।


भारतीय जनता पार्टी की लक्ष्मीकांता चावला, जो खरी बातें कहने के लिए जानी जाती हैं, के अनुसार भिंडरावाला के लिए स्मारक बनाना खालिस्तान आंदोलन को फिर से बल देने के षड्यंत्र का एक हिस्सा है। उन्होंने प्रश्न उठाया कि एक व्यक्ति जो सैकड़ों निर्दोष लोगों की हत्या का जिम्मेदार था, उसे शहीद की उपाधि कैसे दी जा सकती है। गृहमंत्री शिंदे ने हाल के एक बयान में स्पष्ट कर दिया है कि भारत सरकार इस मामले में कोई हस्तक्षेप नहीं करेगी। जाहिर है कि हस्तक्षेप से उत्पन्न होने वाली परिस्थितियों से भारत सरकार घबराती है, परंतु हस्तक्षेप के केवल यह मायने नहीं होते कि फिर से स्वर्ण मंदिर में सेना को भेजा जाए और निर्माण कार्य को रोका जाए। यह कार्य पंजाब पुलिस द्वारा विधि-विधान के अंतर्गत किया जा सकता है। भारत सरकार के किंकर्तव्यविमूढ़ होने का भी कोई अच्छा संदेश नहीं गया है। एक अक्टूबर को सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल कुलदीप सिंह बरार पर लंदन में जानलेवा हमला हुआ। यह हमला खालिस्तान समर्थक आतंकवादी संगठनों द्वारा किया गया था। वर्तमान में ब्रिटेन और कनाडा दो ऐसे देश हैं जहां खालिस्तान समर्थकों को काफी छूट मिली हुई है। कट्टरपंथी इन देशों के उदार नियमों का अनुचित लाभ उठाते हैं। बात यहीं खत्म नहीं होती। सात, आठ और नौ अक्टूबर को शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी द्वारा एक तीन दिवसीय अखंड पाठ का आयोजन किया गया जो तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल वैद्य के दो हत्यारों हरजिंदर सिंह जिंदा और सुखदेव सिंह सुक्खा के सम्मान में था।


कट्टरपंथियों के मुंह में जैसे खून लग गया हो। शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधन कमेटी के प्रवक्ता ने 11 अक्टूबर को जनरल वैद्य की हत्या को सही ठहराया। उन्होंने कहा कि सेना ने स्वर्ण मंदिर में जो कार्रवाई की थी उससे उत्पन्नहोने वाले आक्रोश के फलस्वरूप जनरल वैद्य मारे गए थे। इस तरह हालात बिगड़ते जा रहे हैं। केंद्र सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी है और प्रदेश सरकार आतंकवादियों की कार्रवाई का मूक समर्थन कर रही है। उपमुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल यह कहकर मामले की गंभीरता को बढ़ा रहे हैं कि स्वर्ण मंदिर के अंदर केवल गुरुद्वारा बन रहा है न कि किसी का स्मारक। आज देश के दो सर्वोच्च पदों पर हमें सिख नेतृत्व प्राप्त है। एक तो प्रधानमंत्री पद पर और दूसरा सेना प्रमुख के पद पर। देश की जनता इनसे जानना चाहेगी कि वे पंजाब में आतंकवाद की इस सुलगती हुई आग से कैसे निपटेंगे। सेना प्रमुख की भूमिका महत्वपूर्ण है। उनके एक पूर्वाधिकारी के हत्यारों का सम्मान हो रहा है। क्या उनकी यह जिम्मेदारी नहीं बनती कि वे इस पर अपना विरोध प्रकट करें। प्रधानमंत्री की जिम्मेदारी तो सबसे ज्यादा है ही। सच तो यह है कि आज खालिस्तानी संगठनों को जो बल मिल रहा है उसका बहुत बड़ा कारण यह है कि कांग्रेस ने 1984 के मुख्य हत्यारों को बराबर संरक्षण प्रदान किया। सारा देश जानता है कि कौन से तीन व्यक्ति सिखों के नरसंहार के लिए जिम्मेदार थे। इनमें से एक की तो मृत्यु हो गई और बाकी दो सरकार द्वारा दिए सुरक्षा कवच में स्वतंत्र घूम रहे हैं। अगर इन लोगों को सजा मिल गई होती तो कट्टरपंथियों के आक्रोश का एक बहुत बड़ा कारण आज न होता।


इस देश का इतिहास रहा है कि हम समस्या पर हावी होने के बाद उसे फिर से उग्र रूप धारण करने देते हैं। नागालैंड में ऐसा ही हुआ। शिलांग समझौते के बाद सरकार के नरम पड़ने के कारण नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालैंड की स्थापना हुई और इस संगठन ने अलगाववादी मांगों को फिर से हवा दी। कश्मीर के मामले में यदि भारत सरकार ने दूरदर्शिता दिखाई होती तो 1972 में शिमला समझौते के दौरान समस्या का स्थायी समाधान हो जाता, परंतु इंदिरा गांधी ने मौका गंवा दिया। आज सवाल यह है कि पंजाब समस्या, जिसका समाधान हमने इतनी कुर्बानियों के बाद ढूंढ़ लिया था, क्या फिर से ज्वलंत हो जाएगी। क्या पंजाब में फिर से आतंक का माहौल बनेगा। हम स्वनिर्मित कल्पना की दुनिया से कब ऊपर उठेंगे? पाकिस्तान की असलियत जानने के बावजूद हम क्यों उससे अमन की आशा करते हैं।


लेखक प्रकाश सिंह आंतरिक सुरक्षा के विशेषज्ञ हैं


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