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अतीत का सामना

जागरण मेहमान कोना
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c.udaybhaskar20 अक्टूबर, 1962 को भारत पर हुए औचक और अनपेक्षित चीनी हमले की वर्षगांठ की सुध आखिर भारत सरकार ने ले ही ली। 50 साल बाद ही सही। बेहद महत्वपूर्ण पहल करते हुए रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी ने देश पर अपनी जान निछावर करने वाले शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित की। यह संयोग ही है कि केरल के ही प्रबुद्ध व संवेदनशील केबिनेट मंत्री ने सख्त और दंभी कृष्णा मेनन की भारी व अक्षम्य भूल का भूल सुधार किया। जब शनिवार को दिल्ली के इंडिया गेट पर रक्षा मंत्री फूलमाला अर्पित कर रहे थे, तब सेना के तीनों अंगों के अध्यक्ष वहां मौजूद थे। यह उस भारतीय सत्ता की विलंबित किंतु मार्मिक भावाभिव्यक्ति का प्रतीक है, जो बड़ी निष्ठुरता से इस भयावह और शर्मनाक अनुभव का स्मरण या पड़ताल नहीं करना चाहती थी।


अक्टूबर 1962 की 50वीं वर्षगांठ अब पीछे छूट चुकी है और इस बार जो संकेत मिले हैं, वे भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा तथा इससे भी महत्वपूर्ण चीन के साथ इसके संबंधों के निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। इस युद्ध के संबंध में सितंबर से ही मीडिया तथा सेमीनारों में जो कुछ मंथन हुआ, वह कुल मिलाकर सकारात्मक था। इसके दो स्पष्ट लाभ नजर आते हैं। पहला फायदा यह है कि आखिरकार रक्षा मंत्रालय ने इस युद्ध की वास्तविकता को स्वीकार करने का साहस दिखा ही दिया। तिरंगे और राष्ट्रीय संप्रभुता के लिए अपने प्राण निछावर करने वाले भूले-बिसरे शहीदों और घायलों को काफी पहले ही स्मरण किया जाना चाहिए था। आशा है इस भावाभिव्यक्ति के बाद रक्षा मंत्री युद्ध में अपनी जान गंवा देने वाले 2000 से अधिक सैनिकों के परिजनों को व्यक्तिगत तौर पर अपनी भावनाओं से अवगत कराएंगे। अब रक्षा मंत्रालय को अगला कदम उठाते हुए ठंडे बस्ते में पड़ी हेंडरसन-ब्रुक्स रिपोर्ट को सार्वजनिक करने की हिम्मत दिखानी चाहिए।


मेरा सुझाव यह है कि इस रिपोर्ट का हिंदी में अनुवाद करके संसद के पटल पर रखा जाना चाहिए, ताकि हमारे जनप्रतिनिधि इस युद्ध से राष्ट्रीय सुरक्षा को मिलने वाले सबक पर सारगर्भित चर्चा कर सकें। दूसरा लाभ यह हुआ कि कुछ ही महीनों में देश के नागरिक समाज के जेहन में विस्मृत इतिहास का स्मरण हो गया। इस युद्ध और इससे भी बड़े मुद्दे-भारत में उच्चतर रक्षा प्रबंधन का छात्र होने के कारण मैं उन नई सूचनाओं को जानकर दंग रह गया, जो अक्टूबर 62 की तरफ ध्यान खींचती हैं। यह बताना जरूरी है कि तमाम सार्वजनिक दस्तावेजों को हर कोई नहीं पढ़ सकता है, फिर भी कुछ तथ्यों से 1962 की शर्मिदगी पर बेहतर तरीके से रोशनी पड़ सकती है। यह अच्छी पहल आगे बढ़नी चाहिए, केवल युद्ध में शहीद हुए जवानों का यशगान करने या फिर इतिहास के कड़वे घूट पीने के लिए ही नहीं, बल्कि अतीत की अधिक संगठित और सुनियोजित पड़ताल और अध्ययन के लिए। भारत में इतिहास और खासतौर से सैन्य इतिहास हमेशा उपेक्षित विषय रहा है और यह भी एक कारण है कि भारत सरकार युद्ध तथा निर्णय लेने की प्रक्रिया से जुड़े मामलों को गोपनीयता सूची ने बाहर निकालने की इच्छुक नजर नहीं आती। अतीत का स्मरण नकारात्मक आग्रहों तक सीमित नहीं रहना चाहिए।


इसलिए 1962 के युद्ध के स्मरण के अवसर को केवल नेहरू-कृष्णा मेनन-थापर की कमी ढूंढ़ने में नहीं गंवा देना चाहिए, बल्कि संस्थागत खामियों को समझने और इन्हें दूर करने के उपाय तलाशने में लगाना चाहिए। यह संयोग ही है कि इसी सप्ताह राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन ने कौटिल्य के सिद्धांतों के आलोक में वर्तमान शासन कला को परखने की बात की। बेहद सारगर्भित व विचारोत्तेजक संबोधन में उन्होंने कहा- मैं भारतीय अतीत को आदर्श रूप में प्रस्तुत करना नहीं चाहता। इसमें जोखिम है कि विश्लेषण परंपरा ऐतिहासिक परंपरा बन जाती है, हम कारण और प्रभाव में उलझ जाते हैं और परिकल्पनाएं वास्तविकताओं में प्रतिबिंबित होने लगती हैं। मेरा कहने का तात्पर्य यह है कि हमें लगता है कि अंतरराष्ट्रीय संबंधों और सामरिक अध्ययन की समस्याओं पर हम पहली बार विचार कर रहे हैं, जबकि उन पर कुछ विद्वान पहले ही मंथन कर चुके होते हैं।


बड़े अफसोस की बात है कि हम उनकी अनदेखी कर देते हैं। हम इन समस्याओं पर विचार करने और अपनी मानसिक क्षमता को बढ़ाने के लिए अतीत की सहायता ले सकते हैं। सरकारों के व्यवहार को तार्किक कसौटी पर नहीं कसा जा सकता। इसीलिए उनके बारे में कोई पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता है। सामरिक परंपराओं और संस्कृतियों का अध्ययन हममें इसकी बेहतर समझ विकसित करता है। थोड़े से आत्मबोध से कोई हानि नहीं है। जो राष्ट्र या समाज अपने अतीत को वास्तविक और तटस्थ रूप में स्वीकार नहीं करता या जो उन लोगों के प्रति बेरुखी प्रकट करता है, जिन्होंने देश के लिए अपनी जान दे दी, वह नैतिकता और मानवता के सूचकांक में फिसलना शुरू हो जाता है। अक्टूबर 62 को लेकर पिछले 50 वर्षो से भारत शुतुरमुर्ग की तरह बर्ताव कर रहा है। उसने राष्ट्र के विस्मरण की रेत में अपना सिर दबा रखा है। एंटनी की पहल सराहना की पात्र है। इसकी अधिक अहमियत अपनी भूल को समझने में मददगार होने में है, जिससे भारत-चीन द्विपक्षीय संबंध बेहतर हो सकते हैं। अक्टूबर 1962 की ओर ले जाने वाले सीमा विवाद की प्रकृति अभी भी जस की तस है, किंतु दोनों पक्षों में यह भरोसा जरूर कायम हुआ है कि अब उस अनुभव की पुनरावृत्ति नहीं होगी।




लेखक सी उदयभाष्कर सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं



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