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देखा बाबा का गुस्सा

जागरण मेहमान कोना
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कानपुर को कड़े पानी का शहर कहा जाता है। यह कभी विजयी विश्व तिरंगा प्यारा के सर्जक श्यामलाल गुप्त पार्षद का कार्यक्षेत्र बना था, जिन्होंने अंग्रेज कलेक्टर मैक्लाइड के कुतर्क के चलते उसे कुर्सी समेत उठाकर फेंक दिया था। कुछ वैसे ही हैं कड़े पानी के कानपुर में जन्मे वरिष्ठ कथाकार रूपसिंह चंदेल, जिन्हें गोर्की से कही तोल्स्तॉय की यह बात हमेशा याद रहती है कि आलोचकों की चिंता मत करो और अपना लिखना जारी रखो। इसी तरह रमेश बतरा ने रूपसिंह को सुझाव दिया था कि साहित्य में जमना है तो दैनिकों के अलावा साहित्यिक पत्रिकाओं में भी लिखो। ऐसी अनेक बातें अपनी नई किताब यादों की लकीरें में रूपसिंह चंदेल ने लिखी हैं। यह उनकी आत्मकथा जैसी बन गई है। कहानी बनाने की कला सीखने से चंदेल के रचनाकार ने हमेशा इनकार किया, क्योंकि बनाने से बातें बनती हैं, कहानी नहीं। लेखक के रूप में चंदेल ने इस किताब में अनेक लोगों की बातें दर्ज जरूर की हैं, लेकिन किसी का कुछ बिगाड़ने का मकसद उनका नहीं रहता।


पहले ही लेख बाबा का गुस्सा में रूपसिंह ने दर्ज किया है : बात मुरादनगर की है, जिसकी पहचान वहां की ऑर्डिनेंस फैक्ट्री की वजह से कुछ खास है। इसके एच और आर टाइप मकानों में कर्मचारी रहते हैं। रूपसिंह यहां यह जानकारी भी देते हैं कि इनमें कभी अंग्रेजों के घोड़े बांधे जाते थे। वे यह सवाल भी जड़ देते हैं कि आजादी के इतने बरस बाद भी देश में कुछ लोग जानवरों जैसा जीवन जीने को अभिशप्त क्यों हैं? खटारा बस से मुरादनगर पहुंचने पर बाबा नागार्जुन के गुस्से को दर्ज करने के बाद चंदेल उनके सहज और उन्मुक्त जीवन का जो बखान करते हैं, वह देखते ही बनता है : पांच-सात मिनट बकने-झकने के बाद बाबा का गुस्सा शांत हुआ तो पानी पीकर सोफे पर पसर गए। आंखें बंद कर लीं और बुदबुदाए : थका डाला आप लोगों ने। भोजन का प्रस्ताव ठुकराते हुए बाबा बोले, थकान में भोजन.. बिलकुल नहीं! प्रकृतिस्थ होने में उन्हें आधा घंटा लगा। आधे घंटे बाद बाबा हंस-हंसकर बातें कर रहे थे। नमकीन, बिस्कुटों मिठाई का स्वाद ले रहे थे और संस्मरण सुना रहे थे।


काव्य गोष्ठी में मयंक जी हर कवि के बाद अपनी एक कविता सुना देते तो बाबा नाराज हो उठे और दोनों हाथ उठाकर चीख पड़े, बस, बहुत हो चुका। आपने अपने को कितना बड़ा कवि समझ रखा है। किसी को भी मंच पर बुलाने से पहले अपनी एक कविता पेल देते हैं। सुनकर मयंक का चेहरा उतर गया था। कालांतर में रूपसिंह चंदेल ने कहानी संग्रह आमदखोर बाबा को भेंट किया तो उन्होंने घूरते हुए पूछा, मां को समर्पित किया है? रूपसिंह ने हां में सिर हिलाया तो बाबा ने प्रतिप्रश्न किया, मां का कोई नाम तो होगा? इस पर चंदेल ने मां का नाम बताया तो बाबा बोले, तो तुमने उनका नाम क्यों नहीं लिखा? आइंदा जब भी किसी को पुस्तक समर्पित करना तो उसका नाम जरूर लिखना। ऐसा होता था बाबा का गुस्सा, लेकिन वह गुस्सा सात्विक और क्षणिक होता था, सीख देने वाला भी। घर बनाकर बाबा सादतपुर आ बसे और फिर रूपसिंह चंदेल भी। वे दिन भी किताब में दर्ज हैं : बाबा को सादतपुर की गलियों में डोलता देखता। लाठी टेकते हुए सादतपुर के हर साहित्यकार के घर जाते- रामकुमार कृषक, वीरेंद्र जैन, महेश दर्पण, धीरेंद्र अस्थाना, सुरेश सलिल, विष्णुचंद्र शर्मा से लेकर हरिपाल त्यागी तक। लाठी से सबके दरवाजे ठकठकाते, मुस्कराकर घर-भर के हालचाल पूछते और आगे बढ़ जाते। जिसके यहां बैठने की इच्छा होती, घंटा-दो घंटा बैठते, नाश्ता करते, चाय पीते। कभी-कभी किसी के यहां दो-तीन दिन तक बने रहते, बावजूद इसके कि चार कदम पर उनका अपना घर था।


इस तरह के ढेरों संस्मरणों की किताब है यादों की लकीरें। उग्र और शमशेर के बाद अजित कुमार और काशीनाथ सिंह ने संस्मरण लेखन में नई लकीरें खींची हैं तो यादों की लकीरें ने भी संस्मरण विधा में अपने अंगदी पांव जमा दिए हैं। उर्दू में मंटो, कृष्ण चंदर और अब्बास आदि ने यादगार संस्मरण लिखे हैं। उर्दू से हिंदी में आए उपेंद्रनाथ अश्क ने भी। इसके बावजूद संस्मरण लेखन को हिंदी में महत्वपूर्ण विधा का दर्जा हासिल नहीं हुआ, लेकिन इधर आत्मकथा और संस्मरण लेखन ने जोर पकड़ा और विधा के रूप में अपनी स्वीकृति के लिए उन्होंने मजबूत दावे पेश कर दिए, जो आत्मकथात्मक संस्मरणों की अनेक पुस्तकों के रूप में पाठकों के सामने हैं। इन संस्मरणों पर सुभाष नीरव ने लिखा है कि इन्हें पढ़ते हुए भ्रम होता है कि हम संस्मरण पढ़ रहे हैं या आत्मकथा, जिनमें कहानी जैसी पठनीयता ही नहीं, कथा रस भी मिलता है और आत्मकथा लेखक जैसा साहस भी। बहरहाल, चंदेल की इस कृति के पहले भाग में बाबा नागार्जुन के साथ भगवतीचरण वर्मा, विष्णु प्रभाकर, शिवप्रसाद सिंह, कमलेश्वर, नंदन, रमाकांत, राष्ट्रबंधु तथा रमेश बतरा जैसे रचनाकारों पर आत्मीय संस्मरण हैं, तो दूसरे भाग में हैं पिता, एक और कस्तूरबा, वह मेरे पथबंधु, शोभा लाल, तांगेवाला, चांदनी देवी, पहला मित्र और गर्दिश के दिनों के साथी आदि। ये वे लोग हैं, जो रूपसिंह चंदेल के साथ चले और व्यक्ति तथा लेखक, दोनों रूपों में उनका निर्माण किया। चंदेल ने सबको आत्मीयता से याद करते हुए उनके बारे में काफी कुछ अंकित किया है। ऐसा अंकन कोई कथाकार करता तो विधाता माना जाता, पर संस्मरण को वह हैसियत हासिल नहीं, जबकि चंदेल का तांगेवाला जैसा संस्मरण पढ़ सहृदय पाठकों की आंखें गीली हो उठती हैं।


भगवतीचरण वर्मा, विष्णु प्रभाकर, शिवप्रसाद सिंह, कमलेश्वर, नंदन, रमाकांत, राष्ट्रबंधु तथा रमेश बतरा , बलराम , विश्व तिरंगा, Trichrome, Trichromatic, Tricolour, Tricolor

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