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बीते दिनों विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की एक रिपोर्ट ने इस तथ्य का खुलासा किया कि भारत में 9 प्रतिशत लोग अवसाद की चपेट में हैं, जिनमें से 36 प्रतिशत इससे गंभीर रूप से पीडि़त हैं। डब्ल्यूएचओ ने चेताया कि भारत में अवसाद से ग्रस्त लोगों की संख्या में चिंताजनक बढ़ोतरी हो रही है। विश्वभर में 13 से 44 वर्ष के आयुवर्ग में अवसाद जीवनकाल घटाने वाला दूसरा सबसे कारण है और लोगों में विकलांगता पैदा करने वाला चौथा बड़ा कारण है। विभिन्न अध्ययन यह बताते हैं कि अवसादग्रस्त लोगों में आत्महत्या की प्रवृत्ति पाई जाती है। डब्ल्यूएचओ के अनुसार विश्व में हर वर्ष तकरीबन दस लाख लोग आत्महत्या करते हैं जिनमें बड़ी संख्या इस बीमारी के शिकार लोगों की होती है। प्रश्न यह उभर कर आता है कि आखिर यह अवसाद क्यों? यह सर्वविदित सत्य है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है लेकिन विगत दशकों में उसने अपनी मूलभूत विशेषता को खो दिया और जिसकी परिणति अवसाद है।
पिछले दो दशकों में भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में आमूलचूल परिवर्तन आया है। भौतिकवादी संस्कृति ने बड़ी तेजी से अपने पांव जमाए हैं। सफलता के मायने बदल चुके हैं। रिश्तों की जगह पैसों ने ले ली है। कम समय में अधिक से अधिक आर्थिक सुदृढ़ता पाने के लिए समाज का हर तबका दिन-रात की सीमाओं को लांघते हुए काम में जुटा है। यहां तक कि उसके पास स्वयं के लिए भी समय शेष नहीं बचा है। जीवन की तेज रफ्तार, गलाकाट प्रतियोगिता और असीम महत्वाकांक्षाओं के बीच हर व्यक्ति निरंतर तनाव की स्थिति में जीता है। उसका यह संघर्ष इसलिए और पीड़ादायक हो जाता, कि उसे यह समझ नहीं आता कि किसे वह अपना दोस्त माने, किस पर विश्वास करे और यह डर उसे अकेला कर देता है। एकांत अवसाद का प्रमुख कारण है।
मनुष्यता, अपनापन और सहानुभूति जैसे मनोभावों को तथाकथित आधुनिक समाज ने स्क्रैप कह कर नकार दिया है, परंतु मनुष्य-अनुकूल प्रवृत्तियों को नकारना, व्यक्ति की उपलब्धि कतई नहीं हो सकती। हो सकता है सामाजिक सहभागिता वक्ती तौर पर समय की बर्बादी नजर आए परंतु अपनों का ख्याल रखना, उनके दुख-सुख में शामिल होना, जितना समाज और परिवार के लिए जरूरी है उतना ही स्वयं के लिए क्योंकि जीवन के उस मोड़ पर जब शरीर थकने लगता है तो अपनों का प्यार, राहत और सुरक्षा दोनों देता है। महानगरीय संस्कृति में विलुप्त होती सामाजिक भावनाओं ने व्यक्ति को भीतर से खोखला कर दिया है। हां यह जरूर है कि फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल नेटवर्क में खुद को झोंकने वाली महानगरीय संस्कृति, अपने परिवार और पड़ोस का समय देना, पुरातन सोच मानती है। हमारा सांस्कृतिक ढांचा ऐसा है कि आज भी आम व्यक्ति अवसाद को रोग मानने को तैयार नहीं है और यही कारण है कि चिकित्सकीय सहायता की पहल नहीं की जाती है।
इसका यह भी है कि अन्य रोगों की तरह अवसाद के लक्षण शारीरिक रूप से नहीं दिखते, बल्कि मनोवैज्ञानिक या मानसिक स्थितियों के रूप में व्यक्त होते हैं जिन्हें आमतौर पर पीडि़त व्यक्ति का स्वभाव या उसकी परिस्थितियों का परिणाम मान लिया जाता है। यह जरूरी हो जाता है कि हर व्यक्ति आत्ममंथन करे क्योंकि इससे ही पता लग सकता है कि तनाव हम पर हावी हो रहा है या नहीं। मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी अस्सी प्रतिशत परेशानियों को बिना इलाज के ही किया जा सकता है। दिल्ली साइकेट्री एसोसिएशन के अनुसार मानसिक स्वास्थ्य को लेकर चुनौतियां बढ़ी हैं। बढ़ते मानसिक रोगियों की अपेक्षा देश भर में कुल 84 सरकारी मानसिक अस्पताल हैं जो कि बढ़ती हुई जनसंख्या के लिहाज से बहुत कम हैं। यह बेहद जरूरी हो गया है कि समाज यह चिंतन करे कि वह किस दिशा की ओर जा रहा है और उसकी कितनी घातक परिणति हमारे सामने आ रही है।
लेखिकाडॉ. ऋतु सारस्वत स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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