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पाकिस्तान का स्थापित सत्य

जागरण मेहमान कोना
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Balveer punjविगत रविवार को गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने पाकिस्तान पर भारत में अशांति पैदा करने का आरोप लगाते हुए कहा कि वह देश में आतंकवादियों की घुसपैठ कराने में मदद कर रहा है। शिंदे का बयान किसी रहस्य का उद्घाटन नहीं करता। यह अब स्थापित सत्य है कि भारत के प्रति वैर और वैमनस्य का भाव पाकिस्तान के डीएनए में ही समाहित है। पाकिस्तान के हुक्मरान बदलते रहे हैं और जब-तब दोनों देशों के बीच मैत्री कायम करने की कवायदें भी हुई हैं, किंतु कटु सत्य तो यह है कि भारत के साथ शत्रुता पाकिस्तान के अपने वजूद के लिए महत्वपूर्ण है। मुहम्मद अली जिन्ना ने 11 अगस्त, 1947 को पाकिस्तानी संसद को संबोधित करते हुए अल्पसंख्यकों व बहुसंख्यकों को बराबरी देने की बात भी की थी, परंतु उनकी यह उद्घोषणा उन सब मान्यताओं और घोषित लक्ष्यों के विपरीत थी जिसे मुस्लिम समाज ने गृहयुद्ध कर भारत के रक्तरंजित विभाजन से पाया था। स्वाभाविक है कि जिन्ना की मृत्यु के बाद पाकिस्तान फिर उसी रास्ते पर चल पड़ा जो उसके जन्म की विचारधारा में निहित था।


पाकिस्तान का जन्म अखंड भारत की कोख से हुआ। जिन क्षेत्रों को मिलाकर पाकिस्तान बनाया गया उनमें कभी वेदों की ऋचाएं सृजित हुईं। सनातन संस्कृति की जन्मभूमि होने के कारण उस भूक्षेत्र में हिंदू-सिखों के सैकड़ों मंदिर और गुरुद्वारे थे, जिनमें से कई आध्यात्मिक और एतिहासिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण थे। आज वहां क्या स्थिति है? विभाजन के दौरान पाकिस्तान की आबादी में हिंदू-सिखों का अनुपात बीस-बाइस प्रतिशत के लगभग था, जो आज घटकर एक प्रतिशत से भी कम रह गया है। उनकी आबादी में कमी का कारण यह नहीं है कि उन्होंने पाकिस्तान से पलायन कर भारत में शरण ले ली। ऐसा होता तो भारत की आबादी में परिवर्तन दर्ज होता। कटु सत्य तो यह है कि उनमें से अधिकांश मजहबी उत्पीड़न से त्रस्त होकर इस्लाम कबूलने को मजबूर हुए। जो हिंदू-सिख वहां बचे रहे उन्हें अपनी जान और अपनी महिलाओं की इज्जत-आबरू की रक्षा के लिए कट्टरपंथियों को जजिया चुकाना पड़ता है। सैकड़ों की संख्या में आज भी हिंदू-सिख पाकिस्तान से पलायन कर शरण की आशा में भारत आ रहे हैं। मंदिरों-गुरुद्वारों की संख्या वहां गौण हो चुकी है। यह स्थिति पाकिस्तान में पल रहे कट्टरवाद के कारण आई है, जो भारत की मूल व सनातन संस्कृति से खुद को अलग करने की प्रेरणा देता है।


पाकिस्तान के सृजन के बाद से ही इस्लाम के नाम पर पाकिस्तान को अरब संस्कृति का भाग बनाने के सतत प्रयास होते रहे हैं। यह संयुक्त भारत की इस्लाम पूर्व की बहुलतावादी सनातनी संस्कृति को नकारने की मानसिकता के कारण हुआ। पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति जिया उल हक की सैन्य तानाशाही के दौर में शिक्षा और कानून एवं व्यवस्था को सऊदी अरब की तर्ज पर इस्लामी मूल्यों के आधार पर चलाने की नींव पड़ी थी। पाकिस्तान के प्राथमिक विद्यालयों में इतिहास का जो पाठ्यक्रम है उसमें पश्चिम के हाथों कथित इस्लाम की जलालत और हिंदुओं से सांठगांठ कर ब्रितानियों द्वारा भारतीय उपमहाद्वीप के बड़े भाग को मुस्लिम राज से छीन लेने का उल्लेख है। यह बालपन से प्रतिशोध और घृणा का पाठ पढ़ाने के लिए काफी है। ऐसे माहौल में यदि मुंबई पर हमला करने वाले अजमल कसाब जैसे युवा पले-बढ़े हों तो उसमें आश्चर्य कैसा? पाकिस्तान सहित कई अन्य मुस्लिम बहुल देशों के संविधान में गैर मुसलमानों को दोयम दर्जे का नागरिक माना जाता है। नागरिक और सैन्य स्तर के शीर्ष पद बहुसंख्यकों के लिए आरक्षित हैं।


पाकिस्तान के सैन्य तानाशाहों ने राज्य की नीतियों के साथ मजहब का बहुत गहरा संबंध विकसित किया है। युवाओं की एक बड़ी फौज ऐसी शिक्षण व्यवस्था में पल-बढ़कर बड़ी होती है, जिसमें उनके मजहब को ही एकमात्र सच्चा पंथ बताया जाता है। जिया उल हक के कार्यकाल में कानून-ए-इहानते-रसूल बना, ताकि इस्लाम पर प्रश्न खड़ा करने का कोई अवसर ही न हो और मुल्क में उदारवाद व आधुनिक सोच के लिए कोई जगह नहीं हो। उसके बाद शासक तो बदलते रहे, किंतु पाकिस्तान की यात्रा कट्टरवाद के एक पड़ाव से दूसरे पड़ाव तक अनिरुद्ध चलती रही। हाल की दो घटनाएं पाकिस्तान में पोषित किए जा रहे कट्टरवाद को नंगा करने के लिए काफी हैं। हाल में एक ईसाई नाबालिग को वहां के एक इमाम ने ईशनिंदा के मामले में केवल इसलिए फंसा दिया, ताकि आसपास के ईसाइयों को वहां से भगाया जा सके। मानवाधिकारियों के दबाव में जब जांच हुई तो इमाम को कसूरवार पाया गया। ऐसा नहीं है कि कट्टरपंथियों का शिकार केवल गैर मुस्लिम ही बन रहे हैं। जो भी इस व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाता है उसे खामोश करने की कोशिश होती है। कुछ समय पूर्व पंजाब सूबे के गवर्नर सलमान तसीर की हत्या इसलिए कर दी गई थी, क्योंकि उन्होंने ईशनिंदा कानून में बंद ईसाई औरत आसिया बीबी को राहत देने की वकालत की थी। अभी मानवाधिकार कार्यकर्ता मलाला यूसुफजई जिंदगी और मौत से जूझ रही है। उसे पाकिस्तान में पल रही तालिबानी संस्कृति का विरोध करने पर जिहादियों ने सिर में गोली मार दी थी।


पाकिस्तान स्थित तालिबान जैसे आतंकी संगठनों और पाकिस्तान सत्तातंत्र को अलग-अलग नजरिए से देखना आत्मघाती साबित होगा। एक ओर पाकिस्तानी हुक्मरान आतंकवाद से स्वयं त्रस्त होने का दावा करते हैं और दूसरी ओर उनकी छत्रछाया में जमात उद दावा, लश्कर, हूजी जैसे संगठन भारत को क्षतविक्षत कर देने की धमकी देते हैं। आतंकवाद के खात्मे के लिए यदि पाकिस्तान इतना संजीदा है तो वह अपनी सरजमीं पर आतंकी शिविरों को पनाह ही नहीं देता। सीआइए के पास पाकिस्तानी सैन्य कमांडर जनरल कियानी द्वारा की गई एक वार्ता का ब्यौरा है, जिसमें कियानी ने तालिबान को पाक सेना की पूंजी बताया है। कियानी ने कहा है कि पाकिस्तान का ध्यान भारतीय सुरक्षा बलों पर केंद्रित है और तालिबान को खत्म करने के नाम पर मिल रही अमेरिकी सहायता से वह खुद को सशक्त करना चाहता है ताकि भारत को पराजित किया जा सके। तालिबान, लश्करे-तैयबा और अन्य जिहादी संगठनों का एकसूत्री एजेंडा इस उपमहाद्वीप पर इस्लामी वर्चस्व कायम करना है, जिसे पाकिस्तान का पूर्ण समर्थन प्राप्त है। इस दृष्टि से गृहमंत्री शिंदे ने कोई नया खुलासा नहीं किया है। पाकिस्तान दुनिया के सामने नंगा हो चुका है। चुनौती तो भारत में मौजूद उस ढांचे को खत्म करने की है जिसके कारण पाकिस्तान को भारत में अशांति और अस्थिरता पैदा करने में सफलता मिल रही है। चुनौती उस मानसिकता को ध्वस्त करने की है जो वोट बैंक की खातिर कट्टरवादी इस्लामी ढांचे को पुष्ट कर रही है।


लेखक बलबीर पुंज राज्यसभा सदस्य हैं


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