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आमतौर पर सब्सिडी इसलिए दी जाती है कि समाज के कमजोर वर्र्गो की जरूरी सेवाओं तक पहुंच बन सके, लेकिन व्यावहारिक धरातल पर इसका उल्टा हो रहा है। कृषि के लिए डीजल पर दी जाने वाली सब्सिडी का फायदा लग्जरी गाडि़यों वाले उठा रहे हैं। इसी तरह यूरिया पर दी जाने वाली सब्सिडी का दुरुपयोग हो रहा है। पिछले दिनों आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति (सीसीईए) ने यूरिया की कीमतें ढाई रुपये प्रति बोरी बढ़ाने के साथ ही यूरिया को नियंत्रणमुक्त कर इसके तहत दी जाने वाली सब्सिडी को सीधे किसानों के खाते में डालने का फैसला किया। फिलहाल इसे प्रायोगिक तौर पर देश के 10 जिलों में लागू किया जाएगा। प्रयोग सफल होने पर पूरे देश में लागू किया जाएगा।
अप्रैल 2010 में सरकार ने पोषक तत्व आधारित सब्सिडी (एनबीएस) योजना लागू की। इसमें उर्वरकों में पोषक तत्वों की मात्रा के हिसाब से सब्सिडी तय होती है न कि प्रति टन के हिसाब से। पहले जहां खादों पर अधिकतम खुदरा मूल्य (एमआरपी) के आधार पर सब्सिडी दी जाती थी, वहीं अब केवल यूरिया की सब्सिडी एमआरपी के आधार पर तय होती है, जबकि गैर-यूरिया खादों पर सब्सिडी खुदरा मूल्य के बिना ही तय हो जाती है। नतीजतन यूरिया और गैर-यूरिया कीमतों में अंतराल बढ़ गया। एनबीएस लागू होने के महज दो सालों में ही डीएपी और एमओपी की कीमतें क्रमश: 150 और 280 फीसद बढ़ चुकी है। नतीजतन उर्वरकों का असंतुलित इस्तेमाल होने लगा। इसी प्रकार का असंतुलन 1992 के बाद देखने को मिला था जब पहली बार फास्फेट व पोटाश को नियंत्रणमुक्त किया गया था। इसका एक परिणाम यह निकला कि प्रति हेक्टेयर पोषक तत्वों की उपलब्धता 146 किलो से घटकर 143 किलो रह गई। फिर मिट्टी की उर्वरा शक्ति भी घटती जा रही है।
देश में यूरिया की कीमतें पड़ोसी देशों से भी कम हैं। भारत में यूरिया की कीमत जहां 96 डॉलर प्रति टन है वहीं, पाकिस्तांन में 266 डॉलर, चीन में 296 डॉलर और अमेरिका में 526 डॉलर प्रति टन है। कीमतें कम होने से पड़ोसी देशों को इसकी तस्करी होने लगी है। फर्टिलाइजर एसोसिएशन ऑफ इंडिया के मुताबिक देश में बिकने वाली यूरिया का 15 से 20 फीसद हिस्सा तस्करी के जरिए नेपाल, बांग्लादेश पहुंचा दिया जाता है। यूरिया का जमकर दुरुपयोग भी हो रहा है। यूरिया से नकली दूध बनाने का कारोबार तो एक संगठित व्यवसाय का रूप ले चुका है। इसी को देखते हुए सरकार ने यूरिया को नियंत्रणमुक्त कर इसकी सब्सिडी को किसानों के खाते में डालने का निर्णय किया है। एक नया संकट यह है कि उर्वरकों के इस्तेमाल के अनुरूप खाद्यान्न उत्पादन न बढ़ने से किसानों का घाटा बढ़ने लगा है। फिर उर्वरकों का आयात बढ़ने से सरकार का सब्सिडी बिल भी बढ़ता जा रहा है।
यूरिया के साथ सबसे बड़ी समस्यायह है कि कीमतों के तीन-चौथाई हिस्से पर सरकार का नियंत्रण होने के कारण इस क्षेत्र में नया निवेश नहीं हो रहा है, जिससे घरेलू उत्पादन स्थिर बना हुआ है, जबकि खपत बढ़ती जा रही है। इसी का परिणाम है कि आयातित यूरिया पर निर्भरता बढ़ रही है। दूसरी ओर बिना यूरिया को शामिल किए एनबीएस प्रणाली भी अधूरी बनी हुई है। इस भ्रामक धारणा से मुक्त होने का समय आ गया है कि सस्ती खाद खेती की सबसे बड़ी जरूरत है। सच्चाई यह है कि सबसे अधिक उर्वरक इस्तेमाल करने वाले जिले पैदावार के मामले में पिछली कतार में हैं। इस समय सबसे बड़ी जरूरत मृदा जांच, फसल चक्र, हरी व जैविक खाद से मिट्टी को सजीव और उर्वर बनाने की है। इस मामले में चीन से सबक लेना चाहिए जिसने रासायनिक खादों के कम से कम प्रयोग से बेहतर फसलें पैदा कर मिसाल कायम की है।
लेखक रमेश दुबे स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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