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क्या यह राजसत्ता का दुरुपयोग नहीं !

जागरण मेहमान कोना
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raj kesorभारतीय जनता पार्टी या उसके अध्यक्ष नितिन गडकरी से मुझे कोई सहानुभूति नहीं है, बल्कि मैं भाजपा की नीतियों का विरोध करता हूं। इसने भारतीयता को एक गलत परिभाषा के हवाले कर दिया है, जैसे कांग्रेस ने गांधीवाद और बाद में समाजवाद को बदनाम कर दिया था या साम्यवादियों ने साम्यवाद की असली पहचान मिटा दी है, लेकिन गडकरी के साथ जो हो रहा है, वह स्पष्ट तौर पर अन्याय है। राजसत्ता का यह दुरुपयोग पता नहीं कब से चल रहा है। शायद ब्रिटिश शासन से ही। कहते हैं, जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं, तब वह अपने हर मंत्री और अपनी पार्टी के हर नेता की व्यक्तिगत फाइल अपने पास रखती थीं, जिसकी मदद से वह उन पर सहज ही अंकुश बनाए रखती थीं। बाद में मामला टेलीफोन की टैपिंग तक चला गया।


उच्चतम न्यायालय के स्पष्ट निर्देशों के बावजूद आज भी पता नहीं किस-किस नेता या उद्योगपति का फोन टैप हो रहा होगा। टेलीफोन छिप कर टैप किया जाता है, पर अवांछित व्यक्ति के खिलाफ जांच खुल कर होती है। इससे खबर भी बनती है और वह नेता बदनाम होता है। नितिन गडकरी की कमीज पर आज धब्बे ही धब्बे नजर आते हैं। उन पर आज जो आरोप लग रहे हैं, उनका कोई नया आधार नहीं है। जिन कंपनियों के साथ गडकरी का रिश्ता था या है, वे सभी रजिस्टर्ड कंपनियां हैं। अगर उनमें किसी तरह का घपला था, तो कंपनी लॉ बोर्ड या भारत सरकार का संबद्ध मंत्रालय अब तक क्या कर रहा था? आयकर विभाग ने भी नितिन के रुपए-पैसे की जांच शुरू कर दी है। वह भी अभी तक सोया हुआ था। इससे पता चलता है कि आयकर विभाग या अन्य सरकारी एजेंसियां कितनी चुस्त और कारगर हैं। जब सरकार को राजनीतिक कारणों से किसी के खिलाफ मुकदमा बनाना होता है, तब उनसके सारे अंग उस व्यक्ति या संगठन पर टूट पड़ते हैं। इसके बावजूद क्या हमारा यह दावा सही है कि भारत में लोकतंत्र की जड़ें लगातार मजबूत हो रही हैं? इंदिरा ने भी कराई थी ऐसी जांच 1980 में सत्ता में वापसी के बाद इंदिरा गांधी ने भी प्रत्यक्ष तौर पर ऐसी ही एक जांच कराई थी।


जयप्रकाश नारायण तथा कई गांधीवादी नेताओं ने बिहार आंदोलन का नेतृत्व किया था। यद्यपि विनोबा भावे इस आंदोलन के साथ नहीं थे और आपातकाल को उन्होंने अनुशासन पर्व बतलाया था (गंभीरता के साथ या मजाक में, यह पता नहीं), लेकिन उनके बहुत-से अनुयायी जयप्रकाश नारायण के साथ थे। गांधी के नाम से जुड़े अधिकांश संस्थानों को सरकारी अनुदान मिलता है, इसलिए इंदिरा गांधी को गांधीवादियों पर गुस्सा था। सो उन्होंने सभी अनुदान-प्राप्त गांधीय संस्थानों की अनियमितताओं की जांच करने के लिए एक आयोग ही बैठा दिया था। यह और बात है कि इससे कुछ आया-गया नहीं। मनमोहन सिंह सरकार की चलती तो वह अन्ना हजारे तथा उनके सहयोगियों और बाबा रामदेव के विरुद्ध एक जांच आयोग ही बैठा देती, लेकिन यह बहुत ज्यादा हो जाता और जनता के बीच इसकी सख्त आलोचना होती। क्योंकि देश उस समय भ्रष्टाचार के विरोध में उबल रहा था, लेकिन सरकार अपने पुराने तौर-तरीकों से डिगी नहीं। उसने इन सभी के खिलाफ कुछ न कुछ खोद निकालने की कोशिश की। सिवाय किरन बेदी के, जिन्होंने मेजबानों से हवाई यात्राओं का किराया वसूल करने में घपला किया था, कोई ऐसी बात निकल कर नहीं आ सकी, जो सरकार को सुर्खरू बनाती और इन जननेताओं का मुंह काला करती।


बाबा रामदेव पर वित्तीय अनियमितता के गंभीर आरोप लगाए गए हैं, पर अभी तक तो एक भी ऐसा मामला सामने नहीं आया है, जिसमें स्वामी को जेल हो सके। अब झख मारकर पुलिस यह पता लगाने में जुटी हुई है कि रामदेव के गुरु के अलोप हो जाने में उनके इस शिष्य का कुछ हाथ तो नहीं था। राजसत्ता का यह खुला दुरुपयोग इस सत्ता की वैधता के आगे प्रश्नचिह्न लगाता है। अपने राजनीतिक विरोधियों के पीछे अपने सिपाही लगा देना लोकतंत्र नहीं, खालिस सामंतवाद है, जिसमें व्यवस्था नहीं, व्यक्ति प्रमुख हुआ करते थे। सामंतवादी मानसिकता इसी सामंतवादी मानसिकता का दूसरा उदाहरण है हरियाणा के चार जिलों के डिप्टी कमिशनरों द्वारा सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा को भ्रष्टाचार-मुक्त घोषित कर देना। उनका कहना है कि वाड्रा को कोई भी भूखंड बाजार मूल्य से कम पर नहीं बेचा गया है। पहले इसकी जांच का जिम्मा आइएएस अधिकारी अशोक खेमका को दिया गया था, पर जब खेमका अपनी जिम्मेदारी को गंभीरता से लेने लगे, तब उन्हें तुरंत दूसरी जिम्मेदारी देकर यह काम उनसे छीन लिया गया। जाहिर है, इसके बाद जांच का जिम्मा जिन लोगों को दिया जाना था, वे वाड्रा द्वारा किए गए सौदों में कोई खोट देख ही नहीं सकते थे।


इस प्रतिकूल माहौल में गडकरी का साथ निभाने का निर्णय कर भाजपा ने अच्छा किया है या बुरा? वफादारी हमेशा अच्छी होती है, पर व्यक्ति के प्रति नहीं, सिद्धांत के प्रति। राम जन्मभूमि मंदिर आंदोलन के दौरान भाजपा की ओर से यह पोस्टर चिपकाया हुआ मिलता था जाके प्रिय न राम वैदेही। तजिए ताहि घोर वैरी सम, जद्यपि परम सनेही। गडकरी अगर कानून और जनता की निगाह में दोषी ठहरते हैं, तो उनका साथ देने का मतलब है उनके करतबों का समर्थन करना। यह गुण कांग्रेस में अरसे से रहा है। भाजपा यदि अपने को भिन्न प्रकार की पार्टी बताती है और संसद में तथा संसद के बाहर भ्रष्टाचार का विरोध करते हुए दिखाई पड़ना चाहती है, तो कोई वजह नहीं कि वह गडकरी का असह्य बोझ अपने कमजोर होते कंधों पर लादे रखे। प्रतिपक्ष को हमेशा अपने आचरण के जरिये सत्तारूढ़ दल के सामने आदर्श रखना चाहिए।


लेखक राजकिशोर वरिष्ठ स्तंभकार हैं


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