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हाल ही में तीन ऐसी घटनाएं घटी हैं, जिन्होंने हिंदी भाषा से प्रेम करने वालों को खुश होने का एक का मौका दे दिया है। एक, अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के लिए कैलिफोर्निया की मतदाता सूची और उसकी बेवसाइट हिंदी में बनाई गई है । दूसरी घटना यह हुई कि ऑस्ट्रेलिया की प्रधानमंत्री जूलिया गिलार्ड ने एलान किया कि ऑस्ट्रेलिया में हिंदी को एक भाषा के तौर पर पढ़ाया जाएगा। तीसरी बात, चीन की शंघाई यूनिवर्सिटी में हिंदी भाषा न्यास की स्थापना की जाएगी, जिसके बाद शंघाई इंटरनेशनल स्टडीज यूनिवर्सिटी में अगले साल से हिंदी भाषा का पाठ्यक्रम शुरू किया जाएगा। इन तीनों घटनाओं से एक बात तो साफ होती है कि हमारी अपनी भाषा हिंदी को अब विश्व के अन्य देशों में मान्यता मिलनी शुरू हो गई है। पढ़ाई तो पहले से ही कई देशों में जा रही थी। इन तीनों घटनाओं को हिंदी के वैश्विक होने और विदेशों में उसके एक ताकतवर भाषा के तौर पर उभरने का संकेत तो माना ही जा सकता है। इन तमाम बातों के बावजूद एक आशंका मन में उठती है कि क्या अपने देश में हिंदी की जड़ें मजबूत हो पा रही हैं? क्या हिंदी अपने ही देश में वह स्थान हासिल कर पाई है, जिसकी वह हकदार है। आज भी चंद अंग्रेजीदां लोग ही हमारे देश के नीति नियंता हैं।
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उन्हें हिंदी से लगाव ही नहीं है। देश में गांधी की विरासत का दावा करने वाली कांग्रेस पार्टी हिंदी को लेकर कितनी चिंतित है या उसे चिंता है भी या नहीं, इस बात का पता ही नहींचलता। यह तब पता चले जब पहले इस बात की जानकारी मिले कि उस पार्टी के नेता हिंदी के विकास के लिए क्या कदम उठा रहे हैं। भूले गांधी की दिखाई राह अभी मंत्रिमंडल में फेरबदल हुआ तो कई गैर-हिंदी भाषी सांसदों ने हिंदी में शपथ लेकर भाषा के प्रति अपने प्रेम का प्रदर्शन किया, लेकिन पार्टी की तरफ से बात करने वाले लोगों ने अंग्रेजी में शपथ लेकर अपनी नाक ऊंची करने की कोशिश की। ये अंग्रेजीदां लोग महात्मा गांधी की वह बात भी भूल गए हैं, जो उन्होंने 1947 में देश की आजादी के फौरन बाद कही थी। गांधी ने हरिजन में लिखा था, मेरा आशय यह है कि जिस प्रकार हमने सत्ता हड़पने वाले अंग्रेजों के राजनीतिक शासन को सफलतापूर्वक उखाड़ फेंका, उसी प्रकार हमें सांस्कृतिक अधिग्रहण करने वाली अंग्रेजी को भी हटा देना चाहिए। यह आवश्यक परिवर्तन करने में जितनी देरी हो जाएगी, उतनी ही राष्ट्र की सांस्कृतिक हानि होती जाएगी। गांधी की यह चिंता कालांतर में सही साबित हुई। हमारे समाज, सत्ता और सत्ता प्रतिष्ठानों में अंग्रेजी का वर्चस्व बढ़ता चला गया और उत्तरोत्तर हमारी हानि होती चली गई। स्वतंत्रता के बाद से ही हिंदी को लेकर नेताओं की चिंता कम होती गई। बाद में कुछ लोगों ने तो हिंदी के विस्तार को, उसके राष्ट्रभाषा के प्रस्तावित दर्जे को भावनाओं से जोड़कर ओछी राजनीति शुरू कर दी। उस राजनीति की वजह से देश में ये माहौल बन गया कि हिंदी अन्य भारतीय भाषाओं की दुश्मन है और अगर उसे बढ़ावा दिया गया तो देश की अन्य भाषाओं के सामने खत्म हो जाने का खतरा पैदा हो जाएगा।
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एक सुनियोजित तरीके से देश के दक्षिणी राज्यों में हिंदी के खिलाफ घृणा का वातावरण फैलाया गया, जो बाद में हिंसक स्वरूप ले बैठा, जबकि होना यह चाहिए था कि भाषा के संबंध में भावना को प्रमुखता न दी जाती। प्रमुखता तो भावना को सिर्फ गल्प में दी जा सकती है। इतिहास गवाह है कि भावना में बहकर कोई भी निर्णय सही नहीं हुआ है। खास तौर पर भाषा के मामले में तो प्रेम से ही काम लिया जाना चाहिए। हिंदी के मशहूर कवि मलिक मोहम्मद जायसी ने लिखा भी है तुर्की, अरबी, हिंदी, भाषा जेति आहि। जामें मारग प्रेम का, सबै सराहै ताहि। जायसी जिस प्रेम की बात कर रहे हैं, वह संवाद के जरिये पैदा किया जा सकता था। दुर्भाग्य से यह संवाद आजादी के बाद नहीं किया जा सका। सरकारी हिंदी की दुर्दशा हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिए जाने को लेकर उस वक्त के राजनेताओं के मन में भी संशय था। उस संशय को 1948-49 में डॉ. राधाकृष्णन के विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के प्रतिवेदन से समझा जा सकता है। उन्होंने लिखा था, अंग्रेजी हमारे राष्ट्र के अभ्यास का इतना अधिक अंग बन चुकी है कि एक सर्वथा भिन्न प्रणाली में प्रवेश करने में असामान्य भय प्रतीत होने लगता है। हमें ऐसा प्रतीत होता है कि बेधड़क कूदना अनिवार्य है, चाहे अंग्रेजी के कुछ भी लाभ हों तथा नए परिवर्तन में तुरंत कितने ही खतरे क्यों न हों, लेकिन सुदूर भविष्य की दृष्टि से देखा जाए तो परिवर्तन में ही अधिक लाभ होगा। राधाकृष्णन ने यह भी कहा था कि अंग्रेजी से परिवर्तन में विलंब न हो इसके लिए जरूरी है कि भारत सरकार और प्रांतीय सरकारों को संघीय तथा प्रादेशिक भाषाओं के विकास के लिए तुरंत उपाय सोचने चाहिए। लेकिन सरकारों ने तुंरत तो क्या बाद में भी इस दिशा में कोई प्रयास नहीं किया। नतीजा, आजादी के 65 साल बाद भी अंग्रेजी का वर्चस्व जस का तस कायम है । आज तो हिंदी को लेकर हालात ये हैं कि जनता के बीच इसका प्रचार-प्रसार तो बढ़ा है, लेकिन सरकारी हिंदी और भी दुरुह हो गई है। भारत सरकार के कई मंत्रालयों में काम करने वालों अफसरों और बाबुओं से बात कीजिए तो वे अपनी पीड़ा का इजहार करने लगते हैं।
उनका कहना है कि वे हिंदी में काम करना चाहते हैं, लेकिन कई सरकारी नियमावलियों का अब तक अनुवाद ही नहीं हुआ है। इस कार तकनीकी शब्दों को हिंदी में लिखने को लेकर एक भ्रम बना रहता है और भय भी। जिनके अनुवाद हुए भी हैं तो उसकी हिंदी इतनी दुरुह कर दी गई है कि उससे ज्यादा आसानी से तो अंग्रेजी ही समझी जा सकती है। इन अफसरों और बाबुओं का दर्द बहुत हद तक जायज भी है। सरकारी हिंदी इतनी ज्यादा कठिन बना दी गई है कि उसे लिखने-समझने में ज्यादा समय लगता है। 1967 में भाषा अधिनियम के पास होने के 45 साल बाद भी सरकारी नियमावलियों का पूरे तौर पर हिंदी में अनुवाद न होना सत्ता प्रतिष्ठान की हिंदी के प्रति उदासीनता को उजागर करती है। यहां एक और सवाल है, जो जेहन में उठता है कि सरकारी कामकाज में साधारण बोली-समझी जाने वाली हिंदी का इस्तेमाल क्यों नहीं हो सकता? जो अधिकारी जैसी हिंदी जानते हैं वैसी हिंदी का प्रयोग क्यों नहीं करते? क्यों वे सरकारी और दुरुह हिंदी के चक्रव्यूह में पड़कर कामकाज का सत्यानाश करते हुए भाषा का दम तोड़ देते हैं। जहां, उन्हें तकनीकी शब्दों का इस्तेमाल करना हो और उसके हिंदी विकल्प से ज्यादा समझ में आने वाला शब्द अंग्रेजी का हो तो उसी का इस्तेमाल करें, न कि उसका हिंदीकरण करें। अगर जाने के लिए जावक और आने के लिए आवक शब्द का प्रयोग होगा तो फिर तो हिंदी का भगवान ही मालिक है। कई सरकारी बेवसाइटों में अब भी डिपार्चर के लिए जावक और अराइवल के लिए आवक का प्रयोग हो रहा है। बोलने-लिखने की हिंदी अलग क्यों जब हिंदी जानने वाले अफसर और बाबुओं की टोली उस हिंदी का इस्तेमाल शुरू कर देगी, जो हिंदी वे अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में वे बोलते हैं तो समस्या का हल खुद ही निकल आएगा। उस हिंदी के इस्तेमाल से ही एक ऐसी भाषा विकसित होगी जो सहज होगी, लेकिन यहां हिंदी के शुद्धतावादियों को भी कलेजे पर पत्थर रखना होगा। तत्सम शब्दों के इस्तेमाल की वकालत करने वाले लोग यह भूल जाते हैं कि कभी-कभी इस तरह के शब्द भाषा के विकास में बाधा बनते हैं। दूसरा काम हमें यह करना होगा कि न्याय की भाषा को अंग्रेजी के शिकंजे से मुक्त करना होगा।
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कानून की भाषा अब तक अंग्रेजी ही है और उससे प्रभावित होने वालों की भाषा कुछ और। सुप्रीम कोर्ट से लेकर अन्य अदालतों के जजों को हिंदी समेत भारतीय भाषाओं में काम करना होगा। इसके लिए सरकारों को पहल करनी होगी। देश और राज्यों में लागू कानून और कानून की व्याख्या करने वाली किताबों का हिंदी सहित अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद कराना होगा। यह एक श्रमसाध्य काम है, लेकिन यदि हमें निज भाषा आगे बढ़ानी है तो औपनिवेशिक मानसिकता को कभी न कभी तो तोड़ना ही होगा। उस मानसिकता को जितना जल्दी तोड़ लें उतनी ही जल्दी हिंदी का भला हो सकेगा। आज हम ऊपर की तीन घटनाओं से खुश तो हो सकते हैं, लेकिन अगर सरकारें सचेत हुईं तो इस तरह की खुशी के कई अवसर मिलेंगे। इसके लिए सरकार को अपनी प्राथमिकता में भाषा को शामिल करना होगा। हलांकि किसी भी देश के लिए यह शर्मानक है कि विदेशी शासन से मुक्ति के 65 साल बाद भी भाषा को लेकर सरकारी प्राथमिकता तय नहीं हो पाई है।
लेखक अनंत विजय स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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