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स्वास्थ्य मोर्चे पर एक राहत देने वाली बात है कि केंद्र सरकार ने सभी नागरिकों के लिए सरकारी अस्पतालों में एक नवंबर से मुफ्त दवा देना शुरू कर दिया है। इसकी शुरुआत मध्यप्रदेश से की जा रही है, जहां मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान 8 नवंबर से शिवपुरी में इस योजना को कागजों से हकीकत के धरातल पर उतारेंगे। वैसे यह व्यवस्था अक्टूबर 2012 से लागू होनी थी, लेकिन इस इसे लागू करने में एक अनिवार्य शर्त जोड़ी गई है कि सभी सरकारी अस्पतालों व स्वास्थ्य केंद्रों के डॉक्टर इलाज के लिए केवल जेनेरिक दवाएं लिखने के लिए ही बाध्यकारी होंगे। इस शर्त से न केवल गरीब गंभीर रोगी इलाज के दायरे में आ जाएंगे, बल्कि दवा कंपनियों को ब्रांडेड दवाओं के दाम भी घटाने को मजबूर होना पड़ेगा। ऐसा तभी संभव होगा जब केंद्र और राज्य सरकारें ऐसे डॉक्टरों के खिलाफ कड़ा रुख अपनाने को हमेशा तैयार दिखें, जो मुफ्त दवा योजना लागू हो जाने के बावजूद पर्र्चो पर ब्रांडेड दवाएं लिखकर नियमों का उल्लंघन कर रहे हैं। हमारी सरकारें जिस तरह से तेल और उर्वरक कंपनियों के आगे लाचार खड़ी दिखाई देती हैं, कमोबेश यही स्थिति बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों के साथ भी है.
इसीलिए ब्रांडेड दवाएं जेनेरिक दवाओं की तुलना में न केवल कई गुना महंगी हैं, बल्कि अपने दाम के बरक्स असरकारी भी नहीं हैं। इन कंपनियों पर राष्ट्रीय दवा मूल्य प्राधिकरण के नियमों का भी कोई असर नहींहोता, जिसके मुताबिक लागत से दोगुनी से ज्यादा कीमत में दवा बाजार में नहीं बेची जा सकती है। 100 करोड़ से ज्यादा है स्वास्थ्य खर्च केंद्र सरकार ने इसी साल नवंबर से देश के सभी सरकारी चिकित्सालयों में जीवन रक्षक समेत हर प्रकार की दवाएं मुफ्त मुहैया करा दी हैं। केंद्र यदि इस योजना को ठीक से पालन कराने में सफल होता है तो यह योजना उसे 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव में गाय की पूंछ पकड़कर वैतरणी पार कराने का मंत्र भी साबित हो सकती है। ध्यान रहे 2009 के चुनाव में सप्रंग को विजयश्री परमाणु बिजली के टोटकों की बजाय गरीबों को सीधे लाभ पहुंचाने वाली मनरेगा जैसी योजना को अमल में लाने से ही मिली थी। इस दृष्टि से यह योजना यदि राष्ट्रीय फलक पर कारगर साबित होती है और यदि भविष्य में इसमें धन की कमी आड़े नहीं आती है तो संप्रग लोक को लुभाने में एक बार फिर कामयाब हो सकती है। हालांकि जिन प्रदेशों में गैर कांग्रेसी सरकारें हैं, वे इस योजना को प्रदेश सरकार की योजना बताकर श्रेय लूटने की होड़ में लग गए हैं। वित्त वर्ष 2012-13 के छह माह के लिए योजना आयोग की ओर से फिलहाल इस मुफ्त दवा योजना के मद में महज 100 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं, जबकि आम लोगों का दवा खर्च इससे कहीं ज्यादा है। टूटे कंपनियों-डॉक्टरों का गठबंधन यदि यह योजना पूरी ईमानदारी के साथ लागू की जाती है तो 12 वीं पंचवर्षीय योजना में इस पर करीब 28,560 करोड़ रुपये का खर्च आएगा। जाहिर है इस योजना को भी पैसे की कमी का सामना करना पड़ेगा।
इसलिए इस मद में धनराशि बढ़ाने के लिए केंद्र और राज्य सरकारें उस धनराशि को भी जोड़ सकती हैं, जो फिलहाल वीआइपी इलाज के बहाने सरकारी पेशेवरों और नेताओं के उपचार में खर्च कर दी जाती है। इस एक उपाय से उपचार में बरते जाने वाले भेदभाव से तो निजात मिलेगी ही, यह तथाकथित वीआइपी तबका सरकारी अस्पतालों में इलाज कराने को भी बाध्यकारी होगा। इससे न केवल सरकारी चिकित्सा सुविधाएं दुरुस्त होंगी, बल्कि आम लोगों में इस सुविधा केप्रति विश्वसनीयता भी दोबारा बहाल होगी। फिर शासन-प्रशासन के सीधे सरकारी अस्पतालों में इलाज कराने से चिकित्सकों में पर्चे पर ब्रांडेड दवाएं न लिखने का डर भी बना रहेगा। यही भय उस गठजोड़ को तोड़ सकता है, जो कंपनियों और डॉक्टरों के बीच अघोषित रुप से जारी है। यह एक ऐसी व्यवस्था है, जिसने नैतिक मानवीयता के सभी सरोकारों को पलीता लगाया हुआ है। इसी वजह से दवा कारोबार मुनाफे की हवस में तब्दील हुआ है। आज देश में स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च इतना ज्यादा बढ़ गया है कि 78 फीसद आबादी को यदि सरकारी स्वास्थ्य सेवा मुफ्त में उपलब्ध नहीं कराई जाती है तो वह जरूरी इलाज से ही वंचित रह जाएगी। फिलहाल देश की केवल 22 प्रतिशत आबादी ही सरकारी अस्पतालों में इलाज कराने पहुंचती है। इस मुफ्त दवा योजना के अंतर्गत संप्रग सरकार की मंशा है कि 2017 तक 58 फीसद मरीजों का इलाज सरकारी अस्पतालों में ही हो।
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इस मकसद की पूर्ति के लिए ही इस योजना को देश में मौजूद 1.60 लाख उपस्वास्थ्य केंद्रों 23,000 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और 640 जिला चिकित्सालयों में नवंबर 2012 से अमल में ला गया है। एम्स, चिकित्सा महाविद्यालयों से जुड़े अस्पताल और सेना व रेलवे के अस्पतालों में मुफ्त दवा योजना लागू नहीं होगी। ऐसा है योजना का प्रारूप चिकित्सक बेजा दवाएं पर्चे पर न लिखें इस नजरिये से स्वास्थ्य मंत्रालय ने एक आवश्यक दवा सूची (ईडीएल) भी तैयार की है। इस सूची में 348 प्रकार की दवाएं शामिल की गई हैं। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने स्वायत्तता बरतते हुए राज्य सरकारों को कुछ दवाएं अलग से जोड़ने की भी छूट दी है। इस लिहाज से भिन्न भौगोलिक परिस्थितियों, जलवायु कारणों और प्रदूषित पेयजल के कारण क्षेत्र विशेष में जो बीमारियां सामने आती हैं, उनके उपचार से जुड़ी दवाएं राज्य सरकारें इस सूची में जोड़ सकती है। हालंकि तमिलनाडु में पिछले 15 साल से और राजस्थान में अक्टूबर 2011 से जरूरी जीवनरक्षक दवाएं सरकारी अस्पतालों में नि:शुल्क बांटी जा रही हैं। मध्यप्रदेश सरकार ने भी बीपीएल कार्डधारियों को मुफ्त इलाज की सुविधा पहले से ही दी हुई है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के दिशा-निर्देश पर गठित डॉ. के श्रीनाथ रेड्डी के नेतृत्व में चिकित्सा और दवा विशेषज्ञों के एक समूह ने मुफ्त दवा योजना का प्रारुप तैयार किया है। इस प्रारुप में यह प्रस्ताव भी शामिल है कि दवाओं की खरीद पर 75 फीसद राशि केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय खर्च करेगा, जबकि 25 प्रतिशत राशि राज्य सरकारों को खर्च करनी होगी। इस योजना को मंजूर करते वक्त केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इस प्रस्ताव को भी मंजूरी दी है कि दवाएं थोक में खरीदी जाएंगी। इस खरीद के लिए केंद्रीय सरकारी दवा खरीद एजेंसी का भी अलग से गठन किया जाएगा। आशंकाएं यहां भी कम नहीं दवाओं की थोक में खरीद का केंद्रीकरण इस योजना को पलीता लगा सकता है, क्योंकि दवा कंपनियां जिस तरह से वर्तमान में चिकित्सकों को लालच देकर उन्हें ब्रांडेड दवाएं लिखने को बाध्य करती हैं, वही काम ये कंपनियां दवा खरीद समिति के लोगों को कमीशन देकर अपनी दवाएं खपाने में करने लगेंगी। इस कारण वे जेनेरिक दवाएं भी महंगी होती चली जाएंगी, जिनकी स्वास्थ्य मंत्रालय ने सूची तैयार की है और वही दवाएं पर्चे पर लिखने को चिकित्सकों को बाध्य किया गया है। दरअसल, अब होना तो यह चाहिए कि दवा खरीद का शत-प्रतिशत विकेंद्रीकरण हो। जो दवाएं सूचीबद्ध की गई हैं, उनके मूल्य का निर्धारण राष्ट्रीय दवा मूल्य प्राधिकरण करे। यही दवाएं अस्पताल और अस्पताल में उपलब्ध न होने पर दवा की दुकानों पर मिलें। दवाओं के रैपर पर हिंदी में मूल्य के साथ यह लिखा भी बाध्यकारी होना चाहिए कि यह दवा मुफ्त में मिलने वाली दवाओं की सूची में शामिल है।
इससे मरीज को न तो चिकित्सक ब्रांडेड दवा लिख पाएंगे और न दवा विक्रेता रोगी को जबरन ब्रांडेड दवा थोप पाएंगे। इस नीति को अमल में लाने से ब्रांडेड दवाओं के मूल्य भी धीरे-धीरे नियंत्रित होने लग जाएंगे। मूल्य नियंत्रित होंगे तो चिकित्सकों को दवा कंपनियों की ओर से जो कमीशन और देश-विदेश मुफ्त में सैर करने की सुविधाएं मुहैया कराई जाती हैं, उन पर भी लगाम लगेगी। नतीजतन कालांतर में ब्रांडेड और महंगी दवाएं चिकित्सकों की ओर से लिखे जाने के चलन से भी बाहर हो जाएंगी। यह सब कहने में जितना आसान दिखाई दे रहा है, असल में यह उतना आसान है नहीं। इसकी डगर भले ही कठिन और मंजिल दूर है, लेकिन इस दिशा में यह एक बेहतर प्रयास जरूर है। मुफ्त दवा योजना नीति की सार्थकता तभी है, जब इसका सख्ती से पालन हो। वरना इसका भी वही हश्र होगा जो अब तक दूसरी सरकारी नीतियों का होता आया है।
लेखक प्रमोद भार्गव स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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