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दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के साथ-साथ युवा देश के रूप में भी देखा जा रहा है। देश का मध्यम वर्ग करीब 40 करोड़ लोगों का है, जिसके पास देश और दुनिया को नई दिशा देने की शक्ति होती है। हमारी राजनीतिक व्यवस्था में कुछ युवा चेहरे युवाओं के सर्वमान्य नेताओं के रूप में पेश किए जा रहे हैं या प्रस्तुत हो रहे हैं, क्या वे वास्तव में भारतीय युवाओं का नेतृत्व कर पा रहे हैं या फिर इस संख्यात्मक गुणाभाग का ही एक हिस्सा हैं? ये चंद विशिष्ट चेहरे, जो किसी राजनीतिक, सामाजिक या आर्थिक दृष्टिकोण के चलते नहीं, बल्कि विशिष्ट राजनीतिक समीकरणों के चलते ऊपर पहुंचने में कामयाब हो रहे हैं, चीयर या डियर लीडर किस श्रेणी में आते हैं? यह बात बेहतर तरीके से तब समझ आती है जब हम कुछ भारतवंशियों पर नजर डालते हैं, उनकी उपलब्धियों को देखते हैं और उनके विजन का आकलन करते हैं और खुद से यह सवाल करते हैं कि आखिर भारत में ऐसा क्यों नहीं? अमेरिका में कुछ समय पहले रिपब्लिकन प्राइमरी के लिए चुनाव होने थे। तीन उम्मीदवार प्रमुख दावेदार थे। इनमें से एक टेक्सास के गवर्नर रिक पैरी, दूसरे थे मिशेल बैकमैन और तीसरे थे हरमन केन। रिक पेरी ने बहस के दौरान स्वीकार किया कि वह नहीं जानते कि पाकिस्तान के पास परमाणु हथियार हैं या नहीं। यह एक हैरतअंगेज जवाब था, क्योंकि भारत का एक सामान्य ज्ञान रखने वाला सामान्य नागरिक भी जानता है कि पाकिस्तान के पास परमाणु हथियार हैं।
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इससे भी महत्वपूर्ण जवाब हरमन केन का था क्योंकि उनकी समझ से चीन के पास एक भी परमाणु हथियार नहीं है। इससे अल्पबुद्धि वाला जवाब बैकमैन का था, क्योंकि उनकी दृष्टि में अमेरिकी स्वतंत्रता मिलने के साथ ही दासप्रथा भी खत्म हो गई। कहने का मतलब यह है कि हमें यह नहीं मानना चाहिए कि अमेरिका जैसे देश में हर प्रत्याशी योग्य ही है, उसे पूरी दुनिया का ज्ञान है और वह वैश्विक नीतियों का निर्धारण सही तरीके से कर सकता है। यानी अमेरिका में प्रत्याशी बनने की लालसा रखने वाले लोग भारत के प्रत्याशी बनने की लालसा रखने वालों से ज्यादा योग्य नहीं होते। अहम बात यह है कि उपर्युक्त तीनों रिपब्लिकन नेताओं को प्रत्याशी बनने का अवसर नहीं दिया गया, लेकिन हमारे यहां ऐसा नहीं होता। हमारे राजनीतिक दल राष्ट्रीय, वैश्विक, आर्थिक दृष्टिकोण पर ध्यान दिए बिना ही अपना प्रत्याशी घोषित कर देते हैं। यही नहीं वे जीतकर हमारे विधायी सदनों तक पहुंच जाते हैं। उनकी जीत ही उनकी योग्यता का पैमाना मान लिया जाता है और इस तरह देश पर उनकी योग्यता को थोप दिया जाता है। क्या योग्यता का यह पैमाना वास्तव में स्वीकार्य होना चाहिए? अभी सरकार में फेरबदल हुआ और कई युवा चेहरों को प्रस्तुत किया गया। क्या वास्तव में ये युवा चेहरे स्वाभाविक नेतृत्व के परिचायक हैं। इस निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले यह जरूरी है कि हम अपनी युवा राजनीति से जुड़े कुछ चेहरों पर गंभीरता से गौर करें। संभव हो तो उनकी तुलना कुछ ऐसे युवा चेहरों से करें, जो रक्त या वंश से भारत से जुड़े हैं, लेकिन अमेरिका, कनाडा, यूरोप या फिर किसी अन्य एशियाई देश की राजनीति में सक्रिय योगदान दे रहे हैं।
आज भारत के युवा नेताओं की फेहरिस्त में राहुल गांधी, अखिलेश यादव, वरुण गांधी, जितिन प्रसाद, ज्योतिरादित्य सिंधिया, जगनमोहन रेड्डी को शामिल किया जा सकता है। इस समय राष्ट्रीय चेहरे के रूप में कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को ही पेश किया जा रहा है। पिछले लंबे समय से कांग्रेस राहुल गांधी को भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रस्तुत करने की मंशा लिए उचित समय आने की प्रतीक्षा में बेचैन है। कांग्रेस उनके लिए आंतरिक लोकतंत्र को धता बताते हुए सीधे प्रधानमंत्री बनाना चाहती है। महत्वपूर्ण बात यह है कि विद्यार्थी जीवन में उन्हें कोई बौद्धिक करिश्मा करते हुए नहीं देखा गया, जिससे उन्हें एक राजनीतिक आदर्श के रूप में भारत का युवा स्वीकार कर सके। राहुल गांधी किसी दलित परिवार से नहीं हैं और न ही उनके पास संसाधनों की कमी थी। फिर योग्यता के प्रतिमानों पर वह कभी कोई करिश्मा क्यों नहीं दिखा सके? हो सकता है कि हमारे देश के बहुत से युवा यह भी न जानते हों कि राहुल की शैक्षिक योग्यता क्या है? बहस-मुबाहिसों में उन्होंने ऐसा कोई प्रदर्शन नहीं किया, जिससे उनका कद प्रधानमंत्री पद के योग्य माना जा सके। इस नवउदारवाद के युग में सबसे जरूरी यह है कि हमारे नेतृत्व के पास एक वैकल्पिक आर्थिक मॉडल हो, जिससे देश के आर्थिक भविष्य को नई दिशा दी जा सके। राहुल आज तक कोई आर्थिक मॉडल सामने नहीं रख पाए, जिससे लोग भरोसा कर सकें कि यदि राहुल सत्ता में आते हैं तो इस देश की तस्वीर कितनी बदलेगी और कैसे बदलेगी। आज तक राहुल अपने मंच से कोई ऐसा रोडमैप पेश नहीं कर पाए जिस पर चलकर देश एक विराट शक्ति के रूप में उभर सके। फिर भी वह भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रस्तुत किए जा रहे हैं, क्यों? कांग्रेस के अन्य कुछ युवा नेताओं लीजिए। सचिन पायलट, ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद जैसे नाम ही उभरकर आते हैं।
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इन सभी का ताल्लुक किसी राजपरिवार या कद्दावर नेता से रहा है। यह युवा भारत के युवा नेतृत्व की असली तस्वीर नहीं है। इसे बदलने की जरूरत है। थोड़ा बाहर की तरफ आंख उठाकर देखें तो तस्वीर साफ होगी। बॉबी जिंदल, कमला हैरिस, राज गोले, नमृता निक्की रंधावा, नीना ग्रेवाल, नाहीद नेंशी, विवियन बालाकृष्णन सरीखे तमाम ऐसे नाम हैं जिनका सरोकार भारतवंशी के रूप भारत से रहा है और अब वे अमेरिका, कनाडा, सिंगापुर जैसे देशों में राजनीतिक योगदान दे भारत को संदेश दे रहे हैं। लुसियाना के गर्वनर बॉबी जिंदल आज अमेरिकी राजनीति में राष्ट्रीय शख्सियत हैं। वह इस पद तक किसी वंशीय सीढ़ी या जातीय-क्षेत्रीय समीकरण से नहीं पहुंचे बल्कि स्वास्थ्य मंत्री से चलकर यहां तक पहुंचे। अपने इस पद पर काम करते हुए उन्होंने राज्य के मेडिकेड प्रोग्राम को 400 मिलियन डॉलर के घाटे से उबारकर 220 मिलियन डॉलर के सरप्लस में पहुंचाया था। दक्षिणी कैरोलिना की गवर्नर निक्की हेली की उपलब्धियां भी इसी तरह देखी जा सकती हैं। भारत में ऐसे उदाहरण आज शायद ही मिलें। क्या वास्तव में युवा होते भारत में योग्यता का अकाल है या फिर योग्यताओं को दरकिनार कर एक विशिष्ट राजनीतिक व्यवस्था को प्रश्रय दिया जा रहा है? इनमें से जो भी है, उसे इस देश के लोगों को देखना है। लेकिन ये दोनों ही स्थितियां कहीं से भी देशहित में नहींहैं। बहरहाल अमेरिका तो यह मान रहा है कि भारत के पास विश्व शक्ति बनने के लिए पर्याप्त संस्थागत क्षमता है। इसमें कोई शक नहीं, लेकिन देश की राजनीति और मौजूदा युवा नेतृत्व क्या इस क्षमता का प्रयोग कर पाएगा? मेरी दृष्टि में तो कम से कम उस दौर में यह बहुत मुश्किल होगा जब बाजार और राजनीति दोनों ही वंशीय व एकाधिकारवादी मानसिकता से सम्पन्न हों।
लेखक रहीस सिंह स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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