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लक्ष्मण की दृष्टि से रामकथा

जागरण मेहमान कोना
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वीरवर लक्ष्मण अपने चारों ओर विस्तीर्ण एवं अभ्यंतर में घुमड़ते-गूंजते अरण्य से जूझते चौदह वर्ष देश निकाला पाए अपने अग्रज श्रीराम के साथ विचरते रहे। रामकथा तो इस धरती के कण-कण और पत्ते-पत्ते पर लिखी हुई तथा बहुश्रुत है, परंतु त्यागमूर्ति लक्ष्मण अधिकतर मौन से चित्रित किए गए हैं। कुछ एक स्थलों पर वह जब अपने संपूर्ण तेज के साथ मुखर होते हैं तो उन्हें मर्यादाप्रिय अग्रज श्रीराम शांत करा देते हैं। ऐसा अनेक रामायणों में होता है। विचारणीय यह है कि क्या सौमित्र लक्ष्मण संपूर्ण रामकथा में सदैव मौन ही रहे होंगे? क्या उनका कोई स्वतंत्र व्यक्तित्व नहीं रहा होगा? इतना तेजस्वी, इतना कर्मठ और शौर्यवान योद्धा भला क्या इतना चुप रह सकता है? तो फिर रामानुज का स्वयं का चिंतन क्या रहा होगा? यही कुछ प्रश्न थे, जिनके उत्तर खोजने की प्रक्रिया में सुधाकर अदीब ने अपनी कृति मम अरण्य की रूपरेखा रची। यह कृति रामकथा को लक्ष्मण की दृष्टि से देखने का एक सुंदर प्रयास है। इसमें लक्ष्मण प्राय: मुखर नहीं दिखते, तो मौन भी नहीं दिखते। वह सदैव विचार-प्रक्रिया से संपृक्त नजर आते हैं। खास बात यह है कि उनकी विचारधारा आधुनिक है और वह अपने समय के ज्वलंत प्रश्नों पर विचार-मंथन करते हैं। अहिल्या से जब राम-लक्ष्मण मिलने जाते हैं, तो लक्ष्मण आधुनिक आम नागरिक की तरह ही सोचते हैं, जिसमें स्त्री-पुरुष समानता के स्वर हैं।


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जब महर्षि गौतम यह जानते थे कि बलशाली दुष्ट इंद्र ने कपटपूर्वक उनकी सहधर्मिणी अहिल्या का शीलभंग किया तो उन्होंने अपनी पत्नी को इतना बड़ा दंड क्यों दिया? एक स्त्री यदि किसी पर-पुरुष द्वारा ठगी जाए तो क्या पति का यही आचरण होना चाहिए? क्या स्त्री मानव का प्रतिरूप नहीं? क्या पुरुष को यह सर्वाधिकार प्राप्त है कि विषम परिस्थिति में वह अपने लिए अलग व्यवस्था दे और स्त्री जाति के लिए अलग? पति-पत्नी के जन्म-जन्मांतर के कथित संबंध क्या इतने कच्चे होते हैं कि एक शीलहरण से वे टूटकर बिखर जाएं? ये प्रश्न खुद अपने उत्तर लेकर आते हैं और युगों तक विस्तीर्ण इस सामाजिक व्यवस्था पर चोट करते हैं। मम अरण्य के लेखक सुधाकर अदीब चार काव्य-संग्रह, दो कहानी संग्रह और तीन उपन्यासों की सर्जना कर चुके हैं। उन्होंने इस कृति में रामकथा को पूर्ववत स्वरूप में ही अपने उपन्यास का कथानक बनाया है, किंतु वैचारिक धरातल पर उसे नवीन उपकरणों से परखने का प्रयास रहा है। राम के भाई लक्ष्मण की आत्मकथा-सी प्रतीत होने वाली यह कृति अन्य रामकथाओं से अलग है। नई सोच से ओतप्रोत यह कृति हमें आज के समय की सच्चाइयों का निदर्शन कराती है और चिंतन के लिए प्रेरित भी करती है। यही इस कृति की सबसे बड़ी खूबी है। महर्षि विश्वामित्र जब राम-लक्ष्मण के साथ जा रहे होते हैं, तब कलियुग के प्रसंग पर है। त्रिकालदर्शी विश्वामित्र बताते हैं, कलियुग सबसे दारुण परिस्थितियों का होगा, जिसमें महापुरुष नगण्यप्राय होंगे और व्यक्तित्व से बौने और क्षुद्र मनुष्यों का युगीन व्यवस्था पर वर्चस्व रहेगा। छल-छंद, भ्रष्टाचार, नैतिक पतन, स्वार्थ और कुटिलता का ऐसा घातक सम्मिश्रणयुक्त वातावरण धरती पर बनेगा कि तब शायद गंगा की पवित्रता भी शेष न रह जाए। जब प्रकृति के अधिकाधिक दोहन में सन्नद्ध शासकगण राजनीति और स्वार्थनीति से प्रेरित होकर गंगा की धारा को भी अवरुद्ध कर देंगे।


मल-मूत्र-शव विसर्जन ही नहीं, इसमें अनेकानेक रासायनिक उद्योगों का विषैला कचरा छोड़ेंगे। गंगा बचेगी, तभी देश बचेगा। राष्ट्र बचेगा। धरती बचेगी। अन्यथा ऐसा घोर कलियुग आएगा, जो जीव-जंतुओं के महाविनाश के साथ-साथ मनुष्यता के अस्तित्व को भी संकट में डाल देगा..। यह भले ही हमारे समय का सच है, जिसे विश्वामित्र के मुंह से लेखक ने कहलवाया है, लेकिन इसके जरिये उन्होंने पर्यावरण पर आए संकट से आगाह करने का काम भी किया है। श्रेष्ठ साहित्य का धर्म भी यही है कि वह भले ही किसी युग की पृष्ठभूमि में लिखा गया हो, लेकिन वर्तमान के लिए युगचेता का काम करे। लक्ष्मण का चरित्र इस कृति में अत्यंत सूक्ष्मता से रूपायित हुआ है। वह राम के छोटे भाई तो हैं ही, उनके समर्पित सेवक भी हैं। एक ऐसा सेवक, जो स्वामी के कार्र्यो में इतना निमग्न है कि उसे स्वयं के अस्तित्व का भान ही नहीं रहता। चारों भाइयों के विवाह के प्रसंग पर लक्ष्मण कहते हैं, हम चारों भाइयों का विवाह साथ हुआ। उर्मिला, मेरी जीवनसंगिनी यूं अचानक मेरे जीवन में प्रवेश कर जाएगी और हम विवाह के गठबंधन में इतने शीघ्र बंध जाएंगे, मैंने कल्पना न की थी। उस कोलाहल में मैं अपनी प्रिया को ठीक से देख भी न पाया था। सारा समय मेरी दृष्टि भैया श्रीराम और देवी सीता के पाणिग्रहण संस्कार को निहारने में लगी रही। कब उर्मिला का कन्यादान हुआ, कब मुझ लक्ष्मण ने उर्मिला संग सात फेरे लिए, कब वह अपनी बहनों के साथ विदाई के रथ में बैठ गई, उसे यह सुमित्रानंदन जान भी न पाया।


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मैं भी कैसा बावला हूं? अपने प्रति कितना असावधान? वनवास राम को मिला था, लक्ष्मण को नहीं, लेकिन अरण्य कांड में लक्ष्मण अपने भ्राता राम की छाया बनकर रहे। उन्होंने खुद को और अपने जीवन को महत्व नहींदिया। यही कारण है कि अनेक रामकथाओं में लक्ष्मण की मुखर भूमिका सीमित ही दिखाई देती है। महत्वपूर्ण बात यह है कि वही चरित्र बड़ा होता है, जो स्वयं के लिए नहीं, परहित हेतु जीता हो। कुल मिलाकर, लक्ष्मण की यह आत्मकथा इस चरित्र के प्रति भ्रांत धारणाओं को तो तोड़ती ही है, हमारे समय के प्रश्नों के जवाब ढूंढने और हमें सचेत करने का भी प्रयास करती है।


लेखक – विवेक भटनागर


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Tags:Ram, Laxman, Ramayan, Sita, Book, Book Launch, लक्ष्मण , श्रीराम , रामायण, राजनीति , किताब, समालोचन

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