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जब से भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने राजनीतिक जमात के होश उड़ा दिए हैं तब से इस व्यवस्था का रुख आंदोलनकारियों के प्रति और कठोर हो गया है। हाल ही में दो किसान नेताओं को जेल में डाल दिया गया। मध्य प्रदेश के किसान नेता डॉ. सुनीलम 14 साल पुराने एक मामले में भोपाल जेल में बंद हैं। 1998 में प्राकृतिक आपदा से फसल बर्बाद हो जाने का मुआवजा मांगने के लिए बैतूल जिले की मुलताई तहसील पर किसानों का प्रदर्शन हुआ था। पुलिस ने किसानों पर फायरिंग की थी, जिसमें 24 किसान मारे गए थे। प्रतिक्रिया में हुई हिंसा में फायर ब्रिगेड का चालक मारा गया। किसानों के मरने की तो आज तक कोई प्राथमिकी दर्ज नहीं हुई अलबत्ता सुनीलम और उनके साथियों पर 66 मुकदमे दर्ज हो गए। इसके बाद सुनीलम निर्दलीय विधायक भी चुने गए। बाद में वह समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए। दूसरी बार वह समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीते। इसका एकमात्र कारण यही था कि वह किसी राजनीतिक दल से ऊपर उठ चुके थे। सुनीलम की छवि हमेशा राजनेता की कम, जुझारू कार्यकर्ता की ज्यादा रही है। उन्होंने नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों के विरोध में प्रदर्शन करते हुए विदेश में भी गिरफ्तारी दी थी। हाल ही में वह अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में भी काफी सक्रिय रहे। मुलताई सत्र न्यायालय ने सुनीलम और उनके दो साथियों शेषराव सूर्यवंशी व प्रहलाद अग्रवाल को 18 अक्टूबर को उम्रकैद की सजा सुनाई।
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सुनीलम हाल के दिनों में छिंदवाड़ा में स्थापित किए जाने वाले एक निजी बिजलीघर और उसको पानी की आपूर्ति के लिए बनाई जा रही परियोजना का विरोध कर रहे थे। जब मेधा पाटकर 4 नवंबर को छिंदवाड़ा में सुनीलम की वकील आराधना भार्गव के घर पहुंचीं तो उन्हें भी रात ग्यारह बजे गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। आराधना को एक दिन पहले ही गिरफ्तार कर लिया गया था। मेधा पाटकर को दो दिनों तक बिना कोई कारण बताए जेल में रखा गया। जाहिर है कि ये तमाम गिरफ्तारियां प्रस्तावित बिजली संयत्र के विरोध में चल रहे आंदोलन की वजह से की जा रही हैं ताकि तनाव का माहौल बनाकर किसानों की जमीन का अधिग्रहण आसानी से किया जा सके। दयामणि बारला एक आदिवासी कार्यकर्ता हैं, जो झारखंड में भूअधिग्रहण के खिलाफ आंदोलन का नेतृत्व कर रही हैं। उन्हें 16 अक्टूबर को एक पुराने मामले में जेल में डाल दिया गया। वह रांची के बाहर नगड़ी गांव में तीन शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने के लिए 227 एकड़ जमीन के अधिग्रहण के प्रयास का विरोध कर रही हैं। इन तीन में एक विधि शिक्षा का भी संस्थान है, जिसके कुलपति उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश होंगे। अब ऐसा लगता है कि उच्च न्यायालय ने इसे प्रतिष्ठा का मुद्दा बना लिया है। इस पूरे मामले ने आदिवासियों को निश्चित रूप से औपनिवेशिक काल की याद दिला दी होगी। संविधान में दिए गए आदिवासियों के अधिकार और संसद द्वारा बनाए गए विभिन्न कानूनों द्वारा प्रदत्त उनके अधिकारों की तो धज्जियां ही उड़ा दी गईं।
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दयामणि को एक मामले में जमानत मिलते ही उन्हें दूसरे मामले में गिरफ्तार कर जेल से निकलने का मौका ही नहीं दिया गया। आश्चर्यजनक बात तो यह है कि उन्हें बहुत हल्की धाराओं जैसे शांति भंग करने की आशंका और सरकारी काम में बाधा डालने में जेल में डाला गया है। इसके पहले दयामणि बारला एक स्टील निर्माण कारखाने के लिए भूमि अधिग्रहण के प्रयास का भी विरोध कर चुकी हैं। सुनीलम और दयामणि बारला, दोनों में समानता यह है कि ये दोनों ही प्रभावशाली औद्योगिक घरानों की बड़ी परियोजनाओं का विरोध कर रहे हैं। इस तरह की परियोजनाओं में बड़े भ्रष्टाचार के उजागर होने से यह बात साफ हो गई है कि इन परियोजनाओं का उद्देश्य सिर्फ विकास करना नहीं होता। इनमें निजी कंपनियों और शासक वर्ग के सदस्यों को सीधे बड़ा वित्तीय लाभ पहुंचता है। अक्सर हाशिये पर रह रहे लोगों को इन परियोजनाओं के निर्माण की भारी कीमत चुकानी पड़ती है। उदाहरण के लिए आदिवासियों के पारंपरिक अधिकार वाली भूमि पर जो विधि शिक्षण संस्थान बनेगा उसमें कितने आदिवासी छात्र दाखिला ले पाएंगे, यह कहना मुश्किल है। जो छात्र यहां से पढ़कर निकलेंगे वे ऐसे पदों पर पहुंचेंगे जहां से वे आदिवासियों के और शोषण में भागीदार होंगे। अत: संघर्ष सिर्फ परियोजनाओं के खिलाफ ही नहीं, बल्कि इन परियोजनाओं द्वारा बढ़ाई जाने वाली विषमता के भी खिलाफ है। सुनीलम और दयामणि बारला सिर्फ वित्तीय अनियमितताओं के खिलाफ ही नहीं, बल्कि नीतियों के भ्रष्टाचार के भी खिलाफ हैं, जिसके अंतर्गत शासक वर्ग विकास का फायदा खुद के हिस्से में कर लेता है और वंचित तबके और वंचित हो जाते हैं।
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यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भ्रष्टाचार की इन नीतियों के खिलाफ आवाज उठाने वाले ही निशाने पर लिए जा रहे हैं। इस तरह के भ्रष्टाचार के खिलाफ सवाल उठाने का मतलब बन गया है शासक वर्ग के अस्तित्व पर हमला करना। यदि शासक वर्ग विकास के लाभ को समतामूलक ढंग से पूरे समाज के साथ साझा करता है तो उसे अपनी संपन्न जीवनशैली के साथ समझौता करना पड़ेगा। इसलिए उसने विकास के प्रतीकों पर सवाल उठाने वालों को ही जेल में डालने की घटिया रणनीति अपनाई है, जिसकी इजाजत कोई भी लोकतंत्र नहीं दे सकता। आज सरकार चंद कार्यकर्ताओं को जेल में डाल रही है तो उसे याद रखना चाहिए कि कल ऐसे हजारों कार्यकर्ता खड़े हो जाएंगे।
लेखक संदीप पांडेय जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता हैं
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