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किसानों की परवाह किसे

जागरण मेहमान कोना
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महाराष्ट्र में किसानों का आंदोलन उग्र होता जा रहा है। पुलिस से टकराव में दो किसानों की मौत भी हो चुकी है। विवाद गन्ने के समर्थन मूल्य पर है। किसानों की मांग है कि यह 3000 रुपये प्रति क्विंटल हो, लेकिन कहा तो यह जा रहा है कि शरद पवार की शक्कर लॉबी ऐसा नहीं होने दे रही है। पुणे, सोलापुर और अहमदनगर के साथ-साथ पूरे प्रदेश में किसान सड़कों पर उतर आए हैं। यह अकेले महाराष्ट्र की बात नहीं है। ऐसे हालात पूरे देश में बन रहे हैं। उत्पादों का उचित मूल्य न मिलने के कारण किसान आंदोलन को बाध्य हैं। किसान अपनी लागत भी नहींनिकाल पाते और मुनाफाखोर भारी मुनाफा कमाते हैं। सरकारी नीतियों के कारण त्योहारी मौसम में बाजार में गेहूं का मूल्य 1650-1800 रुपये प्रति क्विंटल पहुंचना इसका ताजा उदाहरण है। एक तरफ तो सरकारी गोदामों में 1285 रुपये कीमत से खरीदा हुआ लाखों टन गेहूं पड़ा है और दूसरी तरफ आम आदमी की रोटी महंगी हो गई है। कहीं खाद और बीज ने समस्याएं खड़ी कर रखी हैं तो कहीं जमीन अधिग्रहण के नाम पर लूट है। उत्तर प्रदेश, हरियाणा सहित दिल्ली से सटे राज्यों में तो यह गंभीर संकट बन चुका है। उद्योग के नाम पर अधिगृहीत जमीनों पर ताबड़तोड़ इमारतें बन रही हैं। इन सबके बीच देश में हर महीने औसतन 70 किसान आत्महत्या कर रहे हैं। 2008-2011 के बीच 3340 किसानों ने अपनी जान दी। इनमें सबसे अधिक 1862 किसान शरद पवार के गृह राज्य महाराष्ट्र के थे। आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, केरल और पंजाब में भी कर्ज से तंग किसानों की आत्महत्या के मामले सामने आए हैं।


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अपने उत्पादों का उचित मूल्य हासिल करके ही किसान इस संकट से उबर सकते हैं, लेकिन सरकार की नीतियों ने किसानों को चौतरफा घेर लिया है। इसके लिए सार्थक पहल की जरूरत है। उपेक्षापूर्ण नीति वर्तमान केंद्र सरकार पर भारी पड़ सकती है। सरकार उद्योगपतियों को जिस तरह से सुविधाएं दे रही है, उससे यही लगता है कि इस देश को अनाज की नहीं, उद्योगों की ज्यादा जरूरत है। सरकार की अनदेखी के कारण ही आज तक कोई स्पष्ट कृषि नीति नहीं बन पाई। यदि बनाई भी गई है, तो उस पर सख्ती से अमल नहीं हो पा रहा है। किसानों की मौत सुर्खियां तो बनती हैं, लेकिन आज तक किसी उद्योगपति ने कर्ज में डूबकर आत्महत्या की हो, ऐसी जानकारी नहीं मिली है। उद्योगों के लिए सरकार ने लाल जाजम बिछा रखे हैं, पर किसानों के लिए समय पर न तो खाद की व्यवस्था हो पाती है और न बीज की। किसान हर हाल में कष्ट झेलता रहता है। इस सरकार को उद्योगपतियों की सरकार कहना गलत नहीं होगा। आज देश में खुद को किसान नेता कहने वाले ही किसानों के शोषण में आगे हैं। इसे किसान नेताओं की विफलता ही कहा जाएगा कि वे आज तक सरकार पर स्पष्ट कृषि नीति बनाने के लिए दबाव नहीं डाल पाए। ऐसे लोग खुद को किसानों का नेता बताकर किसानों को ही धोखा दे रहे हैं। पिछले साल जब हजारों टन अनाज सड़ गया था, तब सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को लताड़ लगाई थी अगर अनाज को सुरक्षित नहीं रख सकते, तो उसे गरीबों में मुफ्त में बांट दो। कोर्ट के इस रवैये से केंद्र सरकार इतनी अधिक नाखुश हुई कि उसने कोर्ट से ही कह दिया कि वह अपने सुझाव अपने तक ही सीमित रखे। आज पंजाब, हरियाणा, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में कमोबेश यही हालात हैं कि पिछले साल का ही अनाज इतना अधिक है कि इस साल के अनाज को रखने की जगह ही नहीं बची। अनाज का विपुल उत्पादन होने के बाद भी न तो किसानों को अनाज का सही दाम मिल रहा है और न ही नागरिकों को सस्ता अनाज मिल रहा है। क्या हमारे नेता अधिकारी इतने भी दूरंदेशी नहीं कि अनाज सड़े उसके पहले ही वह सही हाथों तक पहुंच जाए। हमारे पास अनाज का विपुल भंडार है, उसके बाद भी देश में भुखमरी है। तेल कंपनियों को होने वाले घाटे की चिंता सरकार को सबसे अधिक है।


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उनकी चिंता में शामिल होते ही सरकार पेट्रोल-डीजल के भाव बढ़ा देती है, पर कृषि प्रधान देश में सरकार किसानों के लिए कभी चिंतित होती है, ऐसा जान नहीं पड़ता। जब देश में गोदाम नहीं हैं, तो फिर गोदाम बनाना ही एकमात्र विकल्प है। शर्म आती है कि हम उस देश में रहते हैं, जहां अनाज तो खूब पैदा होता है, पर लोग भूख से भी तड़पते हुए अपनी जान दे देते हैं। यह सब सरकारी अव्यवस्था के कारण है। आखिर गठबंधन सरकार की कुछ मजबूरियां होती हैं। करते रहें किसान आत्महत्या, इन मजबूरियों के आगे किसानों की जान बौनी है। बस तेल कंपनियों को कभी घाटा नहीं होना चाहिए।


लेखक डॉ. महेश परिमल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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