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जेल की एक समानांतर दुनिया

जागरण मेहमान कोना
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raj kishore jiiiiiiiiiiमैं समझता हूं कि जिन क्षेत्रों में तत्काल सुधार की जरूरत है, उनमें जेलों का स्थान सबसे ऊपर की तरफ होना चाहिए। हम पुलिस सुधारों की प्रतीक्षा एक अरसे से कर रहे हैं। दो बार राष्ट्रीय पुलिस आयोग की नियुक्ति हो चुकी है। पहला आयोग 1977 में बना था और दूसरा 2002-03 में। दोनों की ही रिपोर्ट आंख खोलने वाली हैं और सिफारिशें पुलिस व्यवस्था में आमूल परिवर्तन लाने वाली। बशर्ते कि जो सिफारिशें की गई हैं, उन पर अमल किया जाए और उन्हें पूर्ण इच्छाशक्ति से लागू किया जाए, लेकिन विडंबना यही है कि उनकी कुछ सतही बातों को ही स्वीकार किया गया है और गंभीर बातों को आने वाली पीढि़यों के लिए छोड़ दिया गया है। नतीजा? पुलिस व्यवस्था लगातार भ्रष्ट और नाकाबिल होती जा रही है और अपराध तेजी से बढ़ते जा रहे हैं। दोनों के बीच एक खतरनाक रिश्ता यह है कि भ्रष्ट पुलिस व्यवस्था के कारण भी अपराध बढ़ रहे हैं। ऐसा कोई संगठित अपराध नहीं है जो पुलिस के समर्थन के बिना चल सके। अपराधी पकड़े जाते हैं, फिर जेल भी भेज दिए जाते हैं, जहां की हालत और भी बुरी है। इस मान्यता को अभी तक चुनौती नहीं दी गई है कि साधारण अपराधी जब जेल जाता है, तब वह व्यवस्थित और क्रूर अपराधी बन कर बाहर आता है। दूसरे शब्दों में कहें तो हमारी जेलें अपराधी बनाने के सबसे विश्वस्त कारखाने हैं, लेकिन अभी तक जेल सुधारों पर विचार करने के लिए कोई बड़ी पहल नहीं की गई है।


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मूल जेल अधिनियम वही है जो 1894 में बना था। किस्सा लोकतंत्र का जेलों केबारे में यह अनुभूति थी तो पहले से ही है, पर इसे एक झटके के साथ जगा दिया है विभूतिनारायण राय के उपन्यास किस्सा लोकतंत्र ने। विभूति बाबू, एक चालू शब्द का इस्तेमाल किया जाए तो, मेरे बॉस हैं। वह उस विश्वविद्यालय के कुलपति हैं, जहां मैं समूचे हिंदी साहित्य को इंटरनेट पर एक जगह जुटाने वाली वेबसाइट हिंदीसमय का संपादक हूं। भारत में चाटुकारिता की इतनी सख्त और लंबी परंपरा है कि जब कोई अपने बॉस की सच्ची तारीफ करता है, तो इसे भी चापलूसी ही मान लिया जाता है। सो यह मेरे लिए अत्यंत द्वंद्व की स्थिति है। लेकिन किया क्या जा सकता है? जेल के अनुभवों पर तो कई पुस्तकें हैं। ऐसी पहली पुस्तक मेरी टेलर की थी, पर इस विषय पर कोई अच्छा उपन्यास मेरी निगाह से अभी तक नहीं गुजरा है। बहुत पहले किन्हीं राजकुमार का उपन्यास पुलिस पढ़ा था। यह बहुत ही सुलिखित और दिलचस्प उपन्यास था। बाद में पुलिस पर और भी सामग्री देखी या पढ़ी, लेकिन जेलों की अंदरूनी व्यवस्था पर हिंदी में शायद कोई अच्छा उपन्यास अभी तक लिखा ही नहीं गया है। किस्सा लोकतंत्र का भी यह प्रमुख हिस्सा नहीं है।


हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था का जिस तेजी के साथ अपराधीकरण हुआ है, उसकी कथा सुनाते समय हमारी जेल व्यवस्था का भी प्रामाणिक चित्रण है। कोई पुलिस अधिकारी ही इतना बढि़या चित्रण कर सकता था। दिक्कत यह है कि गोरे देशों के बड़े अधिकारी पद-मुक्त हो जाने के बाद अक्सर अपने अनुभवों को शब्दबद्ध करते हैं, लेकिन भारत के पूर्व नौकरशाह इस मामले में भी गोपनीयतावादी ही बने रहते हैं। पद पर रहते हुए और पद-मुक्त हो जाने के बाद भी सरकार के प्रति वफादारी (यहां अनैतिक अर्थ में) उनके खून में दौड़ा करती रहती है। विभूतिनारायण राय ने इस अस्वस्थ परंपरा को तोड़ा है और समकालीन प्रशासन तंत्र पर कई उपन्यास लिखे हैं। जेल जीवन को किसी भी व्यवस्था की कसौटी कहा जा सकता है। जेल से बाहर की दुनिया पर सरकार का तो क्या, किसी का भी बस नहीं रहता, लेकिन जेल जीवन पर सरकार का पूर्ण नियंत्रण रहता है। बल्कि कहा जा सकता है कि उस जीवन को तय ही सरकार करती है। जेल की जिंदगी जेल में कैदी कैसे रहेंगे, क्या पहनेंगे, क्या खाए-पिएंगे, उनकी दिनचर्या क्या होगी, उनका मनोरंजन कैसे होगा, उनके अधिकार और कर्तव्य क्या होंगे, वे कुछ काम करेंगे या नहीं और यदि करेंगे तो कौन-से काम करेंगे, जो काम वे करेंगे उसका कितना पारिश्रमिक उन्हें मिलेगा, कौन-सी सुविधाएं मिलेंगी और कौन-सी नहीं, जेल के जीवन से जुड़े इस तरह के तमाम फैसले सरकार की ओर से ही तो सुनियंत्रित होते हैं। इसलिए सरकार चाहे तो जेल में एक आदर्श समानांतर जीवन का नक्शा गढ़ सकती है। सारी दुनिया के सामने एक मिसाल पेश कर सकती है।


पुलिस की हिरासत में रहने से डर लगे तो ठीक है, पर जेल जाते समय किसी को क्यों भयभीत होना चाहिए? किस्सा लोकतंत्र के अनुसार, भयभीत इसलिए होना चाहिए कि जेल की जिंदगी बाहर की जिंदगी का वीभत्सतम संस्करण है। बाहर माफिया हैं, तो जेल में भी माफियाओं का सामना करना पड़ता है। बाहर कमजोर पर मजबूत का हमला है तो जेल में भी राजा-प्रजा के दर्जे बने हुए हैं। बाहर सरकार और गुडों के बीच मिलीभगत चलती है तो जेल में भी इसी तरह के समीकरण होते हैं। बाहर पैसे से कुछ भी खरीदा जा सकता है तो जेल के भीतर भी पैसे का राज है। बाहर राजनीति के खेल हैं तो जेल के भीतर भी राजनीति के खेलों से परहेज नहीं है, बल्कि हैं ही। बाहर मनुष्य को पतित बनाया जाता है तो जेल में महापतित बना दिया जाता है। जेल की एक समानांतर दुनिया है, लेकिन यह समानांतरता यथार्थ और अतियथार्थ के बीच है, न कि यथार्थ और आदर्श के बीच। जैसा कि इसे होना चाहिए। आदर्श स्थिति तो यही कहती है। नायक की कहानी में छिपा संदेश किस्सा लोकतंत्र का नायक (या, प्रतिनायक) पी.पी. जब पहली बार जेल जाता है, तब उसका पूरा शरीर पुलिस के हस्ताक्षरों से भरा हुआ होता है और हर अंग में दर्द की लहर उठ रही होती है। आगे के कुछ हिस्सों पर गौर कीजिए। 1. जीप से उतरकर जेल के फाटक के अंदर जब उसने पहला कदम रखा, वह बायीं तरफ को हल्का झुका हुआ कांपती टांगों वाला एक ऐसा किशोर था जिसे अगर हल्की-सी सहानुभूति भी किसी कोने से मिलती तो वह फूट-फूटकर रो पड़ता, लेकिन उसे किसी से भी सहानुभूति नहीं मिली और वह थोड़ी देर में ही पूरी तरह से पत्थर बन गया। 2. जेल में उसकी असली दीक्षा हुई। पहली बार जेल आने के कारण पी.पी. को पूरा मौहाल बड़ा तिलिस्मी और रहस्यमय लग रहा था।


ऐसी अनुभूति होना स्वाभाविक भी था। हिंदी फिल्मों के तमाम नायक वहां मौजूद थे। उनके चेहरे से टपकने वाली क्रूरता और ओछेपन को वह ईष्र्या से देखा करता था। जेल में उसने देखा कि किस तरह बड़ा अपराधी सामाजिक स्वीकृति और प्रतिष्ठा हासिल करता है। जेल में ही मश्क की उसने वह भाषा, जो अंडरव‌र्ल्ड या अपराध-जगत की परत-दर-परत उसके सामने उघाड़ती चली गई और वह उन सबका एक के बाद एक साक्षात्कार करता चला गया। 3. जेल के अपने नायकों के सामने उसने देखा कि किस तरह जेल के आला हुक्काम उनके आगे हाथ बांधे बिछे पड़ते थे। मामूली अपराधियों के लिए जेल दारुण यातना की एक ऐसी अमानवीय अंधी प्रक्रिया थी, जिसका अंग बन जाने के बाद किसी को भी अपने इंसानी अस्तित्व पर शर्म आने लगती। जेल की यह अंधी दुनिया बदलनी चाहिए। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि इसे बदला कैसे जाए? किस स्तर पर बेहतर प्रयासों की जरूरत है? जाहिर है, जेल के भीतर जो कुछ भी होता है, वह जेल के बाहर की दुनिया की ही एक छाया है। इसलिए जेल के बाहर जो व्यवस्था काम कर रही है, वह क्यों चाहेगी कि पुलिस और जेल के ढांचे में कोई परिवर्तन आए। कॉस्मेटिक परिवर्तनों की बात और है। ये तो प्रशासन में भी हो रहे हैं। मनमोहन सिंह को रिफॉ‌र्म्स का बादशाह माना जाता है। काश, कोई उन्हें जाकर बताए कि कुछ और भी रिफॉर्म हैं जो राजनीतिक पहल का इंतजार कर रहे हैं।



लेखक राजकिशोर वरिष्ठ स्तंभकार हैं


Tag:Police, law, act ,jail ,जेल, पुलिस व्यवस्था, कानून व्यवस्था , अपराध, भष्ट्र पुलिस

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