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आम आदमी की पार्टी

जागरण मेहमान कोना
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nk singhफिर एक नई पार्टी! गोया कुछ दर्जन पंजीकृत, मान्यता प्राप्त तथा सैकड़ों अन्य पार्टियां पहले से जनता को विकास के नए आयाम देने का वादा करने में कम पड़ रही हों? जनता, भारतीय, राष्ट्रीय, लोक, समाजवाद, समता, विकास, कल्याण और परिवर्तन कुछ ऐसे शब्द रहे हैं जिनके नाम पर पिछले छह दशकों से पार्टियां खड़ी की जाती रही हैं और जनता को वादे बेचे जाते रहे हैं। इस बार सीधे आम आदमी पार्टी लाई गई है। ऐसा लगता है जैसे यह कहा जा रहा हो अब कहां जाओगे, आम आदमी में तो सबको समेट लिया गया है खास के खिलाफ। प्रजातंत्र में खास और आम के बीच एक शाश्वत द्वंद्व है।


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आम मिल जाए तो संदेश देने वाला स्वयं ही कालांतर में खास बन कर सत्ता का लाभ उठाने लगता है और आम फिर ठगा-सा महसूस करता है। आम आदमी के मन में मूल प्रश्न यह है कि दोनों में अंतर क्या है? भ्रष्टाचार के खिलाफ इन छह दशकों में पहली बार एक सामूहिक चेतना विकसित हुई है। चेतना के इस विकास में सबसे महत्वपूर्ण योगदान दिया है अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल के भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलनों ने। यह चेतना गुणात्मक रूप से बोफोर्स के काल में या जेपी आंदोलन में पैदा हुई अभिव्यक्ति से अलग है। बोफोर्स मामले को लेकर छिड़े अभियान और जेपी आंदोलन दोनों जनाक्रोश की उत्पत्ति थे और सत्ता में काबिज एक दल के खिलाफ थे। दल के सत्ता से हटने के साथ ही आक्रोश और आंदोलन खत्म हो गए। आम आदमी फिर ठगा जाने जगा। फिर वही व्यवस्था उसे लूटने में लग गई। इसके विपरीत इस बार यह आक्रोश नहीं है, बल्कि राजनीतिक वर्ग को लेकर और पूरी व्यवस्था के खिलाफ एक अविश्वास और आक्रोश है। पहली बार आम आदमी यह मान रहा है कि खरबूजा चाकू पर चले या चाकू खरबूजे पर कटता तो खरबूजा ही है। लिहाजा इस रिश्ते को बदलना होगा।


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ऐसे में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी क्या आम आदमी के इस पूर्व स्थापित शाश्वत संबंध को बदलने की क्षमता रखती है? दो स्तरों पर इसे देखने की जरूरत है। व्यवस्था परिवर्तन पहला पड़ाव है। दूसरा स्तर ज्यादा कठिन है क्योंकि चाकू पकड़ने वाला खास आदमी कहीं बाहर से नहीं आता। यही आम आदमी मौका पड़ने पर खरबूजा काटने वाला बन जाता है और अपने बेटे की नौकरी के लिए जाति के खास आदमी को वोट देने लगता है। रेलवे का टीटी यात्रियों से पैसे लेकर बर्थ देता है फिर अपने तबादले के लिए अपने अफसर को घूस में कमाई रकम का एक हिस्सा नजर कर देता है। मतलब यह कि आम आदमी कभी खुद चाकू उठा लेता है तो कभी खरबूजा बन कर कट जाता है। कोई राजा कमाता है तो कोई सत्ता में रहने के लिए राजा की पार्टी का समर्थन हासिल करता है। भ्रष्टाचार की एक इमारत प्रजातंत्र और दोषपूर्ण व्यवस्था की नींव पर खड़ी हो जाती है। चाकूधारियों की खरबूजे के प्रति ललक बनी रहती है और बताया जाता है कि सब कुछ संविधान के अनुरूप हो रहा है। जरूरत है यह बताने की कि आम आदमी के बेटे की नौकरी स्वत: ही लग सकती थी, अगर उसका जातिवादी अफसर या नेता कुछ अन्य लोगों से, जो किसी भी जाति के हो सकते है, पैसे लेकर कुपात्र अभ्यर्थियों को न चुनता। आम आदमी यह नहीं समझ पा रहा है कि चाकूधारियों की कोई जाति नहीं होती। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए लोगों की नैतिकता में गुणात्मक परिवर्तन लाना होगा। यह एक समाज सुधारक ही कर सकता है।



वोट मांगने वाला चाकूधारी याचक नहीं। व्यवस्था परिवर्तन तब होगा जब राजनीति में आमूलचूल परिवर्तन होगा और राजनीति तब चाकू-खरबूजा भाव से हटेगी जब आम आदमी जाति, क्षेत्र, बेटे की नौकरी के भाव से हटकर अच्छे और ईमानदार लोगों को वोट देना शुरू करेगा। राजनीति की कुछ मूल अवधारणाओं में एक के तहत यह माना जाता है कि राजनीतिक प्रक्रिया में शामिल होना इस बात पर निर्भर नहीं करता कि उस समाज का सामाजिक-आर्थिक विकास कैसा है। एक अध्ययन में पाया गया कि जहां ब्रिटेन, इटली, मैक्सिको और जर्मनी में निचले स्तर के संगठनों का राजनीतिकरण और उनमें भागीदारी एक परंपरा के रूप में रही है, वहीं अमेरिका में बेहतर सामाजिक-आर्थिक विकास के बावजूद निम्न स्तर पर भागीदारी कम होती है। भारत में गरीबी के बावजूद राजनीतिक भागीदारी अधिक है, लेकिन यह भागीदारी सहज राजनीतिक चेतना का प्रतिफल न होकर जातिवाद के आधार पर है।


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देश के अन्य भागों में भी कमोबेश यही स्थिति है। ऐसे में प्रश्न यह है कि क्या चुनाव के दौरान भ्रष्टाचार के खिलाफ उभरी जनचेतना इतनी ताकतवर होगी कि जातिवाद से ऊपर उठाकर एक ब्राह्मण मतदाता अपने जगजाहिर बेईमान प्रत्याशी को छोड़ कर एक ईमानदार कायस्थ, यादव या अनुसूचित जाति के प्रत्याशी को चुने? क्या उसको भरोसा रहेगा कि दूसरी जाति का ईमानदार प्रत्याशी अगले पांच साल भी चाकूधारी नहीं बनेगा? आम आदमी पार्टी और उसके नेता अरविंद केजरीवाल को यह बताना पडे़गा। आम जनता को यह भी शक होगा कि आम आदमी पार्टी कहीं यह संदेश तो नहीं देना चाहती की मुझे वोट दोगे तो मैं सत्ता में आकर ठीक तरीके से कोयला खदान और 2जी का आवंटन करूंगा। अगर मात्र इतना ही करना है तो चाकू-खरबूजा रिश्ता बरकरार रहेगा। अंतर केवल इतना होगा कि राजा और गडकरी के चहरे बदल जाएंगे। शायद अरविंद केजरीवाल को यह आभास है कि महज राजनीतिक दल बनाना और यह सोचना कि जंतर-मंतर पर आनेवाली भीड़ भारत है और नारे लगाने का मतलब जातिवाद व व्यक्तिगत लालसा को तिलांजलि देना है, गलत होगा। यही वजह है कि अपने भाषणों में वह लगातार इस बात पर जोर दे रहे हैं कि बीडीओ का रहना, न रहना जनता तय करेगी। गांव के लोग तय करेंगे कि पाठशाला में कभी-कभी आने वाले मास्टरजी को तनख्वाह दी जाए या चलता किया जाए। घोटाला करने वाले सरपंच को पद से हटा दिया जाए। यह एक ऐसी स्थिति पैदा करने जैसा होगा जिसमें आम आदमी यह तय करे कि वह चाकूधारियों के लिए खरबूजा बना रहेगा या अपनी नियति स्वयं तय करेगा। यानी शक्ति नीचे के असली आम आदमी के हाथों में हो। क्या केजरीवाल यह विश्वास दिला पाएंगे?


लेखक एनके सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं


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