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मुद्दों से भटकी महत्वपूर्ण बहस

जागरण मेहमान कोना
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मल्टीब्रांड रिटेल में एफडीआइ के मामले पर लोकसभा में सपा, बसपा के लोकसभा से बर्हिगमन कर जाने के परिणामस्वरूप सरकार ने विपक्ष के प्रस्ताव को गिराने में सफलता हासिल कर ली। माना जा रहा है कि राज्यसभा में भी यही तस्वीर बनेगी। इससे भले ही सरकार ने रिटेल में एफडीआइ की एक बड़ी बाधा पार कर ली हो, लेकिन इस मामले में जो बहस हुई उसकी दिशा नकारात्मक रही। जिस बहस को कृषि उपज विपणन ढांचे में सुधार पर केंद्रित होना चाहिए था वह रिटेल कंपनियों के फायदे-नुकसान पर केंद्रित रही। बहस में जहां सत्ता पक्ष ने रिटेल कंपनियों की भूमिका को लेकर लंबे-चौड़े सब्जबाग दिखाए वहीं विपक्षी दलों ने इसे छोटे किसानों-व्यापारियों की तबाही की शुरुआत बताया। इस दौरान किसी ने मौजूदा कृषि विपणन ढांचे की खामियों को उजागर नहीं किया, जिसके चलते किसान व उपभोक्ता, दोनों घाटे में रहते हैं। गौरतलब है कि देश के किसान अपनी उपज बेचने के लिए स्वतंत्र नहीं हैं और किसानों से पांच रुपये किलो खरीदी गई प्याज के लिए उपभोक्ता को 30 रुपये चुकाना पड़ता है।


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आज जिस देश में हर गली-कूचे में मोबाइल व बाइक शोरूम खुले हैं उसी देश में औसतन 435 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में एक कृषि बाजार है। इसी का नतीजा है कि किसानों को अपनी उपज औने-पौने दामों पर व्यापारियों को बेचनी पड़ती है। कई बार तो यह कीमत इतनी कम होती है कि किसान उपज की बिक्री की तुलना में फसल को घर में पड़े-पड़े सड़ने देना बेहतर समझता है। इतना ही नहीं, कई फसलों की न्यूनतम कीमत पाने के लिए किसानों को जान तक गंवानी पड़ती है। उदाहरण के लिए पिछले महीने महाराष्ट्र के किसानों को गन्ने का राज्य समर्थित मूल्य (एसएपी) बढ़वाने के लिए आंदोलन करना पड़ा, जिसमें हुई पुलिस गोलीबारी से दो किसानों की मौत हो गई। उत्तर प्रदेश में भी इसी प्रकार के हालात पैदा हो रहे हैं। देश में उदारीकरण-भूमंडलीकरण का आगाज हुए दो दशक से अधिक हो गया है। इस दौरान नियम-कानून और उद्योग-व्यापार जगत में बहुत कुछ बदला, लेकिन कृषि उपजों का व्यापार जहां का तहां वाली स्थिति में ही है। इसी का नतीजा है कि सूई से लेकर जहाज तक बनाने वाली कंपनियां अपना सामान बेचने के लिए आजाद हैं, लेकिन किसान नहीं। इसका कारण है 1953 में बना एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्केटिंग कमेटी (एपीएमसी) कानून, जिसके तहत किसानों को अपनी उपज बेचने के लिए मध्यस्थों (आढ़तियों) को सहारा लेना ही होगा और आढ़तियों को कृषि उपज की खरीद-फरोख्त के लिए लाइसेंस लेना जरूरी है।


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इस कानून के कारण न तो नए व्यापारियों को आसानी से लाइसेंस मिलते हैं और न ही किसी नई मंडी का निर्माण हो पाता है। इतना ही नहीं इस कानून के तहत गठित बाजार समितियां विपणन के आधुनिकीकरण के बजाय राज्य सरकारों के लिए राजस्व उगाही का जरिया बन चुकी हैं। उदाहरण के लिए सब्जियों व फलों पर एपीएमसी से पंजाब को सालाना 350 करोड़ और हरियाणा को 200 करोड़ रुपये की आय होती है। यही कारण है कि राज्य सरकारें कृषि उत्पादों की बिक्री में लाइसेंस-परमिट राज बनाए रखना चाहती हैं। कृषि उपजों के व्यापार में बिचौलियों के बढ़ते वर्चस्व का ही नतीजा है कि जहां 1950-51 में उपभोक्ता द्वारा चुकाई गई कीमत का 89 फीसदी हिस्सा किसानों तक पहुंचता था वहीं आज यह अनुपात घटकर 34 फीसदी रह गया है। आज उपभोक्ता द्वारा चुकाई गई कीमत का 66 फीसदी उन नकली किसानों (बिचौलियों) की जेब में जा रहा है जो कभी खेत में गए ही नहीं। यदि पूरे देश के पैमाने पर देखें तो यह रकम सालाना 20 लाख करोड़ रुपये बैठती है। यह रकम वालमार्ट के कुल सालाना कारोबार 21 लाख करोड़ रुपये से थोड़ी ही कम है। सरकार ने 2003 में एपीएमसी कानून में संशोधन कर मॉडल एपीएमसी कानून बनाया था।



यह कानून निजी व कॉरपोरेट घरानों को विपणन नेटवर्क स्थापित करने की अनुमति देता है। इसमें थोक विक्रेताओं व आढ़तियों के नेटवर्क को खत्म करने का प्रावधान भी है, लेकिन राजस्व नुकसान और आढ़तियों की मजबूत राजनीतिक लॉबी के चलते अधिकांश राज्यों ने इसे नहीं अपनाया। हां, आंध्र प्रदेश इसका अपवाद रहा जिसने राज्य भर में चुनिंदा स्थानों पर रैयत बाजार की स्थापना की, जहां किसान अपनी उपज सीधे उपभोक्ता को बेच सकते हैं। मुक्त व्यापार में बाधक होने के साथ-साथ एपीएमसी कानून महंगाई को खाद-पानी देने का काम करता है, क्योंकि इससे कृषि उत्पादों की आवाजाही की लागत बढ़ती जाती है। उदाहरण के लिए उत्तर भारत से दक्षिण भारत में वस्तुओं के परिवहन और स्थानीय करों की वजह से इनकी कीमत ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका जैसे देशों से आयातित वस्तुओं की तुलना में कहीं ज्यादा हो जाती है। इसी प्रकार कृषि उत्पादों को पंजाब से मुंबई ले जाने पर वह यूरोपीय संघ से आयात की तुलना में करीब 40 फीसदी और थाईलैंड के मुकाबले 250 फीसदी महंगा हो जाता है। स्पष्ट है यदि एपीएमसी कानून को मौजूदा जरूरतों के मुताबिक संशोधित कर दिया जाए तो देश के व्यापारी ही वह सब कर सकते हैं जिसका सब्जबाग सरकार मल्टीब्रांड रिटेल में एफडीआइ के जरिये उपभोक्ताओं को दिखा रही है। एक ओर खेती घाटे का सौदा बनी हुई है तो दूसरी ओर महंगाई रुकने का नाम नहीं ले रही है। ऐसे में विपणन ढांचे में सुधार समय की मांग है। रिटेल में एफडीआइ आने के बाद भी देश के विपणन ढांचे और मंडी व्यवस्था में सुधार की जरूरत बनी रहेगी ताकि रिटेल कंपनियां मनमानी न कर सकें। अत: सरकार को इस दिशा में भी ठोस प्रयास करने चाहिए।



लेखक रमेश दुबे  स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


Tag: Fdi, एफडीआइ, रिटेल में एफडीआइ, लोकसभा, राज्यसभा, सरकार

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